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रामभक्ति काव्य की विशेषताएँ | कृष्ण भक्ति काव्य की प्रवृत्तियां | हिन्दी के प्रगतिवादी काव्य की विशेषता | रीतिबद्ध एवं रीतिमुक्त काव्य में अंतर | ज्ञानमार्गी शाखा की प्रमुख विशेषताएं | छायावाद का काव्य शिल्प अथवा छायावाद की सामान्य विशेषताएं

रामभक्ति काव्य की विशेषताएँ | कृष्ण भक्ति काव्य की प्रवृत्तियां | हिन्दी के प्रगतिवादी काव्य की विशेषता | रीतिबद्ध एवं रीतिमुक्त काव्य में अंतर | ज्ञानमार्गी शाखा की प्रमुख विशेषताएं | छायावाद का काव्य शिल्प अथवा छायावाद की सामान्य विशेषताएं

रामभक्ति काव्य एवं कृष्ण भक्ति काव्य

रामभक्ति काव्य की विशेषताएँ

  1. इस सम्पूर्ण शाखा के सन्त एवं कवि भगवान् के साकार स्वरूप को मानकर चलें। इसलिए अवतारवाद, मूर्तिपूजा, जप, तप, तीर्थ, दान आदि कर्मों पर इन्होंने पहले की अपेक्षा अधिक बल दिया।
  2. स्वामी रामानन्द जी इस शाखा को मूलतः प्रारम्भ करने वाले थे, उन्हीं का प्रभाव इस परम्परा पर पड़ा। उनके सिद्धान्तों का पोषण इस शाखा के कवियों ने किया।
  3. कवियों ने शुद्ध वैष्णव भक्ति को अपनाया और सेवक भाव से परमात्मा की भक्ति की।
  4. कवियों ने यथासम्भव खण्डन-मण्डन से दूर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में विराट समन्वय का प्रयत्न किया है।
  5. इस शाखा के कवियों ने दशरथ के राम को भगवान का अवतार माना और उन्हीं को अपना स्वामी तथा आराध्य देव माना और उनके नाम की महत्ता पर ही अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की। अपने ग्रन्थों में ज्ञान एवं कर्म पर इतना बल देकर रामनाम की भक्ति व उनके गुणगान पर अधिक बल दिया।

कृष्ण भक्ति काव्य की प्रवृत्तियां-

प्रवृत्तियां-1. कृष्णकाव्य में जीवन के दो ही पक्ष लिये गये-वात्सल्य और श्रृंगार।

  1. ब्रजभाषा को अपनाया गया तथा उसे अद्भुत माधुर्य से सम्पन्न किया गया।
  2. कृष्ण काव्य मुख्यतः गीत मुक्तक में ही लिखा गया है।
  3. वर्णन विस्तार के अभाव में एक ही जीवन स्थिति पर अनेक कवियों की रचनाएँ मिलती हैं। अतएव भाव साम्य, पुनरुक्ति, मौलिकता का अभाव आदि का मिलना स्वाभविक है।
  4. इस धारा में कान्ता भक्ति को विशेष महत्व दिया गया है।
  5. कृष्ण भक्ति काव्य में संगीत का योग-प्रसिद्ध और शास्त्रीय दो रूप लिया गया है।
  6. आचार्य शुक्ल ने इसमें उच्च सामजिक जीवन के आदर्शों का अभाव बताया है।
  7. कृष्णकाव्य में विप्रलम्भ श्रृंगार के अन्तर्गत भ्रमरगीत आता है। वाग्वेदाध्य, वेदना प्रकाशन, निर्गुण के प्रत्याख्यान के लिए यह स्मरण किया जाता है।
  8. कृष्णभक्ति स्वछन्द जीवन की समर्थक है।

प्रमुख कवि- इस शाखा के प्रमुख कवि निम्न हैं-सूरदास, कृष्णदास, नन्ददास, कुम्भनदास, छीतिस्वामी, गोविन्दस्वामी, नरोत्तमदास, मीराबाई, रसखन, रहीम, जयदेव, गंग, विद्यापति आदि।

हिन्दी के प्रगतिवादी काव्य की विशेषता

प्रगतिवादी का मूल उद्देश्य किसान, मजदूर और मीणों के प्रति सहानुगति तथा पूंजीपतियाँ के प्रति घृणा प्रकट करना ही रहा है। इस नवीन धारा के लक्षण शीप ही साहित्याकाश । मंडराने लगे। हिन्दी के कवि इस धारा की ओर आकृष्ट हुए और हिन्दी की प्रगतिवादी काव्य का प्रणयन हुआ। इस धारा की कतिपय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) क्रान्ति की भावना- प्रगतिवादी काव्य का मूलमल है, कान्ति। ये सामन्तवाद के विनाश के लिए क्रान्ति को अवश्याभावी मानते हैं। इसलिए प्रगतिवादी कवि क्रान्ति का गीत गाता है। ‘बच्चनजी’ का क्रान्तिकारी गीत देखिए-

