शिक्षाशास्त्र

सीखने के प्रकार | अधिगम के प्रकार और शिक्षा | सीखने और सूझ द्वारा सीखने में अन्तर | अर्थहीन तथा सार्थक सीखने की क्रिया में अन्तर

सीखने के प्रकार | अधिगम के प्रकार और शिक्षा | सीखने और सूझ द्वारा सीखने में अन्तर | अर्थहीन तथा सार्थक सीखने की क्रिया में अन्तर

सीखने के प्रकार

अधिगम सूचना, ज्ञान, व्यवहार तथा कौशल का ग्रहण करना होता है। इनकी प्राप्ति विद्यालय, कक्षा, प्रयोगशाला आदि से होती है अधिगम एक प्रकार से ज्ञान, अनुभव, सूचना आदि, का आकार परिवर्तन एवं हस्तवन, व्यक्तिगत, सामूहिक, पूर्ण, आंशिक, क्रियात्मक, सृजनात्मक, चेतन, अचेतन आदि ढंग से अनुप्रयोग तथा विषयों का ज्ञान है। अतएव अधिगम के बहुत से प्रकार हैं।

अधिगम के प्रकार का अर्थ होता है कि ज्ञान, अनुभव, व्यवहार, कौशल आदि किस विधि से प्राप्त किए गए हैं और उनका स्वरूप क्या है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति जान लेता है कि “आग में गर्मी एवं जलाने की शक्ति होती है और उससे दूर रहना अच्छा है, अन्यथा जलने का भय-दुख रहता है ।” इस प्रकार से एक अनुभव मिलता है। इसी चीज को बड़े और अनुभवी लोग सूचना, उपदेश, अनुदेश किसी भी ढंग से बताते हैं। यदि ऐसा व्यक्ति अध्यापक है, विद्यालय में लड़कों को अनुदेश करता है तो वह “कक्षा अधिगम” होगा। किसी प्रयोग के द्वारा बताये जाने वाला ज्ञान या अनुभव “प्रयोगशाला- अधिगम” होता है। अन्य ढंग से प्राप्त किया गया ज्ञान, अनुभव, कौशल अन्य प्रकार का अधिगम सन्निहित करता है। ये सब उसके प्रकार पर प्रकाश डालते हैं।

(1) प्रयास और त्रुटि वाला अधिगम- अधिगम का यह प्रकार तथ्यसम्बन्धी अधिगम विधि पर आधारित है। मनुष्य और पशु किन्हीं चीजों को बार-बार करते हैं और उसमें गलती होती है अन्त में ही वे सही चीजों को बार-बार करते हैं और उसमें गलती होती है अन्त में ये सही चीज को मालूम करते हैं। उदाहरण के लिए कई ताले हैं और उनकी चाभियाँ एक साथ बँधी हुई है। कौन सी ताले की कौन सी चाभी है यह हम तुरन्त नहीं बता सकते और हमें चाभियों का प्रयोग करना पड़ता है। अन्त में सही चाभी मिलती है। लड़के कक्षा में शब्दों का वर्णविन्यास ठीक से नहीं कर पाते, एक, दो, तीन बार गलती करने और सुधारने का अभ्यास करने से वे शब्द का सही वर्ण-विन्यास समझने लगते हैं यहाँ प्रयास और त्रुटि वाला अधिगम होता है।

(2) अनुकूलन या अनुबंधन वाला अधिगम- मनुष्य तथा पशु दोनों अपनी परिस्थिति के अनुकूल अपने आपको बाँधने का प्रयल करते हैं या अपने आप बँधे होते हैं। इस प्रकार वे जो अनुभव या ज्ञान प्राप्त करते हैं उसमें अनुबन्धन वाला अधिगम होता है। उदाहरण के लिए गाय-भैंस शाम होते अपने स्थान पर घूम-फिर कर अपने स्थान पर अपने आप पहुँच जाती हैं। मालिक को देखकर अथवा पैर की आवाज सुनकर कुत्ता मालिक के पाँव चाटने लगते हैं। विद्यार्थी अध्यापक को देख कर पढ़ने लगते हैं। खाना देखकर बच्चे भूख का अनुभव करने लगता हैं। इन सभी दशाओं में अनुबन्धन वाला अधिगम होता है।

(3) अनुकरण द्वारा अधिगम- पशु तथा मनुष्य दोनों अनुकरण से अधिगम करते हैं। अनुकरण प्राणी की एक स्वाभाविक सामान्य प्रवृत्ति है जिसमें वह दूसरों की क्रिया को उसी तरह बिना किए हुए करता है। भेड़ का अनुकरण प्रसिद्ध है। छोटे बच्चे बड़ों की चाल-ढाल एवं बातचीत के तरीकों का अनुकरण करते हैं। कक्षा में अध्यापक का अनुकरण उनके छात्र करते हैं। समाज में बड़ों का अनुकरण छोटे लोग करते हैं। पढ़े- लिखे लोग सिनेमा वालों की नकल करते हैं। भक्त अपने आदर्श का अनुकरण करता है। इस प्रकार अनुकरण द्वारा अधिगम होता है।

