शिक्षाशास्त्र

समूह गति विज्ञान | समूह के रूप में विद्यालय तथा कक्षा | विद्यालय और कक्षा समूह का महत्व | सामाजिक अन्तर्क्रिया

समूह गति विज्ञान | समूह के रूप में विद्यालय तथा कक्षा | विद्यालय और कक्षा समूह का महत्व | सामाजिक अन्तर्क्रिया

समूह गति विज्ञान

समूह का निर्माण व्यक्ति की अन्तःक्रिया और अन्तर्सम्बन्धों की गतिशीलता के परिणामस्वरूप होता है। एक व्यक्ति दूसरे से न मिले; अकेले में रहे तो निश्चय है कि कोई समूह न बन पावे। एक झुण्ड चाहे तो बन जावे जब बहुत से लोग एक स्थान पर एकत्र हो जावें परन्तु कोई क्रिया न करें। परन्तु यह स्वाभाविक नहीं है क्योंकि मनुष्य की दो विशेषताएँ है-क्रियाशीलता या गतिशीलता और चिन्तनशीलता (Activism or Dynamism and Rationalism)। इस विशेषता के कारण जो भी समूह बनता है उसमें व्यवस्थित चिन्तन एवं गतिशील होता है। इसी के कारण आज हमें गति विज्ञान (Group Dynamics) मिला है।

(अ) समूह गतिविज्ञान क्या है- समूह गतिविज्ञान एक व्यवस्थित अध्ययन है (Group dynamics is a systematized study)। इसमें हम समूह की गति (शक्ति Dynamics) का अध्ययन होता है। समूह गतिविज्ञान इस सन्दर्भ में समाज के लोगों, उनकी संस्थाओं और संस्थाओं के अंगों की शक्तियों का अध्ययन करता है। इसके सम्बन्ध में प्रो० ट्रो ने लिखा है कि समूह गतिविज्ञान वह वैज्ञानिक अध्ययन है जो समूह सम्बन्धों में व्यक्ति के व्यवहार और विभिन्न आन्तरिक एवं वाह्य दशाओं के अन्तर्गत समूह प्रक्रियाओं का कभी कभी उनकी प्रभावकारिता को बढ़ाने के विचार से अध्ययन करता है।

उपर्युक्त कयन से स्पष्ट है कि समूह गतिविज्ञान व्यस्थित रूप से यह जानने की कोशिश करता है कि व्यक्ति ने किस आधार पर समूह बनाया और किन शक्तियों ने इस समूह के निर्माण में योगदान दिया जिससे कि व्यक्तियों ने परस्पर सम्बन्धों को बनाया और विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को मिल-जुल कर पूरा किया। प्रो० माथुर ने लिखा है कि “समूह गतिविज्ञान उन शक्तियाओं का ज्ञान देता है जो एक समूह में सक्रिय होती है। उन शक्तियों का अध्ययन समूह गतिविज्ञान के अन्वेषण का विषय होता है।” यह अन्वेषण उस दिशा में होता है जिससे यह मालूम हो जाय कि व्यवहार के लिये अभिप्रेरक शक्तियाँ कहाँ से आयीं, कैसे सक्रिय हुई और क्या परिणाम रहा, साथ ही साथ इन शक्तियों में क्या कोई संपरिवर्तन (Modification) किया जा सकता है। अब स्पष्ट है कि समूह गतिविज्ञान समूह व्यवहार के पीछे पाई जाने वाली शक्तियों को विधिवत् अध्ययन होता है।

प्रो० उदय पारीख ने समूह गतिविज्ञान को एक ऐसा विज्ञान बताया है जो व्यक्ति की एक समूह के सदस्य के रूप में अन्तक्रियात्मक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करता है।

आगे उन्होंने लिखा है कि बालक को और अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है यदि हम उस समूह की संरचना और प्रक्रिया की संचालन शक्तियों को समझ लेत है जिसमें वह रहता है और काम करता है।

