शिक्षाशास्त्र

सिद्धान्तवाद का अर्थ | सिद्धान्तवाद के कार्य | सीखने के सिद्धान्तवाद | अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्तवाद | पुनर्बलन सिद्धान्तवाद | साहचर्य सिद्धान्तवाद | गेस्टाल्ट सिद्धान्तवाद

सिद्धान्तवाद का अर्थ | सिद्धान्तवाद के कार्य | सीखने के सिद्धान्तवाद | अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्तवाद | पुनर्बलन सिद्धान्तवाद | साहचर्य सिद्धान्तवाद | गेस्टाल्ट सिद्धान्तवाद

शिक्षा के क्षेत्र में अधिगम क्रिया के केन्द्र हैं और इसलिए अधिगम मनोविज्ञान भी चल पड़ा जो आधुनिक युग की देन है। शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत भी अधिगम का विशेष अध्ययन किया गया है और इसके फलस्वरूप अधिगम के कई सिद्धान्तवाद (Theories) और नियम (Laws) निकले हैं। अधिकतर लोग सिद्धान्तवाद (Theory) के स्थान पर केवल सिद्धान्त शब्द का प्रयोग करते हैं यद्यपि सिद्धान्त अंग्रेजी का Principle है। ऊपर भी विश्वविद्यालयों के प्रश्नों में सिद्धान्त शब्द दिया गया है परन्तु उसका आशय सिद्धान्तवाद (Theory) से है न कि Principle से । इस भ्रम को दूर करने के लिए हम Theory के लिए सिद्धान्तवाद का ही प्रयोग करेंगे।

सिद्धान्तवाद का अर्थ

हरेक विज्ञान में प्रयोग तथा परीक्षण होता है जिससे कि तथ्यों का विश्लेषण, विवेचन, व्याख्या और निष्कर्षण एवं नियम-निर्धारण होता है। इस विचार से वैज्ञानिक प्रक्रिया जटिल होती है अतएव सिद्धान्त और सिद्धान्तवाद तक पहुँचना सरल काम नहीं होता। इसी तरह से सिद्धान्तवाद क्या है यह कहना भी सरल नहीं है। फिर भी इसका अर्थ तो बताया जा सकता ही है। सिद्धान्तवाद शब्द का विग्रह इस प्रकार होता है-सिद्ध + अन्त + वाद अर्थात् प्रयोग-परीक्षण के अन्त में जो कुछ सिद्ध या प्रमाणित हो उसका  कथन । इस कथन में सत्य की व्याख्या निहित होती है। इसलिए कुछ विद्वानों ने सिद्धान्तवाद को “ज्ञान के क्षेत्र की विधिवत व्याख्या” भी कहा है। अब स्पष्ट होता है कि सिद्धान्तवाद का अर्थ है किसी भी तथ्य की क्रमबद्ध व्याख्या जो प्रयोग-परीक्षण के आधार पर की जाती है। उदाहरण के लिए यदि यह कहा जाये कि “मनुष्य अपनी परिस्थिति के अनुकूल अधिगम करता है” तो यह एक सिद्धान्त निकला और इस सिद्धान्त के मानने में जब बहुत से लोग विश्वास रखने लगें तो निश्चय ही यह एक अभिमत के रूप में कथनीय हो जाता है और यह परिभाषित रूप में “सिद्धान्तवाद” (Theory) का नाम धारण करता है।

अंग्रेजी शब्द Theory है जो सिद्धान्तवाद के लिए प्रयोग किया जाता है। डिक्शनरी के अनुसार Theory का अर्थ होता है, ‘किसी चीज की व्याख्या या व्यवस्था; विज्ञान या कला के सूक्ष्म सिद्धान्तों-नियमों का प्रकटीकरण’। इसका मूल शब्द ग्रीक भाषा का Theorein शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘देखना’ (View)। इससे यह स्पष्ट होता है कि जब मनुष्य देख या जाँच कर किसी सूक्ष्म निष्कर्ष पर पहुँचता है और उसे दूसरों को समझने के लिए प्रकट करता है तो वह सिद्धान्तवाद (Theory) है। एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। मान लें हमने कई लड़कों को देखा और उसकी सीखने की क्रिया की जाँच की तो हमें यह मालूम हुआ कि बच्चे अनुकरण से किसी बात को सीखते हैं। यहाँ पर अनुकरण से सीखने का नियम मालूम हुआ परन्तु साहचर्य के कारण होता है इसलिए इनमें “अधिगम का साहचर्य सिद्धान्तवाद” (Theory of Associative Learning) पाया जाता है। इसी प्रकार से पावलद ने कुत्ते को घंटी बजाकर खाना दिया और उसके मुख से लार गिरने लगी। दूसरी बार घटी बजाने पर खाना नहीं भी आया। यहाँ पर पावलव का “अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्तवाद” बताया गया है। इसी प्रकार से आगे हम अधिगम के अन्य सिद्धान्तवादों की ओर संकेत करेंगे। अब हमें ज्ञात हो गया है कि सिद्धान्तवाद (Theory) वह निष्कर्ष रूप की क्रमबद्ध व्याख्या और तथ्य के सम्बन्ध में कथन है जिस पर लोगों का विश्वास होता है और जो विज्ञान या कला में प्रयोग-परीक्षण के अन्त में दिखाई देता है।

सिद्धान्तवाद के कार्य

मनोविज्ञानियों ने सिद्धान्तवाद के कार्य (Functions of theory) पर भी विचार दिए हैं। इन लोगों के विचार से सिद्धान्तवाद के कई कार्य कहे गए हैं-

(क) ज्ञान का साधन होना-सिद्धान्तवाद के द्वारा लोग ज्ञान की प्राप्ति करते हैं। विभिन्न विषयों में कुछ न कुछ सिद्धान्तवाद होते हैं और इनसे उस विषय के विभिन्न पक्षों का ज्ञान मिलता है।

(ख) ज्ञान का विश्लेषण- अधिगम और अन्य क्षेत्रों में होने वाले अनुसंधानों का विश्वेषण सिद्धान्तवादों से होता है। अस्तु जो भी ज्ञान प्राप्त करना है उसका विश्लेषण भी होता है।

(ग) मत प्रतिस्थापन होना-सिद्धान्तवाद एक प्रकार का निष्कर्ष एवं निर्णय होता है अतएव स्पष्ट है कि इसके द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले, अनुसंधान करने वाले ज्ञानियों को अपना निश्चित मत देना आवश्यक होता है। अतएव सिद्धान्तवाद का एक कार्य मत प्रतिस्थापन भी होता है।