(4) सूझ वाला अधिगम- मनुष्य में और विशेषकर कुछ पशुओं में सूझ या अन्तर्दृष्टि पायी जाती है। सूझ वास्तव में एकाएक बौद्धिक उपाय का प्रकाशन है जैसा कि कोहलर के प्रयोग से सिद्ध होता है। उदाहरण के लिए किसी प्रश्न को हल करने के साधारण तरीके में असफल होने पर मनुष्य इधर-उधर सोचने लगता है और एकाएक उसे उसका हल सूझता है और उस युक्ति से यह कार्य करके अपनी समस्या हल कर लेता है। इस प्रकार सूझ द्वारा अधिगम को कुछ विद्वानों ने सार्थक अधिगम भी कहा है। सार्थक अधिगम का तात्पर्य विचारपूर्वक अधिगम होता है।

(5) अंघ अधिगम या निरर्थक अथवा तर्कहीन अधिगम- अंध अधिगम का तात्पर्य अनुभव एवं ज्ञान-प्राप्ति़ की उस क्रिया से होता है जिसमें व्यक्ति बिना सोचे-विचारे दूसरों के कहने के अनुसार काम करता है। उदाहरण के लिए श्यामपट पर अध्यापक ने किसी प्रश्न को गलत हल कर दिया है और छात्र भी यह विश्वास कर लेते हैं कि वह सही है उसी प्रकार अपनी कापी पर उतार लेता है तो उसका अधिगम अन्धा अथवा निरर्थक होता है। इस प्रकार के अधिगम में चिन्तन, तर्क, विवेक, बुद्धि की कमी पाई जाती है और कहीं कहीं तो ये सब गायब रहते हैं। आजकल अपने देश में अर्थहीन अधिगम लोगों में अधिक है। अर्यहीन अधिगम को बुद्धिगम भी कहा जाता है |

सूझ वाले अधिगम तथा अर्थहीन अधिगम में अन्तर

अधिगम   अर्थहीन अधिगम
चिंतन पूर्ण होता है। चिंतन रहित होता है।
प्रयोजन सामने रहता है। कोई प्रयोजन नहीं होता है।
सचेतन एवं बुद्धि- विवेक युक्त होता है। चेतन स्तर पर नहीं होता अतएव बुद्धि विवेक रहित होता है।
 प्रयत्नशीलता पाई जाती है। प्रयत्न नहीं भी होता है, अपने आप भी होता है।
पूर्व अनुभव से लाभ उठाते हैं। पूर्व अनुभव के प्रयोग का कोई प्रश्न नहीं उठता है।
अधिगम की प्रक्रिया पूरी करने का संकल्प पाया जाता है। कोई संकल्प नहीं रहता है।
जीवन में अधिक उपयोगी होता है। इसके के नाम से ही जीवन में इसकी अनुपयोगिता प्रकट होती है।

(6) क्रिया द्वारा अधिगम- आधुनिक युग में शिक्षा मनोविज्ञानी इस बात पर जोर देते हैं कि छात्र क्रियात्मक ढंग से सीखें। इसका तात्पर्य यह है कि वे किसी भी ज्ञान को व्यावहारिक ढंग से प्राप्त करें। ऐसी स्थिति में प्रत्येक छात्र को निश्चेष्ट न होकर प्रयत्नशील रहना पड़ता है। क्रिया शारीरिक एवं मानसिक चेष्टा के रूप में होती है अतएव क्रिया द्वारा अधिगम में शरीर और मन दोनों अनुभव ज्ञान, कौशल आदि की प्राप्ति में लगे रहते हैं। ऐसी चेष्टा दो ढंग से होती है स्व-प्रयल के रूप में तथा दूसरों की सहायता के रूप में। इसलिए ऐसा अधिगम स्व प्रयल वाला और सहयोगी होता है। सहयोगी अधिगम सामाजिक क्षेत्रों में अधिक उपयोगी होता है।

सूझ बारा अधिगम और क्रिया द्वारा अधिगम में अन्तर

सूझ द्वारा अधिगम क्रिया द्वारा अधिगम
यह प्रत्येक समय नहीं होता है। प्रत्येक समय कुछ न कुछ क्रिया होती है और कुछ न कुछ सीखना संभव होता है।
यह विशेष परिस्थिति में क्रिया करने पर होता है। यह सामान्य एवं सभी परिस्थिति में क्रिया करने पर संभव होता है।
इसमें व्यक्ति सचेत एवं चिंतनशील रहता है। व्यक्ति के सचेत एवं चिंतनशील ना रहने पर भी क्रिया हो सकती है।
इसमें संकल्प पाया जाता है। इसमें संकल्प की जरूरत नहीं पड़ती है।
यह मनुष्य द्वारा अधिक होता है।  पशु एवं बच्चों द्वारा अधिक होता है।
कौशल के अधिगम के लिए जरूरी नहीं है। कौशल के अधिगम के लिए अत्यधिक जरूरी है।