(ख) समूह गतिविज्ञान और समूह मनोविज्ञान- समूह गतिविज्ञान और समूह मनोविज्ञान में क्या अन्तर है? इसे भी हमें जान लेना चाहिये। समूह गतिविज्ञान में समूह की शक्तियों का वैज्ञानिक अध्ययन होता है न कि समूह के व्यवहार का। समूह मनोविज्ञान उस मन का वैज्ञानिक होता है जो सामाजिक समूहों के सदस्यों में पाया जाता है। वास्तव में समूह मनोविज्ञान समूह के सदस्याओं द्वारा किये गये सामूहिक व्यवहार का विश्लेषण करता है। इस सम्बन्ध में प्रो० ली-बॉन ने लिखा है कि “जब मानव प्राणी एक समूह में बदल दिये जाते हैं तो, इससे उनके पास एक समूह मन हो जाता है जो उन्हें जब वे अकेले की स्थिति में ये उससे बिल्कुल भिन्न तरीके से अनुभव करने, सोचने और कार्य करने को बाध्य करता है।”

समूह मनोविज्ञान इस प्रकार व्यक्तियों के सामूहिक भाव, क्रिया एवं विचार सम्बन्धी व्यवहार के बारे ज्ञान देता है। इससे भी आगे समूह गतिविज्ञान उन शक्तियों का ज्ञान कराता है जो समूह-व्यवहार को प्रेरित करने वाले संगठनों को क्रियाशील बनाती हैं। इस प्रकार समूह की संरचना एवं उसकी गतिशीलता से सम्बन्धित शक्ति का वैज्ञनिक ढंग से अध्ययन समूह गतिविज्ञान का विषय होता है, उसकी क्रियाशीलता पर इसका ध्यान होता है। समूह मनोविज्ञान ऐसी दशा में समूह गति-विज्ञान से भिन्न एक विज्ञान है। दोनों विज्ञानों का सम्बन्ध मानव, उसके व्यवहार एवं उसके द्वारा संस्थाओं से होता है। ऐसी दशा में दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और एक के अध्ययन में दूसरे की आवश्यकता पड़ती है।

समूह के रूप में विद्यालय तथा कक्षा

मनुष्य अन्य मनुष्य के सहयोग से समूह का निर्माण करता है। इस प्रकार के संगठन की अपनी एक प्रक्रिया होती है जिसमें समूह के सदस्य भाग लेते हैं। शिक्षा भी एक प्रकार की सामूहिक प्रक्रिया है जिसमें शिक्षार्थी, शिक्षक, प्रबन्धक, प्रशासक और अभिभावक सभी अपना योगदान करते हैं चाहे प्रत्यक्ष रूप में हो अथवा अप्रत्यक्ष रूप में हो, चाहे सक्रिय रूप में हो अथवा निष्क्रिय रूप में हो। समूह की प्रक्रिया पर विचार करने से हमें कुछ विशिष्ट तथ्य मालूम होते हैं। ये तथ्य इस प्रकार हैं-

(क) समूह का निर्माण और समूह की क्रिया सार्थक और सोद्देश्य हो।

(ख) समूह प्रक्रिया के लिए दो इकाइयाँ अवश्य हों जिससे परस्पर अन्तक्रिया हो।

(ग) समूह की प्रक्रिया कालक्रमानुसार हो जिससे उसका लाभ क्रिया करने वाले उठा सकें।

(घ) समूह की प्रक्रिया गतिशील हो, उद्देश्योन्मुख हो।

(ङ) समूह की प्रक्रिया समूह का विकास करने में समर्थ हो।

(च) समूह के सदस्यों को आवश्यकतानुसार महत्व दिया जावे; समूह में किसने क्या कार्य किया यह ज्ञात रहना चाहिये।

(छ) समूह की प्रक्रिया में भाग लेने वालों की संवेगात्मक स्थिति, चिन्तनशीलता, क्रियाशीलता, कार्य विधि आदि की ओर ध्यान देना जरूरी है।

(ज) जो भी परिणाम समूह के द्वारा प्राप्त हो उनका तुलनात्मक विश्लेषण किया जावे और मूत्यांकन पर दृष्टि रखी जावे।