(घ) ज्ञान को सूक्ष्म रूप में प्रकट करना- ज्ञान विस्तृत, विशद एवं व्यापक होता है अतएव उसे उसी रूप में ग्रहण करना और बताना कठिन होता है। ऐसी दशा में उसे सूक्ष्म रूप में प्रकट करना जरूरी होता है। यह कार्य सिद्धान्तवाद के द्वारा किया जाता है।

(ङ) सृजनात्मक प्रयास को प्रस्तुत करना- अधिगम और अन्य क्षेत्र में सम्बन्धित सिद्धान्तवाद यह बताते हैं कि उस क्षेत्र में कितना प्रयल किया गया है और किस ढंग से किया गया है। ऐसे सिद्धान्तवाद विषय और उनके विभिन्न क्षेत्रों का सृजन भी करते हैं। इस प्रकार सिद्धान्तवाद (Theories) विषय में किए गए सृजनात्मक प्रयासों को बताते हैं।

(च) ज्ञान के स्वरूप को पहचानने में सहायता देना-सिद्धान्तबाद हमें विषय सम्बन्धी ज्ञान को पहचानने में भी सहायता करते हैं। ये हमें विषय सम्बन्धी ज्ञान के क्या? क्यों? कैसे? का उत्तर दे देते हैं।

सीखने के सिद्धान्तवाद

(Theories of Learning)

मनोविज्ञानियों ने अपने जो प्रयोग और परीक्षण किए वे सब अलग-अलग से और इस कारण उनके सिद्धान्तवाद भी अलग-अलग रहे । यहाँ तक कि एक ही तथ्य के बारे में अन्वेषण करने वालों ने अलग-अलग पक्षों को देखा तथा तत्सम्बन्धी मत प्रस्तुत किया, इससे उनके सिद्धान्त अलग-अलग ही हुए हैं। अधिगम के सिद्धान्तवाद साहचर्य से आरम्भ होते हैं और पुनर्बलन तक पहुँचते हैं। नीचे इन सिद्धान्तवादों के बारे में विचार दिए जा रहे हैं-

(i) साहचर्य का सिद्धान्तवाद (Theory of Association)- 

मानव के अनुभवों के साथ ही यह प्राचीनकाल से चला आता हुआ सिद्धान्तवाद है। मानव एक विचारशील प्राणी है और उसका अधिगम विचारों, संप्रत्ययों आदि पर काफी निर्भर करता है। मनोविज्ञानियों ने यह बताया है कि विभिन्न संप्रत्ययों में परस्पर सम्बन्ध- पाया जाता है और सम्बन्ध स्थापित भी हो जाता है। संप्रत्यय का निर्माण प्रत्यक्षों से होता है और प्रत्यक्ष उत्तेजक के प्रति अनुक्रिया के कारण बनते हैं अतएव उत्तेजक अनुक्रिया और उनसे प्रत्यय का निर्माण तथा अन्त में साहचर्यस्थापन होता है।

साहचर्य का सिद्धान्तवाद यह बताता है कि सभी विचार-संप्रत्यय एक दूसरे से समानता, विरोध, निरन्तरता आदि के नियम के अनुसार आपस में सम्बन्धित पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए अध्यापक एवं विद्यार्थी का संप्रत्यय यह बताता है कि ये ज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने वाले हैं अतएव प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को “विद्यार्थी’ की उपाधि दी जाती है जो ज्ञानान्वेषण में जुटा रहता है। इस आधार पर एक सिद्धान्तवाद ज्ञात होता है। विद्यार्थी का कर्तव्य ज्ञान की खोज करना है। पढ़ना, लिखना, पुस्तक, पत्र-पत्रिका आदि ऐसे साधन हैं जिसके स्मरण होने से विद्यार्थी और उससे सम्बन्धित सिद्धान्त, नियम आदि का बोध होता है।

(ii) उत्तेजक-अनुक्रिया का सिद्धान्तवाद या सम्बन्धवाद (Stimulus. Response theory or Connectionism)- 

इसका अर्थ यह है कि अधिगम उत्तेजक अनुक्रिया के फलस्वरूप होता है। उत्तेजक और अनुक्रिया में परस्पर कारण और परिणाम का सम्बन्ध (Connection) होने से इसे सम्बन्धवाद (Connectionism) भी कहते हैं। प्रत्येक क्रिया के लिए एक उत्तेजक होता है जिसका प्रभाव प्राणी के मन और शरीर दोनों पर पड़ता है। इस प्रभाव के फलस्वरूप प्राणी अनुक्रिया (Response) करता है। जैसे भूख लगती है तो प्राणी खाने की चीज पाने के लिए इधर-उधर दौड़ता है। विद्यार्थी को पास करना होता है। इससे कक्षा में जो कुछ पढ़ाया जाता है उसके प्रति विद्यार्थी की अनुक्रिया तदनुकूल होती है। इस प्रकार विद्यार्थी बहुत सी चीजों को या यों कहें कि सभी चीजों को उत्तेजक अनुक्रिया के फलस्वरूप ही सीखता है।

“सम्बन्धवाद वह सिद्धान्त है जो यह मानता है कि सभी मानसिक प्रक्रियाएँ परिस्थिति और अनुक्रियाओं के बीच जन्मजात और अर्जित सम्बन्ध की क्रियाशीलता में शामिल होती है।”

-प्रो० एल० रेन।

उत्तेजक और अनुक्रिया में एक ऐसा सम्बन्ध या बन्धन एक-संस्थान में संगठित होता है। यह संस्थान ज्ञान होता है और अधिगम उस संस्थान तक पहुँचने की क्रिया है जिससे सम्बन्ध या बन्धन निर्मित होता है, यह दृढ़ होता है, और संस्थान में संगठन भी होता है। अतएव इन सभी से सम्बन्धित सिद्धान्तवाद को उत्तेजक-अनुक्रिया का अधिगम सिद्धान्तवाद कहा जाता है। थार्नडाइक और बाद में मैकडूगल भी इस सिद्धान्तवाद के समर्थक कहे गए हैं। थार्नडाइक का ‘भूखी बिल्ली’ पर प्रयोग प्रसिद्ध है।