(7) आनुषंगिक अधिगम- प्रो० ड्रेवर ने इसके सम्बन्ध में बताया है कि यह अधिगम “बिना मानसिक स्थिति, प्रयोजन, या विशेष प्रयास” के होता है। वास्तव में आनुषंगिक अधिगम किसी दूसरे प्रसंग के होते हुए होता है। उदाहरण के लिए भारत की जलवायु पढ़ाते समय यदि प्रसंगवश विज्ञानी की कोई बात आ जाये जैसे पानी से भाप बनना और अध्यापक उसे लड़कों को बता देवे तो निश्चय ही वह आनुषंगिक अधिगम होता है।

(8) नैतिक अधिगम- किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त जो अधिगम होता है वह नैमित्तिक कहा जाता है। उदाहरण के लिए चिकित्सा व्यवसाय करने के लिए जो चिकित्सा विषय का अधिगम किया जाता है तो वह अधिगम उस व्यवसाय के लिए किया गया अधिगम नैमित्तिक अधिगम होता है।

अंग्रेजी के शब्द का तात्पर्य यंत्र सम्बन्धी होता है। अतएव यदि यंत्रों की सहायता से अधिगम हो तो वहाँ पर यांत्रिक अथवा यंत्र द्वारा अधिगम होता है। उदाहरण के लिए आज मशीन, फिल्म, दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग अधिगम के लिए किया जाता है। इस प्रकार के अधिगम को हम यंत्र के द्वारा अधिगम यांत्रिक है। एक उदाहरण संगीत से लिया जा सकता है। संगीत गायन एवं वादन के रूप में होता है। वादन-संगीत यंत्रों के द्वारा सम्भव होता है जैसे सितार, तबला, हारमोनियम, बेला आदि। इसे यंत्र द्वारा संगीत अधिगम पुकारेंगे।

(9) शाब्दिक अथवा मौखिक अधिगम- शाब्दिक या मौखिक अधिगम शब्दों की सहायता से होता है। भाषा का शाब्दिक अधिगम होता है। गायन संगीत का अधिगम इसी प्रकार का कहा जाता है। शब्दों को जब हम मुख से उच्चरित करते हैं तो वहाँ मौखिक अधिगम होता है। यदि कर्मेन्द्रियों के द्वारा शब्दों को लिपि में प्रकट करें तो वह लिखित अधिगम होता है।

(10) गतीय और इन्द्रिय द्वारा अधिगम- विभिन्न कौशलों एवं क्रियाओं का अधिगम गतीय और इन्द्रिय द्वारा अधिगम कहा जाता है। उदाहरण के लिए चलना फिरना, दौड़ना, तोड़-फोड़ करना रचना ये सब गति सम्बन्धी अधिगम हैं।

(11) रटना और आदतजन्य अधिगम- रटना एक प्रकार का ऐसा अधिगम होता है जिससे व्यक्ति किसी वस्तु को बार-बार कहता या करता है और यह नहीं समझता कि वह सही है या गलत। यह अधिगम एक प्रकार से यांत्रिक निरर्थक, निरुत्साही एवं बुद्धिहीन कहा जाता है। इसी से जुड़ा हुआ आदतजन्य अधिगम भी कहा गया है। आदत एक अर्जित गुण है जो रटने के फलस्वरूप हुआ करती है। अतएव आदतजन्य अधिगम रटने के फलस्वरूप हुआ करता है।

(12) खेल द्वारा अधिगम- खेल एक विशेष प्रकार की क्रिया है जिसमें व्यक्ति को स्वतंत्रता, आनन्द, रोचकता, स्वतः प्रेरणा आदि की अनभति होती है। यदि किसी तथ्य को समझने, ग्रहण करने, जीवन में उपयोग के लाने में इस प्रकार की क्रिया को काम में लाया जाये तो निश्चय ही वहाँ खेल द्वारा अधिगम होता है।

