शिक्षाशास्त्र

सृजनात्मकता को बढ़ावा देने वाले घटक | अधिगम और सृजनात्मकता | सृजनात्मकता और पर्यावरण | अधिगम और पर्यावरण | सृजनात्मकता का प्रशिक्षण तथा विकास | सृजनात्मकता और शिक्षा

सृजनात्मकता को बढ़ावा देने वाले घटक | अधिगम और सृजनात्मकता | सृजनात्मकता और पर्यावरण | अधिगम और पर्यावरण | सृजनात्मकता का प्रशिक्षण तथा विकास | सृजनात्मकता और शिक्षा

सृजनात्मकता को बढ़ावा देने वाले घटक

मनोवैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि निम्नलिखित घटक सृजनात्मकता को बढ़ावा देते हैं-

(1) परिस्थिति, वातावरण, अवसर और सुविधाएँ।

(2) माता-पिता व शिक्षक की सहायता, प्रोत्साहन आदि ।

(3) व्यवस्थित प्रशिक्षण जो योग्य शिक्षक दे सकता है।

(4) आर्थिक एवं शैक्षिक कठिनाइयों का समाधान तथा आवश्यकता तृप्ति।

(5) आत्मविश्वास की छात्र या व्यक्ति स्वयं सृजनात्मक कार्य कर सकता है। व्यक्ति की निछा। अन्तःप्रेरणा होना। .

(6) व्यक्ति एवं समाज के लक्ष्य तथा उनमें मेल।

(7) संयुक्त क्रियाशीलता, साधनों का एकजुट होना।

(8) प्रतियोगिता, सूचनाओं का सरलता से प्राप्त होना।

(9) लोकतांत्रिक कार्यविधि, स्वतन्त्रता एवं समानता।

अधिगम, सृजनात्मकता और पर्यावरण

अधिगम के बारे में बताते हुए प्रो० को और क्रो ने लिखा है कि “अधिगम आदतों, ज्ञान और अभिवृत्तियों का अर्जन है। यह चीजों को करने के लिये नये तरीकों में पाया जाता है। और यह व्यक्ति के द्वारा बाधाओं को दूर करने और नई परिस्थितियों के साथ समायोजन करने के प्रयलों में पाया जाता है । यह व्यक्ति को अपनी इच्छाओं को सन्तुष्ट करने अथवा लक्ष्यों को प्राप्त करने में समर्थ बनाता है प्रभावकारी अधिगम आधारभूत कौशलों, सामाजिक क्षमता या सूक्ष्म विचारों की प्रवीणता या सभी तीनों के विकास में प्रतिफलित होता है । “एक व्यक्ति यांत्रिक, सामाजिक और सूक्ष्म क्षेत्रों में अधिगम अभियोग्यता धारण कर सकता है।

इस कथन से स्पष्ट है कि अधिगम के फलस्वरूप सृजनात्मकता की योग्यता या क्षमता मनुष्य में आती है। अधिगम का क्षेत्र यांत्रिक, सामाजिक एवं सूक्ष्म ज्ञान का क्षेत्र है और ये क्षेत्र सृजनात्मकता में भी पाये जाते हैं। इसके अलावा अधिगम में नए ढंग से काम करना होता है, सृजनात्मकता भी नवीनता का समर्थन करती है क्योंकि इसमें मौलिक उत्पादन (Original Production) होता है। अतएव अधिगम और सृजनात्मकता में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।

अधिगम भी सृजनात्मक होता है (There is also creative learning)| सृजनात्मक अधिगम वहाँ होता है जहाँ व्यक्ति के चिन्तन, अनुभव और काम करने में बदलने वाले तरीके खोजबीन और अनुसंधान की प्रक्रिया के जरिये होते हैं जहाँ सम्बन्धों और अपादानों को ढूँढना होता है, मूल्य प्रदान करना होता है। इस प्रकार सृजनात्मक अधिगम में बने-बनाये उत्तर नहीं बल्कि नई परिस्थितियों में मूल्यकरण करने की बात होती है। यह इस अर्थ में एक विशेष ढंग से प्रतिक्रिया करने में होता है। अधिगम परिस्थिति के साथ समायोजन है और सृजनात्मकता अधिगम नये तरीकों से समायोजित करने में होता है। अब स्पष्ट होता है कि अधिगम एवं सृजनात्मकता कितना समीपी सम्बन्ध रखते हैं।