यहाँ पर हम विद्यालय एवं कक्षा को समूह के रूप में अध्ययन करने का प्रयास करेंगे। विद्यालय एक ऐसा उद्देश्यपूर्ण समूह है जिसमें कई अन्य छोटे-छोटे समूह सम्मिलित पाये जाते हैं। यह एक समूह है और बड़ा समूह है, बालकों या छात्रों का जिनका सम्बन्ध विभिन्न स्थानों, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्तरों, विभिन्न आयु, योग्यता से होता है। विद्यालय के समूह में विभिन्न प्रकृति एवं पर्यावरण के लोग शिक्षा पाने के सामान्य उद्देश्य से एकत्र होते हैं। दूसरा समूह अध्यापकों का होता है, यह भी विभिन्न पर्यावरण, आयु, योग्यता वालों का समूह होता है। तीसरा समूह प्रधानाध्यापक, प्रशासक एवं प्रबन्धक का होता है, चौथा समूह क्लर्क, पुस्तकालय कर्मचारियों एवं सेवक-वर्ग के लोगों का होता है; और सभी समूहों के सदस्य आपस में सीधे सम्बन्ध रखते हैं, या यों कहें कि अन्तर्क्रिया करते हैं जिसके फलस्वरूप विद्यालय एक पूर्ण समूह के रूप में गतिशील होता है और प्रगति एवं विकास करता है। विद्यालय जैसे समूह के द्वारा शैक्षिक एवं शिक्षा के अतिरिक्त अन्य क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं जिनका प्रभाव विद्यालय के छात्र, अध्यापक, प्रशासक और कर्मचारियों पर पड़ता है। ऐसी दशा में सबको मिलकर एक ऐसा पर्यावरण या यों कहें कि संचालन तैयार करनी चाहिए कि प्रत्येक में सामूहिक हित की भावना गतिशील हो, विकसित हो। भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक पर्यावरण विद्यालय में अच्छे ढंग का बनाया जावे। इसके लिये सभी कार्यकर्ताओं का सामूहिक योगदान होता है। इसके लिये क्या किया जावे यह भी विचारणीय है-

(i) शिक्षा देने के लिए योग्य एवं स्वस्थ अध्यापक रखे जावें।

(ii) शिक्षा के सभी साधन एवं सामग्री आसानी से उपलब्ध हों।

(iii) खेल-कूद, व्यायाम, मनोरंजन की सुव्यवस्था हो और नित्य इसकी क्रियाएँ हों।

(iv) सांस्कृतिक कार्यक्रम, भ्रमण, अन्वेषण-निरीक्षण की क्रियाएँ हों।

(v) सामाजिक एवं राजनैतिक दिवस, उत्सव, आयोजन हों।

(vi) सभी प्रकार की योग्यताओं के विकास के लिये सभी प्रयल किये जावें और अध्यापक तथा अन्य लोग अपनी भूमिका का निर्वहन करें।

(vii) व्यावसायिक क्रियाशीलता भी सम्भव एवं साध्यरूप में कराए जावें। (कोठारी कमीशन के द्वारा प्रत्येक विद्यालय कार्य-अनुभव की सुविधा देवे, यह संस्तुति की गई है।)

(viii) छात्रों को कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के छोटे-छोटे समूह बनाकर छात्रों को गत्यात्मक बनाया जावे। स्वतन्त्रता का दुरुपयोग न होने पावे यह विद्यालय के अधिकारियों को देखना चाहिये ।

(xi) व्यक्तिगत पसन्द के आधार पर छात्रों के द्वारा समूहों की रचना के लिए और उनके माध्यम से गतिशील होने के लिए प्रोत्साहन दिया जावे।

(x) पियर ग्रूप (Pear Group) और नेतृत्व के लिए कार्य एवं उत्तरदायित्व दिये जावें । अध्यापक द्वारा निर्देशन देने की पूरी व्यवस्था की जावे । यदि यह सब विद्यालय में होता है तो निश्चय ही वह एक समूह के रूप में क्रियाशील बनता है।