(13) कार्यक्रम अधिगम- इसके सम्बन्ध में प्रो० रूश ने लिखा है कि यह एक विशेष प्रकार का निर्देशनयुक्त अधिगम है जिसमें अधिगम की जाने वाली सामग्री को छोटे-छोटे पदों में बाँट लेते हैं जिन्हें “फ्रेम्स” कहा जाता है। एक फ्रेम (सीमित अंश) पहले सीखा जाता है पुनः दूसरा प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार से क्रमबद्ध रूप में सभी सामग्री का अधिगम होता है। प्रोग्राम या कार्यक्रम पंक्तिबद्ध और शाखायुक्त होता है। इस पर प्रश्न पूछे जाते हैं और उन्हें हल करना विद्यार्थी सीखता है। इस प्रकार का अधिगम अभी अपने देश में प्रचलित नहीं किया गया है परन्तु अमरीका में इसका प्रयोग सभी अवस्था के बालकों के साथ हो रहा है। “कक्षा में कार्यक्रमित अधिगम सबसे अधिक सहायक मालूम पड़ता है। जबकि ऐसी विषय-सामग्री में जिसमें तर्कपूर्ण प्रगतिवान विचारों को ग्रहण करने में कुशलता का सम्बन्ध होता है, जबकि पूरी कक्षा के लोगों को अधिक ऊंचा एवं सृजनात्मक खोज के लिए समय देना पड़ता है, और जबकि एक अच्छी पुस्तक एवं एक अच्छे अध्यापक के सम्बन्ध में इसका प्रयोग किया जाता है।” -(प्रो० रूश)।

(14) पत्राचार द्वारा अधिगम- आधुनिक युग की माँग के अनुसार शिक्षा प्रसार के लिए पत्राचार द्वारा प्रयल किया जाता है। इसका लक्ष्य पत्राचार-व्यवहार के द्वारा ज्ञान प्रदान करना है। इस विधि के द्वारा जो अधिगम किया जाता है उसे पत्राचार अधिगम कहते हैं। इसमें अध्यापक के स्थान पर कार्य करता है। विद्यार्थी अपने घर पर रह कर ज्ञान, अनुभव, सूचना ग्रहण करता है।

(15) सम्पूर्ण और खण्ड अधिगम- “एक सीखने वाला एक बड़े जटिल काम के सामने आने पर सम्पूर्ण काम को शुरू से लेकर आखिर तक कर सकता है और तब तक उस चक्र को पुनः दोहरा सकता है या वह सम्पूर्ण काम को खण्डों में बाँट लेवे और तब हरेक खण्ड का अधिगम करें।” (रूश)। वास्तव में अधिगम की एक विधि सम्पूर्ण और खण्ड विधि है और उसी के अनुसार अधिगम का यह प्रकार कहा जाता है। यदि किसी वस्तु को पूरे-पूरे सीखें तब सम्पूर्ण अधिगम कहलाता है जैसे गणित में पहाड़ा’ का ज्ञान करते हैं। जब उसी वस्तु को खण्ड करके सोखें तद खण्ड अधिगम होता है जैसे जोड़ने में।

(16) सान्तराल और अन्तरालहीन अधिगम- सान्तराल या सविराम अधिगम वह है जिसमें कुछ अन्तराल या समय के बाद सीखना होता है। इसमें जो कुछ आज सीखा है, इसके दो-तीन दिन बाद कुछ और सीखा। इस प्रकार थोड़ा समयान्तर से सीखना होता है। इससे सम्भावना यह होती है कि सीखने की क्रिया में रुक-रुक कर प्रगति होती है और भय होती है कि छात्र भूल भी करें। परन्तु जो कुछ सीखा जाता है वह सान्तराल के कारण स्थिर भी हो जाता है। इसके विपरीत अन्तरालहीन या अविराम सीखना होता है। इसमें कोई समयान्तर नहीं किया जाता है बल्कि लगातार प्रयल किया जाता है। लिखने, टाइप सीखने, आशुलिपि का अभ्यास करने आदि में इसी प्रकार का अधिगम होता है। इससे सीखने का क्रम नहीं टूटता है और फिर प्रगति शीघ्र एवं अधिक होती है। विद्यालयों में एवं जीवन में भी आवश्यकता एवं परिस्थिति के अनुसार इन दोनों प्रकार के अधिगम होते हैं और इनसे लाभ उठाया जाता है।

(17) पशु-अधिगम- पशु के द्वारा जो अनुभव, ज्ञान, सूचना, कौशल आदि ग्रहण किया जाता है उसे पशु अधिगम कहते हैं। उदाहरण के लिए किसी पशु को भूख लगी है तो वह भोजन प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करेगा और जहाँ भोजन रखा रहता है उस जगह पहुँच जाता है। यदि एक समय बिल्ली को थाली में ढंका हुआ भोजन मिल जाता है, तो वहाँ वह पुनः आती है। इस प्रकार वह अंध प्रयत्न से अधिगम करती है, उसमें विवेकशीलता नहीं होती उसका अधिगम मूल-प्रवृत्यात्मक होता है।