उत्तेजक-अनुक्रिया सिद्धान्तवाद शिक्षा के क्षेत्र में बहुत महत्व रखता है। इस सिद्धान्तवाद के अनुसार अधिगम संयोजन या सम्बन्ध है (Learning is Connection)| इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य जो कुछ अनुभव-ज्ञान ग्रहण करता है वह उत्तेजक के कारण ही होता है। यदि उत्तेजना न हो तो अधिगम भी न होगा। इसके अलावा सम्बन्धन के आधार पर मानब का बौद्धिक विकास होता है। छोटा शिशु खिलौना लेता है, उसे देखता है, धीरे-धीरे उसे चीजों का ज्ञान उत्तेजना के कारण होता है। बड़े होने पर जिज्ञासा होता है और उसकी सन्तुष्टि में भी यही सिद्धान्तवाद पाया जाता है। इस सिद्धान्तवाद में अधिक मात्रा में सम्बन्ध स्थापित करने से ही बुद्धि बढ़ती है। अतएव ज्ञान, बुद्धि बोध, क्षमता, कौशल सभी का परिणाम सम्बन्ध स्थापना से ही ज्ञात होता है। इस प्रकार इस सिद्धान्तवाद के अनुसार इन सभी को परिणामस्वरूप दृष्टिकोण से समझा जाता है और इनका मापन भी होने लगा है। अधिगम का मापन भी इनके मापन से किया जा सकता है। इसी सिद्धान्तवाद पर प्रो० थॉर्नडाइक ने अधिगम (Laws of Learning) भी निकाले हैं जिनका प्रयोग शिक्षा देने में किया जाता है।

उत्तेजक-अनुक्रिया सिद्धान्तवाद की आलोचना में मनोविज्ञानियों ने कुछ बातों की ओर संकेत किया है जैसे, (1) इसमें बेकार प्रयासों पर ध्यान दिया जाता है, इससे समय नष्ट होता है; (2) इसमें अधिगम किस तरह होता है यह तो जानते हैं परन्तु क्यों होता है यह नहीं जानते; (3) सम्बन्ध एक प्रकार से यांत्रिक होता है जिसमें विवेक-चिन्तन कम होता है, (4) अधिगम के इस सिद्धान्तवाद के अनुसार रटना माना जाता है जो अधिक प्रभाव डालता है, (5) जीवन में इस सिद्धान्तवाद के प्रयोग के कारण मनुष्य को इकाई नहीं माना जाता है बल्कि एक स्नायु से दूसरी स्नायु जुड़ जाती है और जीवन की क्रिया चलती है। अब स्पष्ट है कि अधिगम का यह सिद्धान्तवाद दोषपूर्ण है।

(iii) अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्तवाद (Theory of Conditioned Response)- 

कुछ मनोविज्ञानियों ने इसे अनुबन्धन का सिद्धान्तवाद भी कहा है। यह सिद्धान्तवाद भी शरीर की क्रिया पर आधारित है और इस दृष्टि से इसे शरीर विज्ञान का सिद्धान्तवाद (Physiological Theory) कहा जाता है। इस सिद्धान्तवाद के अनुसार अधिगम एक अनुकूलित अनुक्रिया है या एक अनुबन्धन है अब हमें मालूम करना चाहिए कि अनुकूलित अनुक्रिया क्या है?

प्रो० बर्नार्ड ने लिखा है कि “अनुकूलित अनुक्रिया उत्तेजना की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है जिसमें उत्तेजनाएँ निश्चित अनुक्रिया के साथ लगी रहती हैं और बाद में वे उत्तेजनाएँ व्यवहार के लिए कारण बन जाती हैं जिसके साथ वे पहले मात्र रूप से लगी हुई थी।”

इस कारण किसी बाह्य उत्तेजना के फलस्वरूप जब प्राणी को क्रियाशील बनाया जाता है और ये उत्तेजनाएँ उसको व्यवहार के लिए अभिप्रेरित करती हैं तो वहाँ अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्तवाद होता है। एक उदाहरण लीजिए घंटा बजने पर छात्र पढ़ने की तैयारी करता है और आशा रखता है कि अध्यापक कक्षा में आवेगा ही चाहे वह आवे या न भी आवे। इस प्रकार छात्र की पढ़ाई और घंटे में अनुकूलन है अथवा यों कहें कि घन्टे के साथ पढ़ाई की क्रिया अनुकूलित (Conditioned) हो गई। इस प्रकार के उत्तेजक आन्तरिक न होकर वाह्य होते हैं अतएव कुछ लोगों ने इन्हें अस्वाभाविक अप्राकृतिक उत्तेजक माना है। इसलिए इन मनोविज्ञानियों ने अनुकूलित अनुक्रिया के सिद्धान्तवाद को इस प्रकार बताया है। “स्वाभाविक उत्तेजना की अस्वाभाविक (या प्रतिस्थापित अथवा अनुकूलित) क्रिया के साथ सम्बन्ध उपस्थित हो जाने के पश्चात एवं अस्वाभाविक उत्तेजक के प्रति स्वाभाविक उत्तेजना की अनुक्रिया करने लगने के फलस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में होने वाले परिवर्तन एवं परिमार्जन को अनुकूलित अनुक्रिया कहते हैं और  इससे सम्बन्धित व्यवहार-अनुभव-ज्ञान के अर्जन को तत्सम्बन्धी अधिगम । अनुकूलित- अनुक्रिया में स्वाभाविक उत्तेजना का प्रतिस्थापन अस्वाभाविक उत्तेजना के द्वारा होता है।

परिस्थिति– (स्वाभाविक उत्तेजना→अनुक्रिया)- (अस्वाभाविक उत्तेजना स्वाभाविक उत्तेजना)-स्वाभाविक अनुक्रिया

अनुकूलित-उत्तेजक Conditioning)

इस सिद्धानवाद के समर्थक प्रो० पावलव, वाटसन, बकवल, रैजरन एवं रेनर हैं। इन्होंने जो प्रयोग किए हैं उनसे इस सिद्धान्तवाद की पुष्टि होती है तथा शिक्षा अधिगम के क्षेत्रों में इनका प्रयोग हुआ है और लाभ उठाया गया है। शिक्षा मनोविज्ञान की पुस्तकों में प्रायः पावलव का “कुत्ते पर प्रयोग” मिलता है जिसमें एक कुत्ते को घन्टी बजाकर भोजन दिया जाता और भोजन न आने पर कुत्ते के मुँह से लार गिरने लगती है। प्रो० पावलब के प्रयोग का विश्लेषण इस प्रकार है-

(क) परिस्थिति = घंटी बजना + भोजन —स्वाभाविक उत्तेजना = लार बनना – स्वाभाविक अनुक्रिया = लार बहना। (2) परिस्थिति = घंटी बजना → भोजन न आना → अस्वाभाविक उत्तेजना स्वाभाविक उत्तेजना = लार बनना स्वाभाविक अनुक्रिया अर्थात् लार बहना।