“उस समय से मोरचा ले, धूरधूसर वस्त्र मानव।

देह पर फबते नहीं हैं, देह के ही रक्त से तू देह के कपड़े रंगा ले।”

(2) पाशववादी विचारधारा का विरोध-  हिन्दी का प्रगतिवादी काव्य पाशववादी विचारधारा का घोर विरोधी है। दिनकर जी फासिस्टवाद का विरोध करते हुए लिखते हैं-

“राइन तट पर लिखी सभ्यता, हिटलर खड़ा कौन बोले ?

सस्ता खून यहूदी का है, नाजी निज स्वस्तिक खोले।”

(3) साम्राज्यवाद का विरोध-प्रगतिवादी कवि साम्राज्यवाद का विरोधी है। उसके अनुसार पूँजीवाद के साथ सामाज्यवाद का भी महल ढहना जरूरी है, क्योंकि साम्राज्यवाद का कार्य ही विषवपन करना है-

“मरणासन्न साम्राज्य, कर वन्हि विष-वर्णन।

अन्तिम रण को है सचेष्ट रच निज-विनाश आयोजन।”

(4) नारी के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण- मार्क्सवाद नारी को भी शोषित मानता है। इसीलिए प्रगतिवादी कवि नारी को विलास का साधान समझनेवाले पुरुषों की परिधि से बाहर निकालकर उसे जीवन की वास्तविकता से परिचित कराना चाहता है। पन्त के शब्दों में-

‘योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित।

उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।।”

रीतिबद्ध एवं रीतिमुक्त काव्य में अंतर

रीतिबद्ध कवि- रीतिकाल में रीतिबद्ध काव्य परम्परा में वे कवि आते हैं, जिन्होंने रीतिकालीन परिपाटी पर लक्षण ग्रन्थों की रचना की। इन्हें शस कवि भी कहा जा सकता है। इन कवियों में आचार्यत्व और कवित्व का सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है। इस परम्परा के कवियों ने संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर काव्यांगों के लक्षण देते हुए सुन्दर उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं।

रीतिमुक्त कवि (स्वच्छन्द कवि)- रीतिमुक्त काव्य परम्परा का अभिप्राय उस काव्य परम्परा से है जिसमें कवियों ने किसी राजाश्रय में रहकर लक्षणबद्ध रचना करके तत्कालीन परिपाटियों का पालन नहीं किया है। ये कवि सभी बन्धनों से मुक्त हैं। इन्होंने मुक्त हृदय से कविता की पावन गंगा प्रवाहित की है।

ज्ञानमार्गी शाखा की प्रमुख विशेषताएं

ज्ञानाश्रयी शाखा और उसकी विशेषताएँ

ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास थे। कबीर रामानन्द के शिष्य कहे जाते हैं। नाथपन्थ के प्रवर्तक गोरखनाथ जी थे, जो मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे। 9वीं से 12वीं शती तक नाथपन्थ का सर्वाधिक जोर था। कुछ ही समय बाद इस देश में सूफियों के प्रेम सिद्धान्त का प्रचार हुआ। इस प्रकार भक्ति के उस सर्वातिशायी प्रचार के युग में सहजयानी, जैनी, नाथ, सूफी, वैष्णव सभी प्रभावों का शुभ पक्ष कबीर में समन्वित हुआ है। इस धारा के प्रमुख कवियों में दादू, रज्जब, नानक, सुन्दरदास आदि का नाम लिया जा सकता है।