कुछ पशुओं को प्रशिक्षित भी किया जाता है और उन्हें कुछ कौशल का भी अधिगम हो जाता है, जैसे भालू, शेर, बन्दर, घोड़े, हाथी को सरकस वाले विभिन्न कौशल सिखा देते हैं। भालू साइकिल चला लेता है या मोटर चला लेता है। शेर किसी लोहे के गोल-घेरे में से आर-पार हो जाता है। घोड़ा दो पैर से खड़ा होकर नमस्कार करता है। ये सब अधिगम पाशविक हैं।

(18) मानवीय अधिगम- पशु का अधिगम मूल-प्रवृत्यात्मक होता है परन्तु मनुष्य का अधिगम अनुभव के बढ़ने से विवेकपूर्ण, तर्कसंगत होता है । इसलिए इसे विवेकित या तर्कसंगत अधिगम भी कहा जाता है। मानवीय अधिगम वह प्रक्रिया है जो चेतना, चिन्तनपूर्ण, विवेकी प्राणी के द्वारा होती है।

(19) चेतन और अचेतन अधिगम- जब मनुष्य का मन किसी क्रिया की ओर लगा रहता है तो वहाँ चेतन अधिगम होता है, जैसे कक्षा में बैठकर लड़के चेतन अधिगम ही करते हैं। परन्तु जब मन क्रिया में नहीं लगा रहता तो अचेतन अधिगम होता है। वास्तव में कभी-कभी व्यक्ति किसी कार्य को चेतन ढंग से करता है। लेकिन उस स्थिति में वह कुछ चीजें बिना ध्यान दिए हुए ही सीख जाता है। उदाहरण के लिए गणित के प्रश्न हल करते हुए हमें गणित विषय का अधिगम होता है यह तो चेतन अधिगम कहलायेगा। परन्तु गणित के प्रश्न हल करने से हम कुछ आदतें भी सीख लेते हैं जैसे कठिन परिश्रम करने की आदत, लगातार काम करने की आदत आदि ये सब अचेतन अधिगम होते हैं। साइकिल चलाना सीखना पहले चेतन अधिगम का उदाहरण है लेकिन बाद में वह अचेतन अधिगम बन जाता है।

(20) संज्ञानात्मक अधिगम- मनुष्य के मन की एक क्रिया संज्ञानात्मक होती है। संज्ञानात्मक अधिक मनुष्य द्वारा सम्भव होता है क्योंकि उनमें “सूक्ष्मीकरणों और प्रतीकों का प्रयोग” मुख्य चीजें होती हैं। संज्ञान के अन्तर्गत प्रत्यक्षण, स्मरण, कल्पना, प्रत्ययीकरण, निर्णय, तर्क की विभिन्न प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं। अतएव संज्ञानात्मक अधिगम एक जटिल अधिगम होता है। संज्ञानात्मक अधिगम के साथ विभिन्न अन्य प्रकार के अधिगम जुड़े होते हैं।

(क) प्रत्यक्षात्मक अधिगम- जहाँ पर प्रत्यक्षों की सहायता से ज्ञान प्राप्त करते हैं जैसे मॉन्टेसरी विधि में “शैक्षणिक सामग्री” से ज्ञान दिया जाता है। इसे स्कूल अधिगम भी कहते हैं।

(ख) प्रत्ययात्मक अधिगम- प्रत्ययात्मक अधिगम प्रत्यय के आधार पर होता है। “एक प्रत्यय विशेष वस्तुओं और घटनाओं के साथ होने वाले बहुत से अनुभव सामान्यीकरण करके बना हुआ सूक्ष्मीकरण होता है ।” प्रत्यक्षात्मक अधिगम स्थूल वस्तु या घटना के माध्यम से होता है और प्रत्ययात्मक अधिगम सूक्ष्मीकरणों के द्वारा होता है। इसे सूक्ष्म अधिगम भी कह सकते हैं।

(ग) कल्पनात्मक अधिगम- जब हम कल्पना करके अधिगम करते है जैसे गणित में, तो वहाँ कल्पनात्मक अधिगम होता है।

(घ) विचारात्मक अधिगम- जब हम  विचारों के आधार पर अधिगम करते है तो विचारालक अधिगम होता है। वरण को लिए मिशिव विषयों में लेगार दिया जाता है जिसमें अध्यापक अपने विचार प्रकट करता । अपनों के उत्तर देने में विद्यार्थी अपने विचार देते हैं।

(ड.) तर्क-वितर्क युक्त अधिगम- तथा बोराजी लोग किसी विचार को ग्रहण करने के पूर्व विचार विमर्श करते हैं यही गुण दोष परखना और गुण ग्रहण करना है। इसके लिए तक देना पड़ता है कि क्यों हमसे स्वीकार किया। अतएव यह एक उच्चस्तरीय एवं बोधपूर्ण अधिगम होता है जो विनित एवं अनुभव प्राप्त विचारक ही करते हैं।