(ख) अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्तवाद का शैक्षिक महत्व-अधिगम और शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त महत्व पाया जाता है विशेषकर शिशुओं के सम्बन्ध में। इस सिद्धान्तवाद के कारण व्यक्ति में आदतों का निर्माण होता है। लिखने-पढ़ने, काम करने की आदत बच्चों एवं वयस्कों में बनती है वाह्य उद्दीपकों (licentives) का प्रयोग इस सिद्धान्तवाद में मिलता है। बुरी आदतों, भय, लज्जा, घृणा आदि को त्यागने के लिए भी इस सिद्धान्तवाद का प्रयोग कर सकते हैं। चरित्र एवं व्यक्तित्व के निर्माण में भी इस सिद्धान्तवाद का योगदान पाया जाता है। समूह निर्माण, कक्षा की व्यवस् एवं अनुशासन के विचार से भी यह सिद्धान्तवाद लाभदायक माना जाता है।

अनुकूलित अनुक्रिया को प्रभावित करने वाले कई तत्व होते हैं जैसे अभ्यास, समय और अवधि, बाधाएँ, अभिप्रेरक, आयु, बुद्धि, परिपक्वता, मानसिक स्वास्थ्य । शिक्षा के क्षेत्र में इन सब का काफी हाथ होता है। अतः शैक्षिक दृष्टि से अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त का काफी महत्व पाया जाता है। शिक्षण विधि की दृष्टि से अनुकूलित अनुक्रिया के आधार पर ज्ञान-अनुभव दिया जाना स्वाभाविक है। इस सम्बन्ध में प्रो० जी० एल० एण्डरसन ने संकेत किया है कि “अनुकूलित अनुक्रिया का सबसे बड़ा योगदान यह रहा है कि उसमें हमें एक ऐसी बुनियादी वैज्ञानिक आधार-सामग्री प्राप्त हुई है जिससे हम अधिगम के एक सिद्धान्तवाद का निर्माण कर सके हैं।”

मनोविज्ञानियों ने इस सिद्धान्तवाद की आलोचना की है और इसके फलस्वरूप इसमें कुछ कमी की ओर संकेत किया है जैसे यांत्रिकता पर अधिक बल दिया जाना, अनुकूलित अनुक्रिया का अस्थायी होना, बाद में प्रभावहीन होना, केवल शिशुओं एवं पशुओं के सम्बन्ध में ही अनुपयुक्त होना, पुरस्कार एवं दण्ड के प्रयोग से अनुक्रिया का शीघ्र सम्पादन होना। अब स्पष्ट है कि यदि इन कमियों को दूर कर दिया जावे तो निश्चय ही यह सिद्धान्त शिक्षक और शिक्षण के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। इस सम्बन्ध में प्रो० क्रो और क्रो का कहना है कि “इस सिद्धान्तवाद के द्वारा बालकों में उत्तम व्यवहार तथा अनुशासन की भावना को उत्पन्न किया जा सकता है।” इन शब्दों से अनुकूलित अनुक्रिया के सिद्धान्तवाद का शैक्षिक महत्व स्पष्ट हो जाता है।

(iv) (क) पुनर्बलन का सिद्धान्तवाद (Theory of Re-Inforcement)- 

इस सिद्धान्त वाद के प्रवर्तक प्रो० क्लार्क हल द्वारा कहे गये हैं जिन्होंने चूहों पर प्रयोग करके यह सिद्ध किया है कि उत्तेजना और अनुक्रिया के मध्य सम्बन्ध स्थापित होना अन्तर्नोद पर निर्भर करता है। प्रो० हल के अनुसार अन्तर्नोद (Drive) वह परिस्थिति है जो प्राणी में शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकता से उत्पन्न होती है। वास्तव में तनाव की दशा के कारण अन्तर्नोद की परिस्थिति पैदा होती है। ऐसी परिस्थिति की अनुभूति करने पर व्यक्ति में अनेक उत्तेजनाएँ उत्पन्न होती हैं और ये उत्तेजनाएँ ही व्यक्ति को अपने उद्देश्य तक ले जाती हैं। इस प्रकार ऐसे सम्बन्ध के हो जाने से व्यक्ति का मानसिक संघर्ष कम हो जाता है और उसे पुनः शक्ति मिलने लगती है कि वह स्वयं आगे बढ़े । यही पुनर्बलन की क्रिया एवं सिद्धान्त है। पुनर्बलन वहाँ होता है जहाँ अन्तर्नोद की शक्ति कम पड़ जाती है। इसलिए हल के सिद्धान्त को अन्तर्नोद की कमी का सिद्धान्तवाद (Drive Reduction Theory) भी कहा गया है। हल ने अपने सिद्धान्तवाद को इस प्रकार समझाया है-“प्राणी को एक उत्तेजक प्रभावित करता है। यह एक स्नायुविक अन्तर्क्रिया होगी। स्नायुविक आवेग एक प्रतिक्रिया की ओर बढ़ाता है। इसके घटित होने में अन्तर्नोद को उपस्थित माना ही जाता है। अन्तनोंद आवश्यकता के परिणामस्वरूप होने वाली तनाव की एक दशा होता है। पुनर्बलन आदत कही जाने वाली स्नायु-संस्थान में एक संगठन उत्पन्न करता है।

उत्तेजना-प्रतिक्रिया आवेग→अन्तर्नोद→कमी-पुनर्बलन ।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्तेजना होने पर जो प्रतिक्रिया और उसका फल मिलता है उससे यदि अन्तर्नोद-आवेग में कमी हो जावे तो पुनर्बलन होता है, इस संबंध में मुर्गी पर किये गये प्रयोग को संकेत किया जा सकता है। एक मुर्गी ने कई बार एक लोहे के प्लेट पर चोंच मारी प्लेट गिर गई और उसके पीछे रखा हुआ खाना मिल गया। पुनः उसका प्लेट लगा और मुर्गी ने फिर चोंच मारी और उसे खाना मिल गया परन्तु भूख कम हो गई। तीसरी बार चोच मारने पर प्लेट कुछ देर में गिरा, इसके पूर्व मुर्गी सन्तुष्ट रही इसलिए ज्यादा परेशान नजर नहीं आई। इससे उसने अपनी चोंच तो मारी, यहाँ पुनर्बलन हुआ, परन्तु उसकी भूख (अन्तर्नोद) कम हो गई। इसी प्रकार से छात्र एक परीक्षा में पास हो जाने पर दूसरी परीक्षा के लिए प्रयल करता है और यदि पूर्ववत ही परिणाम रहता है तो बाद में परीक्षा पास करने की शक्ति का प्रयोग तो होता है लेकिन आवेग कम पाया जाता है। उसे पुनः शक्तिशाली बनाने का प्रयास होता है।