अधिगम और सृजनात्मकता के घनिष्ठ सम्बन्ध के बारे में हम प्रो० गिलफॉर्ड के विचार प्रस्तुत कर सकते हैं। प्रो० गिलफॉर्ड ने अपने कारक-विश्लेषण से सृजनात्मक मनुष्य में कुछ मानसिक संक्रियाओं का होना बताया है जैसे संज्ञान अर्थात् खोज एवं प्रत्यभिज्ञान, स्मरण अर्थात् चेतन अनुभवों को धारण करना, भिन्न तरीके से चिन्तन अर्थात् एक ही उत्तर की अपेक्षा विभिन्न उत्तरों की कल्पना करना, एक ही तरीके से चिन्तन, अर्थात् केवल एक ही उत्तर निकालना, मूल्यांकन अर्थात् अच्छाई, शुद्धता, पर्याप्तता के सम्बन्ध में निर्णय लेना। इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि ये सब प्रक्रियाएँ भी हैं और इनका सम्बन्ध अधिगम से होता है, अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि अधिगम और सृजनात्मकता में कितना अधिक मेल होता है।

अधिगम और सृजनात्मकता दोनों का पर्यावरण से सम्बन्ध होता है। अधिगम पर्यावरण के साथ समायोजन करने में पाया जाता है और पर्यावरण के कारण सृजन करने की क्रिया उत्तेजित होती है। उदाहरण के लिए अधिगम के विचार से अध्यापक बालक के सामने प्रश्न रखता है और उसकी उत्तेजना के कारण बालक अपने ढंग से प्रतिक्रिया करता है। यहाँ एक ओर अधिगम है तो दूसरी और पर्यावरण से प्राप्त होने वाली उत्तेजना के कारण सृजनात्मकता है। अतः पर्यावरण अधिगम और सृजनात्मकता का आधार माना जा सकता है और अधिगम एवं सृजनात्मकता दो भुजाएँ। इस प्रकार तीनों सह-सम्बन्धित होते हैं।

अधिगम ∆ सृजनात्मकता

        पर्यावरण

विद्यालय का कार्यक्रम और पयविरण किस प्रकार का हो जिससे सृजनात्मकता को प्रोत्साहन मिले, इस प्रश्न पर भी थोड़ा सा विचार प्रकट करना जरूरी है। विद्यालय के कार्यक्रम में भाषा, गणित, विज्ञान, कला, संगीत आदि विषयों के अधिगम की सुविधा दी जावे तथा सभी साधन उपलब्ध किये जावें। इसके साथ साथ क्रियात्मक ढंग से कार्य करने के लिए कहा जावे। अतएव गत्यात्मक एवं क्रियाशील पर्यावरण होना चाहिए। विद्यालय का कार्यक्रम एवं पर्यावरण जीवनसे सम्बन्धित होना चाहिये। जीवन के विभिन्न क्रियाओं को विद्यालय के पाठ्यक्रम में रखने से सृजनात्मकता का विकास होता है। प्रो० डीवी ने लिखा है कि गृह-अर्थशास्त्र, वस्त्र व पाक विज्ञान, खेल-कूद, नृत्यशाला की सजावट, पोस्टर निर्माण, डिजाइन और दृश्य बनाना, लिद्यालय पत्रिका आदि के कार्यक्रम सृजनात्मक अभिव्यक्ति के अच्छे अवसर प्रदान करते हैं। कक्षा में तथा कक्षा के बाहर रचनाओं को जाँच कर मूल्यकरण की क्रिया भी सृजनात्मकता के प्रोत्साहन के लिये आवश्यक होती है। ये सब विद्यालय के कार्यक्रम और पर्यावरण में शामिल होने चाहिए।