(च) सुजनात्मक अधिगम- सृजनात्मक अधिगम  संज्ञान के परिणामस्वरूप ही होता है क्योकि “सृजनात्मकता की परिभाषा नये सम्बन्धों को मालूम करने अथवा अभिव्यक्ति करने के रूप में की गई है। इस प्रकार चिन्तन के परिणामस्वरूप नए सम्बन्धों को बताना ही सृजनात्मक है। जहाँ मनुष्य यह गुण धारण कर लेता है अथवा धारण करने की चेष्टा करता है वहाँ सृजनात्मक अधिगम पाया जाता है। जियाओ में “तुम जो कुछ करते हो करीब-करीब हरेक पीज में तुम पुराने सम्बन्धों को गये कों में बदल सकते हो, पुराने रूपों में नया रंग दे सकते हो, और नये रूप प्रस्तुत कर सकते हो। तुम सृजनात्मक ढंग से पढ़ सकते हो, यहाँ तक कि राजनात्मक ढ़ग से सरण कर सकते हो। हर एक समय जब तुम किसी समस्या को हल नहीं कर सकते हो, जहाँ जादतें काम नहीं करेंगी यहाँ तुम्हें कुछ नई चीज जोड़नी पड़ेगी ही।” यहीं राजनात्मकता है और इससे सम्बन्धित अधिगम सृजनात्मक होती है। इससे स्पार होता है कि राजनात्मकता एवं राजनात्मक अधिगम केवल प्रतिभाशालियों तक ही सीमित नहीं होती है। यह निश्चय है कि कुछ ही मनुष्यों में मौलिकता होती है परन्तु यह भी निश्चय है कि तुम हम सभी के पास नए विचार एवं सूझ समय-समय पर होती है और हमारे काम करने के ढंग भी अलग-अलग होते हैं। हरेक व्यक्ति जिन विचारों की अभिव्यक्ति करता है उसमें कुछ न कुछ नवीनता एवं मौलिकता पाई जाती है। यद्यपि ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति पहले कई बार हो जाती है,फिर भी सृजनकर्ता की दृष्टि से वे नए ही होते हैं। अब स्पष्ट हो जायेगा कि सृजनात्मक अधिगम, चिन्तना, अनुभूति और क्रिया में जाँच और खोज की प्रकिया द्वारा कार्य करने के दंगों में परिवर्तन, सम्बन्धों और अपादानों को जानना-प्रतिमा बनाना, ज्ञात चीजों के साथ सम्बन्ध जोड़ना, मूल्य प्रदान करना है। इस प्रकार यह निश्चित अनुक्रिया का सीखना नहीं है बल्कि नई परिस्थितियों का उनकी अद्वितीय विषेषताओं और आवश्यकताओं के आधार पर मूल्यकरण करना और व्यवहार में प्रयोग करना है।

सृजनात्मकता एवं सृजनात्मक अधिगम कोई साधारण घटना नहीं बल्कि एक जटिल चीज है, बहुत सी भिन्न-भिन्न उत्पादक शक्तियों का एक उत्पाद है और हरेक दशा में कोई अकेला उत्तेजक कार्यशील नहीं पाया जाता है। अब साक्ष्य प्राप्त हो गए हैं कि बहुत सी दशाओं के कारण सृजनात्मकता एवं सृजनात्मक अधिगम हुआ करता है और बहुत सी दशाओं में यह विलय भी होता है कि कितनी मात्रा में कोई व्यक्ति सृजनात्मक है और सृजनात्मक अधिगम करने के योग्य है। यह उसकी उन दशाओं पर निर्भर करता है जिनके बीच वह सन्तुलन स्थापित करने में सक्षम होता है। राजनात्मक अधिगम कई तत्वों पर निर्भर करता है जैसे (1) एक समय में कई विचारों को केन्द्र पर रखने की योग्यता, (2) निर्णय की स्वतन्त्रता, (3) जटिल घटनाओं से उलझाने के लिए परीयता, (4) सवाग्रह की भावना, (5) विभिन्न तत्वों के एक में जोड़ने की योग्यता, (6) एक उच्चस्तरीय ऊर्जा, (7) अधिक अचेतन सामग्री अर्थात् अनुभव की तात्कालिक प्राप्यता।