(ख) पुनर्बलन के सिद्धान्तवाद का शिक्षा में प्रयोग एवं महत्व-शिक्षा से पुनर्बलन का सिद्धान्तवाद काफी सम्बन्धित बताया गया है। पुनर्बलन के सिद्धान्त का सम्बन्ध बालकों की आवश्यकताओं, आवेगों, अन्तर्नादों एवं क्रियाओं से होता है जिससे कि उनके व्यवहार की व्यवस्था उचित ढंग से होती है। इस दृष्टि से इस सिद्धान्तवाद को शिक्षा में कई ढंग से प्रयुक्त किया जा सकता है जैसे (1) शिक्षा देते समय बालकों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना और तदनुसार शिक्षा की व्यवस्था करना, (2) आगे बढ़ने के लिए बालकों को पुरस्कार, प्रलोभन आदि देकर उत्साहित किया जावे, (3) जो कुछ पढ़ाना है उसका उद्देश्य एवं प्रयोजन बालकों को भी स्पष्ट बता दिया जावे, तभी उसके प्रति वे सचेत एवं सचेष्ट भी रहेंगे। (4) शिक्षण विधियों को भी आवश्यकता के अनुकूल रखा जावे ताकि हरेक छात्र अपनी-अपनी रुचि को सन्तुष्ट कर सके। (5) शिक्षा के द्वारा बालकों की जिज्ञासा एवं आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रयल करना चाहिए। अब स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त का लक्ष्य आवश्यकता पूर्ति की ओर रहता है। इसलिए शिक्षा एवं जीवन में यह सिद्धान्तवाद काफी महत्वपूर्ण कहा जाता है।

(ग) पुनर्बलन के सिद्धान्तवाद की आलोचना- यह सिद्धान्तवाद आधुनिक युग में शिक्षा का आधार माना गया है। इसमें निगमन प्रणाली के विशेष झुकाव को बताया गया है। इसके अलावा इस सिद्धान्तवाद के कारण हल का विचार है कि यदि अधिगम से मनुष्य की आवश्यकताओं से उत्पन्न तनाव में कमी नहीं होती है तो अधिगम बेकार है। अतएव सार्थक अधिगम पुनर्बलन के सिद्धान्तवाद एवं प्रक्रिया से होता है और इससे यह बड़ा लाभप्रद होता है। इससे आवश्यकता पूर्ति होती है अतएद विकास में सहायता मिलती है।

इसकी आलोचना में यह कहा जाता है कि वह सिद्धान्तवाद अनुकूलित अनुक्रिया एवं उत्तेजना-अनुक्रिया के सिद्धान्त पर आधारित है। स्नायुविक अन्तक्रिया एक प्रकार से उत्तेजना-अनुक्रिया के सम्बन्ध होने समान ही है। अतएव थार्नडाइक के सिद्धान्तबाद का यह एक नया रूप मात्र है। इसकी मौलिकता अपनी निजी नहीं है। अब स्पष्ट है कि जो अधिगम होता है वह यांत्रिक ही है और उससे प्राथमिक आवश्यकता में किसी प्रकार की कमी नहीं होती है। इस सम्बन्ध में प्रो० जी० एल० एण्डरसन के शब्द विचारणीय हैं : “हल का सिद्धान्तवाद उसी वर्ग का है जिस वर्ग का धार्नडाइक का सिद्धान्तवाद है। किन्तु जैसा कि कहा गया है कि यह अधिक परिष्कृत है, अर्थात् यह अधिक नपा-तुला और शुद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें अभिप्रेरणाओं पर, खास तौर से इसलिए अधिक बल दिया जाता है कि वे प्राणी की मूल और अर्जित आवश्यकताओं से सम्बद्ध है।”

(v) समग्राकृति या गेस्टाल्ट सिद्धान्तवाद-

अधिगम का दूसरा सिद्धान्तवाद समग्राकृति या गेस्टाल्ट सिद्धांतवाद कहा जाता है। गेस्टाल्ट सिद्धान्तवाद साहचर्य सिद्धान्तवाद को प्रतिक्रिया में विकसित हुआ था। यह सिद्धान्तबाद जर्मन मनोविज्ञानियों द्वारा विकसित हुआ। गेस्टाल्ट शब्द जर्मन भाषा का है जिसका अर्थ समग्राकृति, पूर्णाकार अथवा योगरूप होता है जो किसी पैटर्न या प्रतिदर्श के रूप में हुआ करता है। अस्तु अधिगम में अवबोध पूर्ण रूप में होता है न कि खण्ड रूप में और जहाँ एक सग्राकृति बनती है। सारा पर्यावरण अनुभव-ज्ञान का एक क्षेत्र होता है और यह पर्यावरण प्रत्ययात्मक होता है फिर भी उसमें एक संगठन उपलब्ध होता है इसलिए जो भी अनुभव ज्ञान होता है वह समग्र होता है। एक जीवित प्राणी वृहद् गत्यात्मक पर्यावरण के साथ सन्तुलन प्राप्त करने में समर्थ इसलिये होता है क्योंकि प्राणी को क्षमता और शक्ति होती है जीवित होने के नाते, जिससे कि वह अपने आपको पर्यावरण के साथ समायोजित कर लेता है। इस प्रकार प्राणी में संगठन एवं पुनर्सगठन लगातार होता रहता है जबकि उसका अपने पर्यावरण के साथ अन्तक्रिया होती है। प्राणी की संगठन का पुनर्सगठन की यह क्रिया विभिन्न परिवर्तनों में से एक में प्रदर्शित होती है जो अनुक्रिया के रूप पाई जाती है और इसे हम अधिगम कहते हैं।

इस सिद्धान्तवाद का विश्वास है कि जो कुछ हम देखते, सुनते, अनुभूति करते हैं उसका एक पूर्णाकार या समग्राकृति बनती है जो उसके अंशों को मिला देने पर भी उससे बड़ा आकार मालूम होता है कि जैसा कि प्रो० मैक्स वर्दीमार ने समझाया है। उत्तेजकों के कारण होने वाली अनुक्रिया हमेशा समग्ररूप में होती है। इस तथ्य को प्रो० कुर्ट कॉफका, प्रो० कोहलर आदि ने स्वीकार किया और कोहलर के प्रयोग ने सिद्ध किया कि अधिगम स्थिति के पूर्ण बोध का परिणाम है जैसा उसका शिपांजी के ऊपर प्रयोग में पाया। इसके अलावा जीवित प्राणी में संगठन एवं पुनर्सगठन की एक “क्षमता और शक्ति” पाई जाती है जिसे गेस्टाल्ट मनोविज्ञानियों ने अन्तर्दृष्टि कहा है। कुछ लोगों ने इसे “सूझ” भी बताया है। अतएव कुछ मनोविज्ञानी इसे अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्तवाद कहते है।

गेस्टाल्ट और अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्तवाद का आधार भी साहचर्य या संगठन है। इस विचार से इसमें मनोविज्ञानियों ने कुछ विशेष नियमों की ओर भी संकेत किया है जैसे-