विशेषताएँ- इस शाखा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. इस शाखा में भक्ति तत्व रामानन्द की देन थी। भगवान् के प्रति कान्ता-भाव की रहस्यवादी भक्ति इस शाखा में मिलती है। भक्ति तत्व सीध कतीर को वैष्णव के प्रपत्ति सिद्धान्त से प्राप्त हुआ है।
  2. दार्शनिक दृष्टि से कबीर अद्वैत मत से प्रभावित जान पड़ते हैं। वे अद्वैत मत के मूल मन्तव्य ब्रह्म के प्रति जीवात्मा की ललक, प्रेम, मिलने की इच्छा के प्रति निवेदित हैं।
  3. कबीर रहस्यवादी भी है। आचार्य शुक्ल कहते हैं ज्ञान के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, वहीं भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद है। ज्ञान के क्षेत्र में अद्वैतावाद के उपासक कबीरदास की भावना के क्षेत्र में रहस्यवादी हो जाना ठीक ही था।
  4. सूफी मत के प्रेम की पीर को कबीर ने सर्वोपरि मानकर प्रकट किया है। प्रेम की वैसी अनुभूति उन्होंने अपने विरहोद्गारों में प्रकट की है। सूफी मत से कबीर के प्रेमपन्थ में इतना ही अन्तर है कि यदि सूफी मत में ब्रह्म प्रेमिका के रूप में होता है तो कबीर मत में प्रेमी के रूप में, वह ‘राजारम भरतार’ या ‘जीव’ होता है और भक्त ‘बहुरिया’ रूप में।
  5. कबीर पर योग-साधना का विशेष प्रभाव है। इसे साधनात्मक रहस्यवाद भी कहा गया है। इड़ापिंगला की मध्यवर्ती सुषुम्ना और आज्ञाचक्र से उबुद्ध होकर सहस्रचक्र जानेवाली कुण्डलिनी शक्ति के विभिन्न प्रतीकों का व्यवहार सन्त कवि बराबर करते हैं। अजपा जाप, सुरति-निरति, गगन, शुन्य महासुख जैसे पारिभाषिक शब्द उनमें बराबर मिलते हैं।
  6. सन्त मत में खण्डन मण्डन की प्रवृत्ति विशेष है। इनका ब्रह्म घट के भीतर है। बाहरी विधि-विधान व्यर्थ है। वे धार्मिक अन्ध-विश्वासों एवं आडम्बरों के विरोधी हैं।
  7. सन्त मत ब्रह्म के निर्गुण रूप को ही स्वीकारता है। योग साधना अथवा प्रेम साधना दोनों से ही वह ब्रह्म प्राप्य है।
  8. इस मत में गुरु का महत्व सर्वोपरि है। कबीरदास जी का कथन है-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागो पाय।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दिया बताए॥

छायावाद का काव्य शिल्प अथवा छायावाद की सामान्य विशेषताएं

  1. आत्मानुभूति एवं व्यकितत्व निष्ठता- छायावाद पूर्व की हिन्दी कविता अधिकतर विषयनिष्ठ या बाझयार्थ निरुपक करती थी, भक्तिकाल की कविता में आत्माभिव्यंजकता तो थी पर सुखों दुःखों की अनुभूति उसमें नहीं होती थी- पर छायावादी की आत्मानुभूति निवैयक्तिक नहीं थी। उसमें कवि अपनी निजी अनुभूति की रागात्मक अभिव्यंजना करते थें छायावादी कवियों की कविता में ‘अहं’ की अभिव्यक्ति है। अधिकाश कविता ‘मैं शैली में लिखी गयी है। वैयाक्तिक वंदना के स्वाभविक प्रवाह से भरी महादेवी जी की अधोलिखित पंक्तियाँ देखें-

“मेरे हँसते अधर नहीं जग को आँसू लढ़ियाँ देखें,

मेरे गीले पलक छुओ मत-मुरझाई कलियाँ देखो॥”

-महादेवी वर्मा

“वियोगी होगा पहला कवि, प्रसाद का प्रसिद्ध काव्य ‘आँसू’, निराला के अधिकांश गीत आत्मानुभूति व्यंजना है। आत्मानुभूति पर जोर होने के कारण छायावाद प्रगीतात्मक हो उठा है। रीति काव्य में आत्मानुभूति प्रवाहित होती है। डॉ. नगेन्द्र का कथन है कि “छायावाद की कविता का विषय अन्तरंग व्यक्तिगत जीवन हुआ छायावाद का कवि आत्मलीन होकर कविता लिखने लगा। उसका यही व्यक्तिभाव प्रसाद में आनन्द भाव निराला में अद्वैत भाव, पन्त में आत्मरति भाव और महादेवी में परोक्ष रीति के रूप में प्रकट हुआ।”

  1. सौन्दर्य दर्शन- प्रसाद जी प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। इसके साथ ही छायावादी कवियों में यह विशेषता पूर्णरूपेण लक्षित की जा सकती है। छायावादी कवियों का यह सौन्दर्य-दर्शन वासना के पंक से पंकिल नहीं है, अतः सौन्दर्य को प्रधानता देते हुए प्रसादजी कहते हैं-

“पर तुमने तो पाया सदैव उसकी सुन्दर जड़ देह मात्र।

सौन्दर्य जलधि से भर लायें तुम तो बस केवल गरल पात्र।।”

  1. अतीन्द्रिय श्रृंगारिकता-छायावादी कविता भी उसी प्रकार श्रृंगार है जिस प्रकार रीतिकालीन कविता। अन्तर विषय का नहीं अभिव्यक्ति के प्रकार का है। डॉ0 नगेन्द्र के शब्दों में, “सामाजिक अंकुश या भय के कारण कवि श्रृंगार की उन्मुक्त कविताएँ नहीं लिख सकते थे, इसलिए उनकी यह भावना अन्तर्मुखी हो गयी और श्रृंगार का रूप स्थूल हो गया।”
हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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