सृजनात्मक अधिगम शिक्षा के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण पाई जाती है। अध्यापक की भूमिका इस सम्बन्ध में बहुत महत्वपूर्ण पाई जाती है। प्रो० हैमोविज के अनुसार “उत्तम अध्यापक’ का चुनाव किया जाना चाहिए क्योंकि वही विद्यार्थियों को सृजनात्मक अधिगम के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। इसी प्रकार प्रो० ऑसबॉर्न ने भी अपने व्यावहारिक प्रशिक्षण के आधार पर कहा है कि उसके विद्यार्थी “सृजनात्मक कल्पना करने में किस तरह से मस्तिष्क को फैलाने वाले अभ्यासों के द्वारा सहायता पायें। प्रो० ऑसबॉर्न ने निष्कर्ष निकाला कि सृजनात्मक अधिगम कल्पना, आदि व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयत्नों पर निर्भर करता है। कुछ अन्वेषकों ने सामूहिक अधिगम पर जोर दिया है क्योंकि समूह के द्वारा अधिक उत्तेजना एवं प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है। सृजनात्मक अधिगम के लिए एक प्रोत्साहन प्रदान करने वाला वातावरण होना जरूरी है जिससे सृजनात्पक प्रत्यक्षण, चिन्तना, और कल्पना हो सके।

(2) कक्षा और प्रयोगशाला अधिगम- स्थान-विशेष से सम्बन्धित इस प्रकार का होता है। कक्षा एक ऐसा स्थान है जहाँ एक विशेष वातावरण होता है-अध्यापक विद्यार्थी के बीच अन्तर्किया और सामग्रियों एवं अन्तक्रियाओं का प्रभाव ये सभी कक्षा के वातावरण से सम्बन्धित होते हैं। अतएव ऐसे वातावरण में ज्ञान, अनुभव, सूचना, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए प्रत्यन्त कक्षा अधिगम होता है।

प्रयोगशाला भी एक विशेष स्थान है जिसमें कुछ नियंत्रित दशाओं में अधिगम किया जाता है। कक्षा एक अंग एवं प्रकार प्रयोगशाला होती है। विद्यालय से बाहर भी प्रयोगशाला होती है जहाँ विभिन्न वस्तु-स्थितियों पर प्रयोग होता है। कक्षा में अध्यापक होता है और प्रयोगशाला में प्रयोगकर्ता। अध्यापक विद्यार्थी को अधिगम के लिए निर्देशन देता है और प्रयोगशाला में प्रयोगकर्ता विद्यार्थी के समक्ष व्यावहारिक प्रदर्शन करता है। परिणामस्वरूप विद्यार्थी को ज्ञान, सूचना या कौशल की प्राप्ति होती है। विद्यार्थी भी स्वयं प्रयोगकर्ता हुआ करता है और वहाँ अध्यापक या निर्देशक केवल एक निरीक्षणकर्ता या दर्शक मात्र होता है। इसे प्रयोगशाला अधिगम कहते हैं।

प्रयोगकर्ता की रुचि इस बात में होती है कि किसी विशेष दशा के अन्तर्गत क्या घटित होता है। इसलिये प्रयोगशाला का अधिगम अपेक्षाकृत सरल और विशिष्ट प्रकार का होता है। प्रयोगकर्ता छात्र के सामने केवल एक तत्व का प्रयोग एक समय में करता है अतएव केवल एक ही अधिगम सम्भव होता है। इसके विपरीत अध्यापक कक्षा में बिल्कुल दूसरे ढंग से सक्रिय रहता है, उसके सामने लक्ष्य का उत्पाद्य होता है। उसे एक विशेष परिणाम तक पहुँचना होता है। इसके अलावा कक्षा में अधिगम की दशाएँ साधारण न होकर अत्यधिक जटिल होती है। एक समय में कई अधिगम होते हैं जिससे कि प्रयोगशाला-अधिगम की अपेक्षा कक्षा-अधिगम बहुत ही जटिल होता है। अधिगम करने वाले भिन्न-भिन्न होते हैं और इनके द्वारा जो कुछ परिणाम हो जाये उसे अध्यापक को स्वीकार करना पड़ता है। इस परिस्थिति में उसे व्यक्तिगत अनुभवों, क्षमताओं को ध्यान में रखकर काम करना पड़ता है। कक्षा एक प्रकार का समूह है और उसमें व्यक्तिगत क्षमता वाले छात्र होते हैं। अतएव व्यक्ति एवं समूह दोनों को ध्यान में रखकर अध्यापक को अधिगम करना पड़ता है जो प्रयोगशाला अधिगम में नहीं होती है।

