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अपभ्रंश भाषा का संक्षिप्त परिचय | अपभ्रंश के भेद | अपभ्रंश की विशेषताएं

अपभ्रंश भाषा का संक्षिप्त परिचय | अपभ्रंश के भेद | अपभ्रंश की विशेषताएं

अपभ्रंश भाषा का संक्षिप्त परिचय

अपभ्रंश आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले उत्तर भारत में बोलचाल और साहित्य रचना की सबसे जीवंत और प्रमुख भाषा है। अपभ्रंश आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बची की स्थिति है। अपभ्रंश में वे सभी भाषावैज्ञानिक तत्त्व परिलक्षित होते हैं जो इसके पूर्व की भाषाओं पालि और साहित्यिक प्राकृतों में हैं तथा बहुत से नूतन तत्त्व समाहित मिलते हैं जो परवर्ती आधुनिक आर्यभाषाओं की अमूल्य निधि बन गए हैं। मध्यकालीन भाषाओं में अपभ्रंश की स्थिति सबसे अधिक वैचित्र्यपूर्ण एवं रोचक है। पालि तथा साहित्यिक प्राकृतों के लिए जैसी सम्मान भावना आद्यन्त रही वैसी अपभ्रंश के लिए नहीं। इसके पूर्व प्राचीनकालीन भाषाओं के लिए भी सम्मान सूचक संज्ञाओं का प्रयोग हुआ। एक तरफ है ज्ञान का साक्षात्कार करनेवाली छान्दस, संस्कारों से जोड़नेवाली संस्कृत, महात्मा बुद्ध के वचनों को सुरक्षित रखनेवाली पालि, सकल जगत जन्तुओं के लिए सुबोध प्राकृत और दूसरी तरफ है विकृत, च्युत, स्खलित, अशुद्ध समझी जानेवाली अपभ्रंश। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति अप+अंश+घ्रज प्रत्यय से मानी जाती है।

सर्वप्रथम व्याडि ने शब्द संस्कार से हीन शब्दों के लिए अपभ्रंश नाम का प्रयोग किया जिसकी सूचना भतृहरि के ‘वाक्यपदीयम (5 वीं शताब्दी ई0) में मिलती है। व्याडि का संग्रह’ नामक मूल ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है। 150 ई0 पूर्व में विद्यमान महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है ‘भूयांसोऽपशब्दाः अल्पीयासः शब्दा इति। एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी, गोणी, गोता गोपोतलिका इत्येवमादयोऽपभ्रंशा अर्थात् अपशब्द बहुत से हैं, शब्द कम हैं। एक-एक शब्द के अनेक अपभ्रंश मिलते हैं, जैसे ‘गौ’: शब्द के गाबी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि ऐसे अन्य शब्द अपभ्रंश है। इन शब्दों का प्रयोग पतंजलि ने काल्पनिक ढंग से नहीं किया। पालि, प्राकृत के ग्रंथों में इनके अस्तित्व से यही सिद्ध होता कि इनका जनभाषाओं में प्रचलन था।

सातवीं शताब्दी के रचनाकार दण्डी ने भरत के द्वारा निर्दिष्ट आमीर विभाषा की काव्यात्मक प्रतिष्ठा का उल्लेख इन शब्दों में किया है-

‘आभीरादि गिरयः काव्येप्वपधशः इति स्मृताः।

उद्योतन सूरि ने अपने कुवलयमाला में संस्कृत, प्राकृत के साथ अपभ्रंश को भी साहित्यिक भाषा बताया है। राजशेखर (10 वीं शताब्दी) के द्वारा कल्पित काव्य पुरुष का अपयश जघन माना गया है। उन्होंने राजसभा में अपभ्रंश कवियों के पश्चिम में बैठने की व्यवस्था का उल्लेख किया है।

अपभ्रंश के भेद

अपभ्रश का व्यापक प्रचार-प्रसार होने के कारण इसके अनेक क्षेत्रीय भेदों और उपभेदों का होना स्वाभाविक है। रुद्रट न देश विशेष से अपभ्रंश के अनेक गेदों की ओर संकेत किया। उद्योतन सूरि ने देशी भाषा अपभ्रंश की. अठारह विभाषाओं का उदाहरण सहित उल्लेख किया है। प्राकृतानुशासन के लेखक पुरुषोत्तम, प्राकृत कल्पवृक्ष के लेखक राम शर्मा तर्कवागीश ने भी क्षेत्रीय आधार पर भेदों-उपभेदों का विवेचन किया है। मार्कण्डेय ने कुल भेदों की संख्या 27 तक पहुँचा दी-ब्राचड, लाट, वैदर्भ, उपनागर, नागर, बार्बर, आवन्त्य, मागध, पांचाल, टक्क, मालव, कैकेय, गौड़, औद, वैवपाश्चात्य, पान्ड्य, कौन्तल, सैंहल, कलिंग, प्राच्य, कार्णाट, काॹय, द्राविण, गौर्जर, आभीर, मध्य देशीय और बैताल। वैयाकरणों द्वारा अपभ्रंश के, मुख्यतः तीन भेद स्वीकार किए गए-

  1. नागर
  2. उपनागर
  3. ब्राचड
  4. नागर- यह गुजरात की बोली थी। इसकी व्युत्पत्ति नागर ब्राह्मणों तथा नगर से मानी जाती है। यह शिष्ट भाषा थी। अपभ्रंश का अधिकांश साहित्य नागर अपभ्रंश में ही लिखा गया।
  5. उपनागर- यह राजस्थान की बोली थी। इसका स्वरूप नागर और ब्राचड के सम्मिश्रण से तैयार हुआ है।
  6. ब्राचड- यह सिन्ध की बोली थी।

