पृथ्वीराज रासो | केशवदास का आचार्यत्व | हिन्दी साहित्य में जयशंकर प्रसाद के योगदान

पृथ्वीराज रासो | केशवदास का आचार्यत्व | हिन्दी साहित्य में जयशंकर प्रसाद के योगदान

पृथ्वीराज रासो

‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दी साहित्य का आदि-महाकाव्य माना जाता है। इसके रचयिता पृथ्वीराज चौहान के राजकवि चन्दबरदायी है। ‘पुस्तक जल्हण हत्थदै चलि गज्जानि नृप काज के आधार पर माना जाता है कि चन्दबरदायी की अधूरी रचना ‘पृथ्वीराज रासो’ को उनके पुत्र जल्हण ने पूरा किया। नागरी प्रचरिणी सभा, काशी से प्रकाशित ‘पृथ्वीराज रासो’ में 16,306 छन्द है। इस समय पृत्वीराज रासो के चार संस्करण प्राप्त होते हैं चारों संस्करणों में छन्द संख्या समान नहीं है। पृथ्वीराज रासो की घटनाएँ इतिहास से मेल नहीं खाती, इस आधार पर कुछ विद्वान इसे अप्रामाणिक मानते हैं। इसे प्रामाणिक माननेवालों का कहना है कि इसमें अनन्द संवत् का प्रयोग होने से विक्रम संवत् से 100 वर्ष का अन्तर पड़ गया है। अनन्द संवत् की कल्पना करने पर भी इस महाकाव्य की सभी घटनाओं को इतिहास के अनुकूल नहीं माना जा सकता है। इसकी भाषा में अपभ्रंश के साथ-साथ अरबी-फारसी के शब्दों की अधिकता के आधर पर कुछ विद्वान इसे 18वीं शताब्दी की रचना मानते हैं। वास्तविकता या जान पड़ती है कि प्रतिलिपि करने वाले इसमें अपनी ओर से कुछ-न-कुछ जोड़ते रहे हैं। इसकी रचना के समय प्रेस का चलन नहीं था, इसलिए मूल प्रति सुरक्षित नहीं रह सकी। छन्दों की संख्या भिन्न होने का भी यही कारण है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पृथ्वीराज रासो को हिन्दी का प्रथ महाकाव्य माना है जिसकी रचना पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र एवं दरबारी कवि चन्दबरदायी द्वारा की गयी है। रासो की प्रामाणिकता के विषय में पर्याप्त विवाद रहा है। विद्वानों का एक वर्ग इसे पूर्णतः अप्रामाणिक रचना स्वीकार करता है। इस वर्ग के वद्विानों में प्रमुख है-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, कविराज श्यामलदास, डॉ. बूलर, मुंशी देवी प्रसाद, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा। दूसरे वर्ग में वे विद्वान हैं जो रासों को एक प्रामाणिक रचना मानते हैं। इस वर्ग में डॉ. श्यामसुन्दरदास, मोहनलाल विष्णुलाल पाण्ड्या मिश्रबन्धु और कर्नल टॉड के नाम लिये जाते है। तृतीय वर्ग के विद्वान रासो को अर्द्ध-प्रामाणिक रचना मानते हुए इसके कुछ अंश को ही प्रमाणिक मानते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी एवं मुनिजिनविजय इसी वर्ग के विद्वान् हैं।

केशवदास का आचार्यत्व

अथवा

आचार्य कवि केशवदास भक्तिकाल और रीतिकाल के बीच की कड़ी है’ सिद्ध कीजिए

केशव दास सनाट्य कुलोद्भव पं. काशीनाथ के पुत्र थे। धरती तल धन्न’ ओरछा नगर के रहने वाले थे और नृपमणि’ मधुकरशाह के पुत्र दुलहराय के भाई इन्द्रजीत के आश्रित थे। इनका जन्म संवत् 1612 में और मृत्यु सं0 1674 में बतायी जाती है। ये संस्कृत के अच्छे पण्डित थे जो आर्थिक चिन्ता न होने के कारण इन्हें अध्ययन के लिए समय भी यथेष्ट मिला होगा। संस्कृत का ज्ञान इनकी पैतृक सम्पत्ति थी। इनको इस बात का खेद था कि कुल की परम्परा के विरुद्ध इन्होंने हिन्दी में कविता की। इनको इन्द्रजीत की ओर से बाईस ग्रामों की जागीर मिली थी। अतः ये एक प्रकार से छोटे-मोटे राज ही थे। देखिए-