(21) अन्य प्रकार- हमने अधिगम के बहुत प्रकार बताए हैं। इनके अलावा भी मनोविज्ञानियों एवं शिक्षामनोविज्ञानियों ने कई प्रकार बताए हैं जैसे तथ्यों का अधिगम, कौशलों का अधिगम, समस्या समाधान अधिगप, सहचारी अधिगम, सहवर्ती अधिगम, अन्वेषी अधिगम, प्राथमिक अधिगम, अमूर्त अधिगम, स्वच्छ अधिगम आदि । जहाँ पर तथ्य की सूचना मिलती है। वहाँ तयात्मक अधिगम होता है जैसे इतिहास में । जहाँ किसी कार्य में निपुणता पाने के लिए अभ्यास कराया जाता है वहाँ कौशलों का अधिगम होता है जैसे मशीन चलाने, मोटर चलाने, बिजली फिट करने का काम । समस्या द्वारा अधिगम जीवन के कार्यों में पाया जाता है। “पहेली” को सामने रखकर उसे सुलझाना ऐसा ही अधिगम होता है। अमूर्त अधिगम सिद्धान्तों, नियमों, गणित के प्रश्नों, तर्कशास्त्र के ज्ञान के आदि में पाया जाता है। सहचारी अधिगम साहचर्य के द्वारा सम्भव होता है जैसे जनतन्त्र की व्यवस्था से साहचर्य स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृभावना, सामाजिक न्याय को समझाया जाता है। सहवर्ती अधिगम किसी अन्य अधिगम के साथ-साथ होता है जैसे भूगोल और प्रकृति का अध्ययन साथ-साथ होना। अन्वेषी अधिगम किसी रहस्य अथवा अज्ञात बात को मालूम करने में होता है जैसे बहुत से स्थानों की खोज की जावे, पेट्रोल भारत में कहाँ मिल सकता है, इसकी खोज की जावे। प्राथमिक अधिगम आवश्यकतानुसार जो प्रथम स्थान रखे उसे सीखने में होता है, जैसे कुछ लड़कों को इंजीनियर बनना है तो वे गणित पहले सीखते हैं। वितरित अधिगम वहाँ होता है जहाँ हम सीखने की वस्तु को विभिन्न भागों में बाँटकर सीखते हैं जैसे लम्बी कविता को याद करने का काम है, वहाँ हम थोड़ा-थोड़ा करके सीखते या याद करते हैं। स्वच्छ अधिगम जब कोई व्यक्ति अपनी स्वेच्छा एवं संकल्प से अधिगम करता या कराता है जैसे अध्यापक द्वारा लड़कों को पढ़ाना चाहे वे पढ़ने को तैयार न भी हो।

(ब) अधिगम के प्रकार और शिक्षा

शिक्षा की दृष्टि से अधिगम के प्रकार को समझना शिक्षक के लिए आवश्यक है। शिक्षण का एक महत्वपूर्ण अंश निर्देशन होता है ऐसी दशा में निर्देशन के विचार से अधिगम के प्रकार की सहायता छात्र के विकास के लिए ली जाती है। छात्र को व्यक्तिगत भिन्नताएँ होती हैं और उनमें अधिगम की क्षमता भी विभिन्न मात्रा में मिलती है, जैसे सूक्ष्म अधिगम करने वालों में, कौशल अधिगम करने वालों की अपेक्षा अधिक अधिगम की मात्रा पाई जाती है। अतएव इसका ध्यान शिक्षक को रखना पड़ता है।

अधिगम के प्रकार से पाठ्यक्रम का भी सम्बन्ध पाया जाता है। पाठ्यक्रम किस प्रकार का है यह अधिगम का प्रकार निर्धारित करता है। मान लीजिए प्रत्यक्षात्मक अधिगम करना है तो हमें ऐसे विषय एवं क्रियाओं को संगठित करना चाहिए जिसमें स्थूल चीजों का प्रयोग किया जा सके। निरीक्षण, प्रयोग एवं परीक्षण की क्रियाओं के द्वारा इन वस्तुओं को समझा-सीखा जा सकता है और अपना अधिगम पूरा किया जा सकता है। इसी प्रकार से अन्य विषयों को पाठ्य-वस्तु को सीखने के लिए हमें अन्य प्रकारों की सहायता मिलती है।

अधिगम के प्रकार से शिक्षणविधि का भी सम्बन्ध पाया जाता है। उदाहरण के लिए प्रयोगशाला अधिगम का सम्बन्ध प्रयोग, प्रदर्शन निरीक्षण आदि विधियों से होता है। विभिन्न प्रकार के परीक्षण भी आज प्रयोगशाला में लिए जाने लगे हैं और इस दृष्टि से मनोविज्ञानशाला या केन्द्र खोले गए हैं। यहाँ पर व्यक्तिगत रूप से प्रयोगशालीय परीक्षण किए जाते हैं अतएव स्पष्ट है कि अधिगम के प्रकार का शिक्षा विधि से सम्बन्ध पाया जाता है। खेल द्वारा अधिगम खेल विधि से संबंधित होता है, प्रयास एवं त्रुटि की विधि से तत्संबंधी अधिगम किसी न किसी विधि से संबंधित पाया जाता है। अब हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि अधिगम के प्रकार और शिक्षा में घनिष्ठ संबंध होता है।

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Pankaja Singh

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