(i) निश्चित संरचना- अधिगम में पूर्ण रूप से सभी अनुभवों, अनुक्रियाओं का संगठन एक निश्चित संरचना में होता है और इस संरचना के प्राप्त होने पर ही अधिगम प्रक्रिया समाप्त होता है और पूरी मानी जाती है।

(ii) समानता- प्राणी की क्षमता अपने सामने पाई जाने वाली समान वस्तुओं को एक साथ संगठित करने में होती है। अन्तर्दृष्टि या सूझ इसमें सहायता करती है जैसा कोहलर ने बताया है कि शिम्पांजी ने बक्स, छड़ी और अन्य चीजों को एक साथ रखकर छत से लटकते केले को पाया।

(iii) समीपता- परस्पर मिलने-जुलने वाली चीजों का संगठन प्राणी अपनी सूझ से करता है। मान लें शिम्पांजी ने कई बक्सों को एक साथ रखा, पुनः उसने लटकते केले के नीचे ही रखा, इधर-उधर नहीं। यही समीपता का नियम है। इससे प्राणी लक्ष्य के समीप होता जाता है।

(iv) निरन्तरता- अधिगम की प्रक्रिया पूरी करने के लिए यह आवश्यक है। इसके कारण प्रत्यक्षीकरण की क्रिया पूरी होती है। जो प्रत्यक्ष प्राप्त होते हैं उनमें संगठन होता रहता है यदि लगातार प्रक्रिया चलती रहती है। इसीलिए कुछ सीख लेने के बाद अभ्यास कराया जाता है।

(v) समापन- इस नियम के अनुसार प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। यह समापन उसे समय होता है जब अनुक्रियाओं का एक ।र्न (प्रतिदर्श) बन जाता है; मान लिया (2x 2=4) जब पूरा चित्र तैयार हो गया है और संगठन पूरा हो जाता है तो अनुक्रिया करना समाप्त हो जाता है।

अन्तर्दृष्टि (सूझ) का अर्थ बताते हुए प्रो० कॉफका ने लिखा है कि “अधिक प्राविधिक अर्थ में अन्तर्दृष्टि की कसौटी है समस्या के समाधान या हल को एकाएक ज्ञात कर लेना जिससे एक ऐसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप होती है जो परिस्थिति के अनुसार चलती है और समाधान ज्ञान के क्षेत्र के संदर्भ में होता है।”

(क) सूझ द्वारा अधिगम का प्रयोग- सुल्तान नामक एक शिम्पांजी को एक कमरे में रखना, उसकी छत से केला लटकाना जो पहुँच के बाहर था। कमरे में दो-तीन बक्स रखना, केला पाने के लिए साधारण प्रयास में असफल होने पर शिम्पांजी का एक बक्स ठीक केले के नीचे रखना और पाने की कोशिश करना और असफल होना। इसी तरह उस एक बक्स पर दूसरा बक्स रखना पुनः प्रयास करना और केला पा लेना। इस प्रकार से स्पष्ट है कि यह उपाय एकाएक शिम्पांजी के मस्तिष्क में आया तो परिस्थिति की उत्तेजना के फलस्वरूप हुआ। ऐसी ही स्थिति नई समस्याओं के उत्पन्न होने पर मनुष्य के मस्तिष्क सूझ या अन्तर्दृष्टि से आती है और समस्या का समाधान हो जाता है। इस तरह मनुष्य अधिगम (या अनुभव-ज्ञान-कौशल) प्राप्त करता है। प्रो० आलपोर्ट ने बच्चों पर प्रयोग किया और बताया कि मनुष्य शिम्पांजी की अपेक्षा अधिक अन्तर्दृष्टि रखता है।

(ख) अन्तर्दृष्टि पर प्रभाव डालने वाले कारक- प्रो० आलपोर्ट ने अपने प्रयोग से यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अन्तर्दृष्टि पर कई कारक अपना प्रभाव डालते हैं जैसे-

(i) बुद्धि- कम बुद्धि वालों में अन्तर्दृष्टि की क्षमता भी कम होती है। कुछ पशु में ही इस कारण यह पाई जाती है वह भी मनुष्य से बहुत कम ।

(ii) अनुभव- मनुष्य अपने अनुभव को संचित करने की क्षमता रखता है इसलिए नई परिस्थितियों में इन्हीं अनुभवों के आधार पर वह कार्य करने में सफल होता है। सूझ इस प्रकार से अनुभव पर निर्भर करती है।

(iii) प्रत्यक्षीकरण- जिस वस्तु या घटना के ऊपर हम ध्यान देते हैं और उसका अच्छी तरह से निरीक्षण कर लेते हैं उसका हमें पूर्ण रूप में प्रत्यक्षीकरण हो जाता है और इसलिए, उसके हल करने में अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है।

(iv) प्रयत्न- अन्तर्दृष्टि होने के लिए व्यक्ति को प्रयल भी करने पड़ते हैं चाहे वह सफल न भी हो जैसे एक बक्स रखने का प्रयल शिम्पांजी ने किया और वह सफल न हुआ, फिर उसने दूसरे को रखा।

(v) सफलता- सफलता भी अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करती है, विशेषकर दूसरी बार समस्या उत्पन्न होने पर हम अपने पूर्व सफल प्रयास दुहराते हैं। यह भी शिम्पांजी के प्रयोग से स्पष्ट है। एक बार दो छड़ी जोड़कर उसने सीखचे से बाहर पड़े केला को खींचा। छड़ियों को अलग कर देने पर उसने स्वयं उन्हें जोड़ लिया और केला दूसरी बार खींच लिया।

(ग) गेस्टाल्ट और अन्तर्दृष्टि के सिद्धान्तवाद का शैक्षिक महत्व- मनोविज्ञान एवं शिक्षा की दृष्टि से गेस्टाल्ट और अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्तवाद काफी महत्वपूर्ण माना गया है। इसके द्वारा शिक्षा में उत्तेजकों एवं अन्तर्दृष्टि की क्षमता का प्रयोग करना सम्भव हो सका है। उत्तेजकों की सार्थकता एवं प्रयोगशीलता भी प्रदान की गई है। प्रो० एण्डरसन ने बताया है कि “कक्षा के भीतर का संसार जिसमें बालक रहता है और कुछ सीखता है केवल कुछ विचारहीन उत्तेजकों का संगठन नहीं है, और न तो उसकी अनुक्रियाएँ केवल प्रयत्न और मूल के अनुकूलन हैं। यह संसार सुसंगठित होता है, उसका एक अर्थ होता है। बालक अवरोध के साथ प्रतिक्रिया कर सकता है, उसको सूझ होती है।” इससे यह साफ मालूम होता होता है कि सार्थक अधिगम, सचेतन अधिगम गेस्टाल्ट या अन्तर्दृष्टि सिद्धान्तवाद के अनुसार होता है।