सृजनात्मकता का प्रशिक्षण तथा विकास

विज्ञानियों के सामने यह प्रश्न रखा गया है कि क्या सृजनात्मकता का प्रशिक्षण हो सकता है और क्या उसे विकसित किया जा सकता है। अधिगम एक अर्जित प्रक्रिया है और अधिगम की योग्यता का विकास होता है। अधिगम सृजनात्मकता का एक शक्तिशाली साधन माना जाता है। अतः अधिगम के प्रशिक्षण के समान सृजनात्मकता का भी प्रशिक्षण होता है और उसका विकास भी करना सम्भव है। यह आवश्यक है कि सृजनात्सक के प्रशिक्षण के लिये “उत्तम शिक्षकों” का चुनाव करना चाहिये। ऐसा विचार हमें प्रो० हैमोविज के अन्वेषणों से प्राप्त होता है। प्रो० ऑस्बोन ने प्रौढ़ों की कक्षाओं में सृजनात्मक के कल्पना के प्रशिक्षण में काफी सफलता पायी, यह अवश्य था कि इन विद्यार्थियों को अभ्यास खूब कराना पड़ा था। केवल क्रियात्मक अभ्यास ही काफी नहीं है, इसके साथ कार्य, छात्रों का साथ, नेतृत्व की विधियाँ, कक्षा एवं विद्यालय की दशाएँ, अधिगम के यन्त्र तथा वातावरण भी सृजनात्मकता के प्रशिक्षण एवं विकास के लिए उत्तरदायी बताये गये हैं।

कुछ मनोविज्ञानियों ने सृजनात्मकता के प्रशिक्षण एवं विकास के लिए नीचे लिखे उपाय बताये हैं-

(i) प्रोत्साहन देने वाले को वातावरण प्रदान करना जो अध्यापक के द्वारा होना चाहिये।

(ii) अध्यापक विभिन्न प्रतिक्रियाओं को माँगना तथा उन्हें उचित मूल्य प्रदान करना।

(iii) क्रियाशीलता एवं नम्यता की शिक्षा देना जिसमें सृजनकारी प्रत्यक्षण को प्रोत्साहन दिया जाये।

(iv) उत्पादक चिन्तन और मूल्यांकन को प्रोत्साहन देकर शिक्षक सृजनात्मकता का विकास करे।

(v) विद्यार्थी में अध्यापक द्वारा विश्वास विकसित करना जिसके लिए उसकी रचना की प्रशंसा करना, प्रतियोगिता करना, वातावरण की उत्तेजना से संवेदनशीलता बढ़ाना, अभ्यास कराना अध्यापक का कार्य है।

(vi) अध्यापक द्वारा सृजनात्मकता की सूचना देना, सृजनात्मक चिन्तन के सिद्धान्तों को बताना, सृजनात्मक अंशों के बारे में संकेत करना, विचारों के प्रति सम्मान प्रकट करना, ये सब होना जरूरी है।

(vii) अध्यापक को स्वयं सृजनात्मक होना चाहिए। भाषा, कला, चित्रण, अन्वेषण कार्य में अध्यापक स्वयं लगे और छात्रों को आत्म-प्रक्षेपण के लिये संकेत देवे। अध्यापक का कार्य कलात्मक अभिव्यक्ति के उपयुक्त साधनों को अपने आप प्रयोग करके छात्रों को प्रोत्साहन देना चाहिये, तभी सृजनात्मकता का प्रशिक्षण एवं विकास होता है।

(viii) छात्रों के प्रयास को जीवित रखना तथा दृढ़ करना भी अध्यापक के द्वारा होना चाहिये यदि सृजनात्मकता का प्रशिक्षण एवं विकास करना है। इसके लिए अध्यापक छात्रों को भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक साधनों एवं युक्तियों को प्राप्त करने में सहायता पहुँचावे।

(x) वर्तमान सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक समस्याओं के समाधान की योजना देकर उन्हें छात्रों द्वारा हल कराने का प्रयल कराया जावे। इससे सृजनात्मकता का विकास होता है।

(xi) भावी परिणामों की कल्पना छात्रों द्वारा कराई जावे। वैज्ञानिकों के द्वारा चन्द्रलोक की कल्पना सृजनात्मक एवं साकार हो गई। इसी प्रकार से नेता बनने की कल्पना से व्यक्ति अपनी शक्तियों की अभिव्यक्ति में लगता है।

(xii) अन्वेषण, सुधार, निर्माण की क्रियाओं में छात्रों को लगाया जावे और फलस्वरूप उन्हें सृजनात्मक व्यवहार में अभ्यस्त किया जावे। इससे भी सृजनात्मकता का विकास होता है।

निष्कर्ष रूप में प्रो० रुश के शब्द पर ध्यान देना चाहिये। उन्होंने लिखा है कि “सृजनात्मकता के विकास के क्षेत्र में जो शोध हुआ है, उससे स्पष्ट है कि व्यवस्थित प्रशिक्षण के द्वारा हमारे समाज में अधिक सृजनात्मक कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ाना सम्भव हो सकता है।”