सनत्कुमार चरिक की भूमिका में याकोबी ने उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी और पश्चिमी अपभ्रंश के चार भेदों का उल्लेख किया है। डॉ० तगारे ने उत्तरी भेद को मान्यता नहीं दी। उन्होंने केवल तीन ही भेदों का निर्देश किया।

  1. पूर्वी अपभ्रंश- इस भेद की परिकल्पना सरह, कण्ह आदि बौद्ध सिद्धों के दोहाकोशों की भाषा के आधार पर की गई है। पूर्वी अपभ्रंश की भाषा-वैज्ञानिक विशेषताएं इस प्रकार निर्दिष्ट की गई हैं।
  2. इसमें क्ष का परिवर्तन क्ख या ख से हुआ है। जैसे-क्षण खण।
  3. श सुरक्षित हैं।
  4. दक्षिणी अपभ्रंश- दक्षिणी अपभ्रंश की अवधारणा, महापुराण, जसहर चरिउ, णायकुमार चरित और करकंडचरिउ आदि रचनाओं की काव्यभाषा पर आधारित है। इनका रचना क्षेत्र बरार और मानखेट है। डॉ० तगारे का यह भेद ठोस भाषावैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है।
  5. पश्चिमी अपभ्रंश- यह शौरसेनी प्राकृत का यह परवर्ती रूप है गुजरात और राजस्थान की बोलियों से मिश्रित हो गया है। इसी अपभ्रंश का प्राचीनतम रूप कालिदास के विक्रमोर्वशीयम् में दृष्टिगत होता है अपभ्रंश की अधिकांश रचनाएँ-भविष्यदत्त कथा, परमात्म प्रकाश योगसार, पाहुड़ दोहा, सावयधम्म दोहा आदि पश्चिमी अपभ्रंश में ही रची गई हैं।

अपभ्रंश की विशेषताएं

अपभ्रंश में मध्यकालीन भाषाओं की ध्वनिगत, और व्याकरणगत व्यवस्था कुछ और विकसित परिलक्षित होती है। अपभ्रंश तक भाषा में कुछ ऐसी परिवर्तन हुए जिनमें अपभ्रंश मध्यकाल की अपेक्षा आधुनिक काल की ओर अधिक झुक गई। विभक्तियों के घिस जाने के कारण भाषा में वियोगात्मकता के स्पष्ट लक्षण पैदा हो गए जो आधुनिक आर्यभाषाओं की प्रमुख विशेषता बन गई। आधुनिक भाषाओं में प्रयुक्त सर्वनामों, क्रिया पर्दो के रूप अपभ्रंश में ही विकसित हो गए थे। अपभ्रंशव्याकरण के विभिन्न पक्षों पर दृष्टिपात करके विकासात्मक तत्त्वों को आसानी से विश्लेषित किया जा सकता है-

ध्वनि गठन- अपभ्रंश में स्वरों और व्यजनों की व्यवस्था, लगभग प्राकृत जैसी ही रही है।

स्वर- अपभ्रंश में पालि-प्राकृत की तरह अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऐ, (ह्रस्व ए), ए, ओ, ओ,’ ओ (हस्व ओ) आदि स्वरों का विधान है। प्राचीन भा० आO भाषा की ध्वनि क का प्राकृतवत वर्ण विकार हुआ है। अधिकांशत वा का वर्ण विकार अ,इ,उ,ए, अर, रि में हुआ है। जैसे-कृष्ण > कण्ह, मृदु > मउ, कृपाण > किपाण, कृमि > किमि, पृच्छ > पुच्छ, मृत > मुअ, गृहस्थ > गेहत्य, भातृ भायर, पितृ>पियर, ऋण रिण, ऋद्धि रिद्धि। अपभ्रंश में लू का भी लोप ही रहा।

ऐ, औ को अपभ्रंश में पृथक करके बोला और लिखा जाता था जैसे-वैशाख वइसाह (अ+इ), वैदेह >वइदेह। ऐ, औ के उच्चारण में हस्वीकरण की प्रक्रिया भी सक्रिय थी, परिणामस्वरूप ऐ का वर्णविकार ए, इ में औ का ओ, उ में हो गया। जैसे-कैलास केलास, ऐरावत >एरावय, गौरी > गोरी, यौवन > जुब्बण।

व्यंजन ध्वनियाँ

अपभ्रंश में कुल 29 व्यंजन ध्वनियाँ हैं-

क, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ, ट, ठ, ड, ढ, ण त, थ, द,धन, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, स, ह।

इनमें न के अस्तित्व के विषय में विवाद है। प्राकृत में न को सर्वत्र ण किया गया है। यद्यपि कुछ पुराने प्रमाण ऐसे उपलब्ध हैं जिनमें न का अस्तित्व सिद्ध होता है। कुछ विद्वान् अपभ्रंश में न व्यंजन की उपस्थिति नहीं मानते। यदि न को निकाल दिया जाय तो कुल व्यंजन ध्वनियों की संख्या 28 रह जाती हैं।

व्यंजन परिवर्तन

  1. अपभ्रंश में प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के शब्दारम्भ में आनेवाले सभी व्यंजन न, य,श, ष को छोड़कर प्रायः सुरक्षित हैं। इनका परिवर्तन क्रमशः ण, ज, स, में हुआ है, जैसे-नागर >णायर, यदि > जइ, शाखा >साहा।
  2. मध्यग क, ग, च, त, द, प के लोप का विधान प्राकृत में ही हो गया था, अपभ्रंश में यथास्थिति बनी रही। इनके स्थान पर य, व श्रुति का विशेष प्रयोग अवश्य होने लगा।
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Pankaja Singh

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