इस पर विचार करते हुए प्रो० हिलगार्ड ने लिखा है कि “इस सिद्धान्तवाद का रोचक और महत्वपूर्ण लक्षण यह तथ्य है कि प्रयोजनपूर्ण व्यवहार की व्याख्या यह देता है जो मानसिक दशाओं और वाह्य दृश्य यांत्रिकता दोनों को दूर रखता है” | इस सम्बन्ध में एक छोटी सी टिप्पणी प्रो० एण्डरसन ने दी है। इन्होंने बताया है कि “अंकगणित अलग-अलग तथ्य नहीं है बल्कि कालान्तर होने वाली घटनाओं का प्रवाह है जिसमें एक घटना दूसरे के आगे या पीछे पाई जाती है। बालक 3×4 की अनुक्रिया कर सकता है क्योंकि वह 3 को 4 बार जोड़ सकता है। सीनियर हाईस्कूल का छात्र अवसाद के वर्षों की अरक्षा को सामाजिक सुरक्षा नियम लागू करने से जोड़ सकता है। अधिगम सार्थक होता है। ऐसा शिक्षक कहते हैं और वैसा ही गेस्टाल्ट मनोविज्ञान भी।”

गेस्टाल्ट सिद्धान्तवाद अनुभवों की पूर्णता पर बल देता है। अनुभव प्राप्त करने के लिए शिक्षक कक्षा में सभी उपादान छात्रों के समक्ष प्रस्तुत कर देता है और छात्र अपनी बुद्धि एवं योग्यता के कारण समस्या के समाधान में इनका प्रयोग करता है। अतएव किस प्रकार से छात्र निरर्थक प्रयासों के स्थान पर सार्थक प्रयास करे और अनुभव एवं सफलता प्राप्त करे यह इस सिद्धान्तवाद का लक्ष्य पाया जाता है। यह वास्तव में सभी शिक्षा का सामान्य लक्ष्य कहा जा सकता है। इस दृष्टि से अध्यापक का कर्तव्य है कि वह (1) छात्रों के सामने उपयुक्त पर्यावरण एवं साधन प्रस्तुत करे, (2) समस्या खड़ी करे, (3) सृजनात्मक क्रियाएँ करावे, (4) पाठ्यक्रम को अच्छी एवं पूर्ण रीति से संगठित करे, (5) जो कुछ पढ़ावे उसे सारांश रूप में अन्त में बता देवे, (6) छात्रों की आकांक्षा के स्तर को समझे अथवा तदनुकूल ज्ञान प्रदान करे। इससे छात्रों की अन्तर्दृष्टि को काम में लाया जा सकता है। उन्हें अनुभव दिया जा सकता है।

इस सिद्धान्तवाद ने ाया कि मनुष्य अपनी अन्तर्दृष्टि से किस प्रकार नई परिस्थिति में समायोजन करे, समस्या को हल करे । अतएव अधिगम की प्रक्रिया में मनुष्य अपनी रुचि, आकांक्षा, अभिवृत्ति, पूर्व अनुभव, बुद्धि, कल्पना का प्रयोग करे यह सब उसे ज्ञात होता है। इन्जिनियरिंग, चिकित्सा, विज्ञान के अन्वेषण, कलात्मक उत्पादन सभी क्षेत्रों में अन्तर्दृष्टि का महत्वपूर्ण उपयोग पाया जाता है। अन्तर्दृष्टि के कारण ही ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में महान उत्पादन किये गये हैं, यह स्पष्ट मालूम होता है। अतएव इसका शैक्षिक महत्व बहुत है।

(vi) अन्य सिद्धान्तवाद (Other Theories)-

मनोविज्ञान की पुस्तकों में हमें कुछ अन्य सिद्धान्तवाद मिलते हैं जैसे (क) प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्तवाद (Theory of Trial and Error) जिसके प्रतिपादक थार्नडाइक हैं। बेन, मॉर्गन आदि ने इसका समर्थन किया है। परन्तु यह सिद्धान्तवाद “उत्तेजक-अनुकिया” सिद्धान्तवाद का ही अंग है। इसमें कुछ अन्य सिद्धान्तवाद का भी मेल पाया जाता है जैसा निम्न कथन से ज्ञात होता है-

“जब कोई व्यक्ति या पशु किसी नई परिस्थिति के साथ समायोजन करने के लिए विभिन्न स्वाभाविक अनुक्रियाएँ करता है जो प्रायः त्रुटिपूर्ण होती है, तो वह इस प्रकार के प्रयास करते-करते अचानक सफल अनुक्रिया का प्रयास कर लेता है और उसकी बार-बार आवृत्ति करने से धीरे-धीरे त्रुटि का निराकरण हो जाता है तथा आखिर में वह ठीक ढंग से कार्य करना सीख लेता है, ऐसे ढंग से कार्य करने की प्रक्रिया को अधिगम की प्रयास एवं त्रुटि विधि कहा जाता है तथा तत्सम्बन्धी सिद्धान्तवाद को प्रयास और त्रुटि का‌ सिद्धान्त ।”

इस कथन से उत्तेजक-अनुक्रिया सिद्धान्तवाद और गेस्टाल्ट सिद्धान्तवाद का मेल इसमें पाया जाता है। इसके अलावा वास्तव में यह तो एक विधि है जिससे अधिगम किया जाता है अतएव कुछ आलोचकों ने इसे अलग से सिद्धान्तवाद नहीं माना है बल्कि उत्तेजक अनुक्रिया सिद्धान्त के अन्तर्गत ही रखा है।

(ख) अनुकरण का सिद्धान्तवाद (Theory of Imitation)-  प्रो० मैकडूगल के अनुसार अनुकरण एक जन्मजात प्रवृत्ति है और पशु तथा मनुष्य सभी में पाई जाती है। अनुकरण प्रवृत्ति के कारण प्राणी दूसरों की क्रिया को स्वयं करने लगता है जिसमें वह अपनी बुद्धि एवं तर्क शक्ति का प्रयोग नहीं करता है। इस प्रकार अनुकरण भी एक प्रकार से “उत्तेजक-अनुक्रिया’ के फलस्वरूप होने वाली क्रिया है। शिक्षा के क्षेत्र में अनुकरण एक उपयोगी साधन है। शिशु, बालक, प्रौढ़ सभी अनुकरण से सीखते हैं। अध्यापक एवं अन्य लोगों को उपयुक्त वातावरण एवं सम्मान तथा आदर्श उपस्थित करना चाहिए। यदि ध्यान से देखा जाये तो स्पष्ट मालूम होता है कि अनुकरण का सिद्धान्तवाद अधिगम की एक विधि है जैसा कि हम आगे देखेंगे।