कक्षा विद्यालय की तुलना में छोटा एक समूह है। कई कक्षाएँ एक विद्यालय होती हैं। कक्षा में प्रायः छोटी या बड़ी संख्या में छात्र होते हैं (20 से लेकर 150-200 तक)। विद्यालय की अपेक्षा कक्षा अधिक शान्त, स्थिर, मानसिक रूप से गतिशील समूह होता है। विद्यालय के नियम कक्षा के समूह को बाँधे रहते हैं जैसे समयसारिणी के द्वारा, विषयों के क्रमबद्ध अध्ययन के द्वारा, कक्षा के नियमित कार्य के द्वारा। एक कक्षा में एक सामान्य औसत की आयु वाले लोग होते हैं, इनकी योग्यताएँ भिन्न होती हैं फिर भी एक समरूपता पाई जाती है। इससे सभी क्रिया सन्तुलित होती है। कक्षा की संरचना में क्षैतिज एवं लम्बरूप सम्बन्ध पाया जाता है। कक्षा में अध्यापक एवं छात्र के बीच, कक्षानायक एवं छात्र के बीच या छात्रों के बीच अन्तःक्रियाएँ होती हैं इसके फलस्वरूप सभी छात्रों का उनकी समता के अनुकूल विकास एवं प्रगति होती है।

कक्षा में होने वाली क्रियाएँ कई हैं-

(i) पठन-पाठन की क्रिया जिससे ज्ञान-प्राप्ति का सामान्य उद्देश्य प्राप्त होता है।

(ii) निर्देशन की क्रिया जो अध्यापक द्वारा होती है और इससे भी लक्ष्य प्राप्त होता

(iii) मूल्यांकन की क्रिया जिससे लक्ष्य प्राप्त करने में अभिप्रेरणा दिया जाता है।

(iv) नेतृत्व की क्रिया जिससे व्यक्ति विशेष की योग्यता को मान्यता प्रदान की जाती है।

(v) कार्य के अभ्यास की क्रिया जिससे ज्ञान स्थायी बनाया जाता है और जीवन में लाभ उठाया जा सकता है।

(vi) सुधार एवं परिमार्जन की क्रिया जिससे अधिक सफलता मिल सके।

(vii) सम्पर्क स्थापित करने की क्रिया जिससे पर्यावरण, समाज, व्यक्ति, अध्यापक के साथ परिचय बढ़ाया जाता है।

(viii) सहपाठ्यक्रमीय क्रियाएँ जिससे शिक्षण एवं जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न होता है।

(ix) उद्देश्य निर्धारण एवं वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास सम्बन्धी प्रयल जो अध्यापक के द्वारा पूरी की जाती है।

कक्षा की प्रमुख क्रिया अधिगम सम्बन्धी होती है। अधिगम की क्रिया पर कक्षा का वातावरण अपना प्रभाव डालता है। वातावरण विद्यार्थी एवं अध्यापक के सम्पर्क पर निर्भर करता है। विद्यार्थी सदुद्देश्य एवं सद्भाव से क्रियाशील हों तो अच्छा वातावरण रहता है। अध्यापक प्रशिक्षित हो, छात्रों को अभिप्रेरित करने वाला, क्रियाशील बनाने वाला तथा समस्या हल में सहयोग देने वाला हो तो वातावरण अधिगम के लिये उत्तम हो जाता है। विद्यार्थी एवं अध्यापक मिलकर समूह में कार्य करें जिससे छात्र की अभिक्षमताओं, योग्यताओं, विचारों और भावनाओं का समुचित विकास हो। यही उद्देश्य कक्षा की संरचना एवं क्रियाशीलता का होता है।

कक्षा समूह की भूमिका- कक्षा में प्रमुखता छात्र-समूह को मिलती है जो सदस्यों की शक्ति, क्षमता, योग्यता, प्रयलशीलता आदि पर निर्भर होती है। जितनी अधिक मात्रा में वे इनका प्रयोग करते हैं उतना ही अधिक अधिगम सम्भव होता है। इस विचार से कक्षा समूह को विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है।

(i) कक्षा के छात्र एक दूसरे से अभिप्रेरित होते हैं और अपनी उपलब्धियों से प्राप्त करते हैं। इस दृष्टि से कक्षा-समूह अपने सदस्यों को शक्ति प्रदान करता है।

(ii) कक्षा-समूह सदस्यों को क्रियाशील बनाए रखता है। कक्षा के सदस्य अधिगम के लिए तत्पर होते हैं जिसमें अध्यापक सहायता और निर्देशन देता है।