भूतल को इन्द्र इन्द्रजीत राजे युग-युग,

जाके राज केशोदास राज-सो करत है।

केशव के ग्रन्थ

  1. रसिकप्रिया (संवत् 1648)-इसमें रस-निरूपण, विशेषकर श्रृंगार और नायिकाभेद है।
  2. रामचन्द्रिका (कार्तिक सुदी 12, संवत् 1658 )- यह ग्रन्थ प्रबन्ध-काव्य के रूप में लिखा गया है, किन्तु छन्दों में वैविध्य तथा अलंकारों की भरमार के कारण एक प्रकार से उदाहरण ग्रन्थ-सा बन जाता है।
  3. कविप्रिया (फाल्गुन सदी पंचमी, संवत् 1658)- इसमें कवि के वर्ण्य-विषयों तथा अलंकारों का वर्णन है। यह एक प्रकार से कवि-शिक्षा का ग्रन्थ है।
  4. ङि वज्ञान गीता (संवत् 1667)- यह ग्रन्थ ‘प्रबोध चन्द्रोदय नाटक’ की रीति पर लिखा गया है। यह आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इनके दो ग्रन्थ और हैं-जहाँगीर-जस-चन्द्रिका और ‘वीरसिंहदेव चरित।

आचार्यत्व- केशव के आचार्यत्व के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है किवे रीति-ग्रन्थ- लेखन शैली के प्रवर्तक हैं और अलंकारों को प्रधानता देने वाले सम्प्रदाय के अनुयायी हैं-“भूषण बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्त।’ उन्होंने भामह, दण्डी, रूय्यक आदि अलंकारवादी आचार्यों का अनुसरण किया है। रस और ध्वनि को इन्होंने प्रधानतः अलंकारों के ही अन्तर्गत लिखा है। ‘कवि-प्रिया में केशवदास ने सब वर्ण्य-विषयों को बताकर कति-कर्म को विस्तृत-सा कर दिया है। कवि-शिक्षा के लिए जो बातें आवश्यक हैं वे सब ‘कवि-प्रिया’ में बतायी गयी हैं। रसों और भावों में प्रकट और प्रच्छन्न, दो भेद कर उन्होंने सब रसों को श्रृंगार रस के ही अन्तर्गत करने की कोशिश की है। इसी से वे और रसों के वर्णन में सफल नहीं हुए हैं। यद्यपि उन्होंने हास्य को चार प्रकार का माना है, तथापि इसके उदाहरणों में हास्य की प्रवृत्ति जागृत करने में असमर्थ रहते हैं। केशव ने वृत्तियों और रस-दोषों का भी वर्णन किया है। वृत्तियों को कवित्त में ही सीमित रखा है। ‘रसिक- प्रिया’ लक्षण-ग्रन्थ है, इसलिए उसमें मुक्तक के उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं। उनके बहुत से उदाहरणों में उक्ति-वैचित्र्य और कल्पना की उड़ान का परिचय प्राप्त होता है।

केशव की भाषा- केशव की भाषा ब्रजभाषा है, किन्तु इसमें श्लेषादि शब्दालंकारों का प्राधान्य होने के कारण उनको संस्कृत शब्दावली का अधिक आश्रय लेना पड़ता है क्योंकि संस्कृत शब्दों में श्लेष के लिए अधिक क्षमता रहती है। केशव की भाषा में वह चलतापन और रसाता नहीं‌ है जो मतिराम में दिखायी पड़ती है।

हिन्दी साहित्य में जयशंकर प्रसाद के योगदान

भारतेन्दु युग से द्विवेदी युग तक हिन्दी काव्य-भाषा में यद्यपि खड़ीबोली का प्रचार होने लगा था, पर ब्रजभाषा का भी पर्याप्त प्रचलन था। द्विवेदी ने खड़ीबोली के प्रति अधिकारिक आग्रह दिखाया। इस युग की कविताओं में इतिवृत्तात्मकता ही अधिक थी और आलंकरिक प्रयोगों में प्राचीनता का स्वरूप विद्यमान था। द्विवदी युग तक आत-आते देश के शिक्षित समाज में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार हो चुका था। उन लोगों के बीच कीट्स, शैली, वर्डसवर्थ आदि अंग्रेजी कवियों की प्रकृति-प्रियता एवं उनका काल्पनिक-विधान भी आकर्षण की सृष्टि करने लगा था। बंगला-साहित्य का प्रभाव भी हिन्दी साहित्य पर पड़ रहा था। प्रसादजी अपने युग के एक अत्यन्त प्रतिभावान एवं जागरूक साहित्यकार थे। उन्होंने साहित्यिक-जागरण के इस स्वरूप को पहचाना और उसी अनुरूप काव्य निर्माण किया। उन्होंने शुरु में ब्रजभाषा में कविता लिखना जरूर, आरम्भ किया था, बाद में वे खड़ीबोली में ही लिखते रहे। लहर, झरना, आँसू आदि रचनाएँ खड़ीबोली में ही है। काव्य-भाषा की दृष्टि से प्रसादजी ने द्विवेदी युग की भाषा को अधिकारिक परिमार्जित किया एवं उसमें साहित्यिकता का समावेश किया। छनदों एवं अलंकारों की दृष्टि से प्रसादजी ने काव्य-साहित्य को एक बंधी हुई परम्परा से निकालकर नवीनता का आकर्षक रूप प्रदान किया।

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