(ग) निरीक्षण और तर्क का सिद्धान्तवाद (Theory of Observation and Reasoning)-  निरीक्षण मनुष्य के द्वारा की जाने वाली एक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें वह अपनी परिस्थिति का सचेतन रूप से प्रत्यक्षण, विश्लेषण अनुवीक्षण करता है। यहाँ भी उत्तेजक-अनुक्रिया का सिद्धान्त पाया जाता है। तर्क निरीक्षण करते समय कारण- परिणाम का सम्बन्ध स्थापित करना होता है। यह भी एक सचेतन एवं सप्रयोजन मानसिक क्रिया है। निरीक्षण एवं तर्क के सिद्धान्तवाद में न तो अचानक समाधान प्राप्त होता है, न प्रयास और त्रुटि से और न अनुकरण से बल्कि इसमें वैज्ञानिक विश्लेषण-संश्लेषण की प्रक्रिया पाई जाती है। इस कारण प्रो० मेलोन ने इस सिद्धान्तवाद को युक्तियुक्त और बुद्धिपूर्ण (Rational and Intelligent) कहा है। परन्तु अधिकतर मनोविज्ञानी इसे सिद्धान्तवाद (Theory) न कहकर एक “विधि” (Method) ही कहते हैं। वस्तुतः यह एक वैज्ञानिक विधि है भी। प्रो० मेलोन ने भी इसे स्वीकार किया है। शिक्षा के विचार से यह सिद्धान्तकाय महत्वपूर्ण है विशेषकर मनुष्य के लिए। मनुष्य एक सचेतन एवं विवेकपूर्ण प्राणी होता है। अतएव निरीक्षण एवं तर्क करना उसकी एक अपनी विशेषता होती है। बालक के विकास के साथ उसकी निरीक्षण एवं तर्क शक्ति बढ़ती है और इस सिद्धान्तवाद का निर्माण भी होता है। अतएव यह सिद्धान्तवाद अधिक विकसित अवस्था में ही प्रयुक्त हो सकता है।

(घ) निषेधात्मक अनुकूलन का सिद्धान्तबाव (Theory of Negative Adaptation)-  इस सिद्धान्तवाद में “उत्तेजक-अनुक्रिया” का प्रयोग पाया जाता है। इस सिद्धान्तवाद के अनुसार व्यक्ति अपने आपको अपनी परिस्थिति के अनुकूल बना लेता है और अपने लिये लाभदायक उत्तेजक के प्रति अनुक्रिया करता है। मनोविज्ञानियों ने बताया है कि निषेधात्मक अनुकूलन उस समय पाया जाता है जब कि मनुष्य किसी उत्तेजक के प्रति अभ्यस्त हो जाता है और ऐसी दशा में यह निरर्थक अनुक्रियाओं से दूर रहता है तथा जो अनुक्रियाएँ उसके लिए लाभदायक होती हैं उन्हें वह सीख लेता है, अपना लेता है। इस सम्बन्ध में प्रो० ब्रूस ने लिखा है कि “निषेधात्मकता वास्तविकता से विनिवर्तन या दूर रहने का रूप है ।”और निषेधात्मकता निस्संदेह समायोजन के आधारभूत सिद्धान्तों को प्रदर्शित करने के लिये पर्याप्त होती है।”

अब स्पष्ट है कि निषेधात्मक सिद्धान्तवाद अनुक्रियाओं के चुनाव में पाया जाता है और जो क्रिया अधिक लाभदायक होती है व्यक्ति उसी को परिस्थिति से प्राप्त उत्तेजना के प्रति प्रकट करता है। उदाहरण के लिये कक्षा में कुछ लड़के बातचीत करते रहते हैं और अधिक लड़के अध्यापक की बात अनुदेश सुनते रहते हैं जो लड़कों की बातचीत से उत्तेजित नहीं होते हैं बल्कि अध्यापक के अनुदेश से उत्तेजित होते हैं और उसके अनुकूल प्रतिक्रिया भी करते हैं। यहीं निषेधात्मक अनुकूलन का सिद्धान्तवाद मिलता है क्योंकि अनुदेश की ओर प्रतिक्रिया करने वाले इसमें अपना लाभ देखते हैं और बातचीत को वे दूर रखते हैं। इस प्रकार की क्रियाएँ कक्षा में, घर में, अन्यत्र में भी होती रहती है। इससे व्यक्ति अनुभव ग्रहण करता है और सीखता है। इस निषेधात्मक अनुकूलन से पशु भी प्रभावित पाए जाते हैं। प्रायः सड़कों पर घूमने वाले पशु या घर में पालतू पशु विभिन्न उत्तेजकों के प्रति निषेधात्मक अनुकूलन कर लेते हैं। घर का कुत्ता परिचितों के आने-जाने पर नहीं भौंकता यह निषेधात्मक अनुकूलन का सिद्धान्त बताता है। अतएव दैनिक जीवन में हम इससे लाभ उठाते हैं और अधिगम की दृष्टि से यह सिद्धान्तवाद काफी महत्वपूर्ण पाया जाता है।

ऊपर के विवेचन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अधिगम के विभिन्न सिद्धान्तवाद विभिन्न विषयों के पढ़ाने में सहायता देते हैं। प्रो० एण्डरसन ने इन सिद्धान्तों का प्रयोग अंकगणित के पढ़ाने में किया। सम्बन्धवाद तथा क्षेत्र सिद्धान्तवाद का अनुप्रयोग करके यह सिद्ध किया है कि बालक प्रौढ़ की भाँति ही विषय की विभिन्न इकाइयों या कौशल के विभिन्न तत्वों को विश्लेषणात्मक से सीखता है जिससे जीवन में उनको दक्षतापूर्वक काम में लाता है। प्रो० एण्डरसन ने कहा है कि “विभिन्न सिद्धान्तवाद कक्षा अधिगम में विभिन्न व्यावहारिक अनुप्रयोग वाले होते हैं। इनके परिणाम भी सार्थक होते हैं।” इन सिद्धान्तवादों के सम्बन्ध में प्रो० मैककॉनेल ने भी कहा है कि “खोज से इस प्राक्कल्पना को शक्ति मिल सकती है कि कुछ निश्चित अधिगम सिद्धान्तवाद अकेले ही अपेक्षा परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं ।” (“…investigation may add strength to the hypothesis that certain learning theories are more complementary than mutually exclusive.”

-Prof. Mc-Connell).

शिक्षाशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!