सृजनात्मकता और शिक्षा

मनुष्य का कर्तव्य शिक्षा लेना है परन्तु शिक्षा लेना किसी अर्थ का नहीं होता जब तक कि उसका प्रयोग समस्या के सामने आने पर न किया जा सके । शिक्षा मनुष्य में वह योग्यता ला देती है जिससे कि वह परिस्थिति का सामना कर लेता है और समायोजन कर लेता है। समायोजन करने में वह अपनी मौलिकता भी प्रकट करता है और यहीं उसकी सृजनात्मकता पाई जाती है। इस प्रकार सृजनात्मकता शिक्षा का सदुपयोग है।

शिक्षा की प्रक्रिया में अधिगम, स्मरण, कल्पना, चिन्तन, तर्क, बुद्धि आदि शामिल होते हैं। सृजनात्मकता में ये सब साधन एवं युक्ति के सदृश काम करते हैं। अतः शिक्षा से सम्बन्धित तत्वों का सृजनात्मकता से गहरा सम्बन्ध होता है। शिक्षा सृजनात्मकता के विकास का माध्यम है।

शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं विधि से भी सृजनात्मकता का सम्बन्ध होता है। शिक्षा का एक उद्देश्य जीवन में सन्तुष्टि प्राप्त करना होता है। यह सन्तुष्टि मनुष्य को उस समय मिलती है जब वह किसी भी क्षेत्र में सृजन और रचना करने में समर्थ होता है। एक व्यक्ति कविता कर लेता है तो उसकी आत्मा को सुन्तष्टि मिलती है। इसीलिये सृजनात्मकता के एक सिद्धान्तवाद के अनुसार सृजनात्मकता एक निश्चित संघर्ष-मुक्त परिपक्व आत्म का उत्पाद्य है। इसलिए आत्म सन्तुष्टि का उद्देश्य सृजनात्मकता जैसे स्मृति, कल्पना, चिन्तन, तर्कना आदि का विकास होता है। सृजनात्मकता में इन सभी योग्यताओं का प्रयोग होना जरूरी है। इसलिए इनका विकास होना भी जरूरी है। अस्तु मानसिक योग्यताओं के विकास का उद्देश्य भी सृजनात्मकता के द्वारा प्राप्त करता है।

शिक्षा का पाठ्यक्रम भी राजनागकता से प्रभावित होता है। पीछे के उद्धरणों से हमें पता चला है कि भाषा, गणित, विज्ञान, कला कौशल, उघोग आदि में सृजनकारी कार्य होता है। अतएव शिक्षा का पाठ्यक्रम राजनात्मकता के लिये क्षेत्र प्रस्तुत करता है और व्यक्ति इन सभी क्षेत्रों में अपनी मौलिक अभिव्यक्ति करता है। इससे विषय-वस्तु में विस्तार भी होता है, यह कहना गलत नहीं है।

शिक्षा की विभिन्न विधियों में सृजनात्मकता को प्रोत्साहन दिया जाता है। उदाहरण के लिये मॉन्टेसरी एवं किण्डरगार्टन की विधि में उपकरणों की सहायता से बालक रचना करता है। इसी तरह प्रोजेक्ट विधि में जीवन की वास्तविक समस्याओं को हल कराया जाता है और शिक्षा दी जाती है। इस विधि से शिक्षा लेने में सृजनात्मकता का प्रोत्साहन मिलता है। विभिन्न कौशलों को सीखने में व्यावहारिक विधियों, तथा क्रियात्मक विधियों आदि का प्रयोग किया जाता है और व्यक्ति स्वतन्त्र रूप से कार्य करके विभिन्न डिजाइन की चीजों का निर्माण भी करता है।

शिक्षा और सृजनात्मकता में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। इसका संकेत हमें प्रो० मोर्स तथा विंगों के शब्दों में मिलता है जिन्होंने बताया है कि शिक्षा सृजनात्मकता को क्षमता देती है और सृजनात्मकता की शिक्षा जीवन में सफलता घोषित करती है। इनके शब्द इस प्रकार हैं-

“All school teaching-whether of skills, concepts, or attitudes is predicted on the belief that what is learned in school can enhance the learner’s potentialities for a useful and meaningful life. Certainly, if school learning did not make a difference in behaviour beyond the classroom, it would be hard to justify the enormous expenditure of time, effort, and money that go into it.”

-Prof. Morse and Wingo.

शिक्षा की सार्थकता सृजनात्मकता में होती है, यह ध्वनि उपर्युक्त उद्धरण से हमें मिलता है।

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Pankaja Singh

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