(iii) कक्षा-समूह की संरचना कुछ समस्याओं के समाधान के लिए होती है। अतः उसके सदस्य अपने विचार, मत, सुझाव प्रकट करते हैं और सब लोग मिलकर एक साथ समस्या का समाधान ढूँढ़ते हैं और करते हैं।

(iv) कक्षा-समूह सदस्यों को प्रशिक्षित करता भी है और वहाँ से प्रशिक्षित होकर सदस्य अपने जीवन के लिये तैयार होता है। अतएव कक्षा समूह जीवन के अभियान का साधन बनता है।

(v) कक्षा समूह सदस्यों को विभिन्न विषयों की सूचना प्रदान करता है और इन्हें अभिव्यक्ति करने का अवसर देता है। अध्यापक का सहयोग अति वांछनीय होता है।

(vi) कक्षा-समूह के सदस्य परस्पर सूचना को प्रस्तुत करते हैं जिससे कि उन्हें सफलता मिले।

(vii) किस सदस्य ने कितना ज्ञान-सूचना ग्रहण किया या कर सकता है इसको प्रतिस्पर्धा एवं प्रेरणा कक्षा-समूह देता है तभी तो कोई प्रथम कोई द्वितीय और कोई तृतीय स्थान पाता है।

(viii) कक्षा-समूह अपने सदस्यों को प्रत्येक समस्या के समाधान का तर्कयुक्त विश्लेषण, सूचनाओं का विस्तार एवं प्रकाशन करने का पूरा-पूरा अवसर देता है। ऐसी दशा में कक्षा-समूह सदस्यों की शक्तियों का प्रसारण करता है।

(ix) कक्षा-समूह सदस्यों की क्रियाओं का मूल्यांकन करता है। इस प्रकार किसी भी समस्या की प्राक्कल्पना की जाँच भी हो जाती है और अन्तिम निर्णय लिया जाता है।

(x) कक्षा एक प्रकार से अधिगम की सभी प्रक्रियाओं प्रत्यक्षण, स्मरण, कल्पना, चिन्तन, तर्क, निर्णय, सबका विकास करती है और समूह के सदस्यों से इनका प्रयोग करना ही पड़ता है अन्यथा कक्षा एवं अधिगम का कोई मूल्य नहीं रहता है। यह भूमिका कक्षा की सबसे महान् पाई जाती है।

विद्यालय और कक्षा समूह का महत्व

विद्यालय और कक्षा एक समूह के रूप में गतिमान साधन होते हैं। इनके द्वारा शिक्षा की क्रिया पूरी की जाती है और ये अधिगम के अभिकरण हैं। व्यक्ति के सभी व्यवहार यहाँ होते हैं और समूह के सदस्य व्यक्ति को सीखने में सहायता करते हैं, इसे समझने और समझाने की भूमिका विद्यालय एवं कक्षा की होती समूह के प्रभावस्वरूप व्यक्ति अपनी परिस्थिति के अनुकूल प्रतिक्रिया करता है और इसका परिणाम व्यक्ति का निजी तथा सामूहिक विकास, परिवर्द्धन एवं परिमार्जन होता है। ऐसी दशा में शिक्षा की प्रक्रिया गत्यात्मक, विकासशील एवं संवर्द्धनशील होती है और उसमें विद्यालय तथा कक्षा का समूह रूप में योगदान होता है। इस सम्बन्ध में प्रो० डार्विन और एलविन का संकेत हमें नहीं मिलता है। इन्होंने लिखा है कि “समूह गतिशीलता के रूप में वैयक्तिक और सामूहिक जीवन के अनेक तथ्यों को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। इस विचार दृष्टि से अधिगम व्यक्ति और परिस्थिति के बीच होने वाली स्थिर प्रक्रिया नहीं है। समूह की  परिस्थिति में अधिगम का विकास किया जा सकता है।”

विद्यालय एवं कक्षा एक समूह के रूप में बालक को व्यवहार करने के ढंग सिखाते हैं। “किस प्रकार बालक समूह व्यवहार करना सीखता है चाहे उसे मान्यता मिले या न मिले, चाहे उसका समूह जीवन सीमित हो या स्वतत्र हो, सभी उसके व्यक्तित्व निर्माण में सहायता देते हैं।”

प्रत्येक बालक कक्षा में अपनी भूमिका को समझता है, प्राप्त करता है और पूरी तरह निर्वाह करता है। इस प्रकार वह भावी जीवन के लिये शास्त्रीय एवं व्यावहारिक अधिगम (Academic and Practical Learning) ग्रहण करता है। अतएव इस दृष्टि से विद्यालय और कक्षा का समूह रूप में महत्त्व पाया जाता है।

प्रो० ब्रीमैन ने बताया है कि जब बालक अपना घर और समुदाय छोड़ कर विद्यालय और कक्षा के समूह का सदस्य बनता है तो यह उत्तरदायित्व विद्यालय एवं कक्षा का होता है कि वह उसे समाज जीवन में भाग लेने वाला सक्रिय व्यक्ति बनाये। कक्षा में समूह के साथ बालक अपने समूह के नियम प्रतिबन्ध के प्रति समानुकूलित करता है, वह वाद- विवाद, कार्य-विवेचन, निर्णय आदि में भाग लेता है, दूसरों को कार्य सम्पादन में सहायता एवं सहयोग देता है। इस प्रकार से विद्यालय एवं कक्षा जीवन की प्रयोगशाला बन जाती है जैसा कि डीवी का भी विचार है। यहाँ बालक जनतांत्रिक जीवन की सहयोगी क्रिया- विधियों का अभ्यास करते हैं और व्यक्तित्व निर्माण करने वाले नेतृत्व के अनुभव प्राप्त करते हैं।

विद्यालय एवं शिक्षा के समूह में बालक एवं किशोर सभी उत्साहपूर्वक क्रिया करते हैं परन्तु वे आत्म-नियन्त्रण के अन्तर्गत ही ऐसा करते हैं। जब छात्र विद्यालय या कक्षा में नया-नया आता है तो उसे स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्व के बीच सामंजस्य लाना पड़ता है। ऐसा अभ्यास कर लेने पर ही वह समूह का सदस्य बन सकता है। इसके लिये आत्म- विश्वास की भी आवश्यकता पड़ती है। संकल्प के आधार पर समूह की सदस्यता मिलती है। हरेक समूह की अपनी संस्कृति पाई जाती है जो कक्षा के स्तर पर या विद्यालय के स्तर पर बनती है। किसी भी विद्यालय में जूनियर कक्षा के लोग हाई स्कूल या इन्टर कक्षा के लोगों से भिन्न संस्कृति रखते हैं, उनके ज्ञान, मूल्य, आचरण, प्रभाव, कार्य सभी स्तर के होते हैं। इसी प्रकार विश्वविद्यालय एवं डिग्री कालेज के सदस्यों (छात्रों एवं अध्यापकों दोनों) की अलग-अलग संस्कृति पाई जाती है। गाँव के डिग्री कालेज विश्वविद्यालय की अपेक्षा कितने पीछे होते हैं यह पाठक स्वयं समझ लेते हैं। दोनों के सदस्यों का दृष्टिकोण ही अलग-अलग हो जाता है। शहर के डिग्री कालेजों में भी परस्पर सांस्कृतिक अन्तर पाया जाता है। एक कालेज टूटे-फूटे, अविकसित प्रांगण में चलता है जहाँ विद्यार्थी एवं अध्यापकों के बैठने, पढ़ाने के लिये अच्छा, साफ-सुथरा, शान्त एवं एकान्त स्थान नहीं है वहाँ के छात्र एवं अध्यापक दोनों ज्ञान, अभिवृत्ति, मूल्य एवं भावात्मकता में उस कालेज के लोगों से कहीं पिछड़े पाये जाते हैं। जहाँ पर सभी साधन, सुविधा, विस्तार सरलतया प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट है कि विद्यालय एवं कक्षा-समूह किस प्रकार सदस्यों का निर्माण करने में महत्वपूर्ण होता है।

सामाजिक अन्तर्क्रिया

किसी भी समस्या के सामने उपस्थित होने पर जब व्यक्ति उसके समाधान का प्रयत्न करता है तो वह व्यक्तिगत क्रिया होती है। परन्तु जब व्यक्ति किसी समूह का सदस्य हो जाता है तो व्यक्ति अकेले नहीं बल्कि समूह में मिलकर समस्या के समाधान के लिये क्रिया करता है, फिर भी एक और व्यक्ति का अपना प्रयल होता है और दूसरी ओर समूह का प्रयत्न होता है और दोनों जहाँ मिलकर कार्य करते है वह सामाजिक या सामूहिक अन्तर्किया होती है। अन्तर्किया का अर्थ है दो के बीच में होने वाली क्रिया जिसमें एक दूसरे की क्रिया का कारण बनता है। अतएव सामाजिक अन्तक्रिया उसे कहते हैं जहाँ व्यक्ति और समूह के बीच परस्पर कारण रूप में किया को पूरा करते हैं। इस सम्बन्ध में प्रो० रुश ने लिखा है- “समूह और व्यक्ति अकेले काम करते हुए अपने निष्पादन में समस्या समाधान के कार्यों पर तुलना किये गये हैं जहाँ एक संयुक्त प्रयत्न में अपने कौशलों को संचय करने का अवसर समूह की परिस्थिति का महत्वपूर्ण लक्षण सदस्यों के बीच होने वाली क्रिया को बना देता है।”

इससे स्पष्ट है कि सामाजिक अन्तक्रिया किसी भी समस्या के समाधान के लिए समूह के सभी सदस्यों का मिला-जुला प्रयत्न है जिसमें व्यक्ति का समूह पर और समूह का व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है।

सामाजिक अन्तक्रिया में हमें कक्षा की क्रिया को ले सकते हैं। अध्यापक किसी एक छात्र से पूछता है : अपने देश में प्रधान मन्त्री कौन है ?. एक छात्र अकेले उत्तर देने में असमर्थ है तो दूसरा उसकी सहायता के लिये तैयार होता है और झट उत्तर देता है: इन्दिरा गांधी । यहाँ पर सामूहिक अन्तक्रिया होती है।

इसी प्रकार एक ‘प्रोजेक्ट’ किसी कक्षा के छात्रों को दिया गया, उदाहरण के लिये शेक्सपियर द्वारा लिखित “आल इज वेल’ नाटक का अभिनय । अब सभी छात्र अभिनय की तैयारी में मिल-जुल कर काम करते हैं-कुछ एक को विभिन्न पात्रों का पार्ट दे दिया जाता है, कुछ को मंच बनाने का काम, कुछ को श्रोतादर्शक के बैठने का प्रबन्ध दे दिया जाता है। इस प्रकार सभी सहयोगी कार्य से अभिनय करना संभव होता है। यहाँ भी सामाजिक अन्तर्क्रिया पाई जाती है।

सामाजिक अन्तक्रिया का सम्पादन करने में व्यक्ति की भूमिका दो रूप में होती है एक तो नायक या नेता के रूप में और दूसरे अनुगामी के रूप में। नेता के रूप में कक्षा में अध्यापक होता है अथवा उसकी अनुपस्थितियों में कक्षानायक होता है। कभी-कभी कोई प्रखर-बुद्धि वाला छात्र भी इस पर आ जाता है। शेष कक्षा अनुकर्ता या अनुगामी होता है जिसे नायक के आदेश, सुझाव और इशारों को मानना जरूरी होता है। पूरे विद्यालय में आजकल छात्र संघ या परिषद् बने हैं और उसका अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा पदाधिकारी वर्ग नेतृत्व करता है। अध्यापक समूह में प्रधानाचार्य इस प्रकार का नेतृत्व करता है जिसे आदेशों का पालन अन्य सहायक अध्यापक करते हैं। अतएव इन सबके बीच होने वाली क्रिया को सामाजिक अन्तर्क्रिया ही कहेंगे।

इस प्रकार की सामाजिक अन्तक्रिया प्रत्येक परिवार, समुदाय और समूह में पाई जाती है और परिस्थितिवश यह क्रिया होना स्वाभाविक भी है अन्यथा समाज और समूह की कल्पना कठिन है। सामाजिक अन्तक्रिया बड़े और छोटे, छोटे और छोटे समूह के सदस्यों के बीच भी हुआ करती है। उदाहरण के लिये अन्तर्विद्यालय अन्तर्कक्षा, अन्तर्राज्यीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्रियाएँ हैं।

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Pankaja Singh

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