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संथाल जनजाति | संथाल जनजाति के आर्थिक तथा सामाजिक संगठन का वर्णन | भारत में संथाल प्रजाति किन क्षेत्रों में पायी जाती है

संथाल जनजाति | संथाल जनजाति के आर्थिक तथा सामाजिक संगठन का वर्णन | भारत में संथाल प्रजाति किन क्षेत्रों में पायी जाती है

संथाल जनजाति

निवास क्षेत्र-

भारत की आदिवासी जनजातियों में संख्या की दृष्टि से संथाल आदिवासी सबसे बड़ी जनजाति है। इसकी संख्या 30 लाख के लगभग पायी जाती है। इस जनजाति का प्रमुख प्रदेश बिहार है। छोटा नागपुर के पठारी भाग में, राँची, पालामाऊ और हजारीबाग जिलों में विशेष रूप से पाये जाते हैं। बंगाल में वीरभूमि तथा उड़ीसा में कटक के सीमावर्ती क्षेत्र में भी इनका निवास है। वर्तमान समय में संथाली लोग असम के चाय के बगीचों में, बंगाल में सूती वस्त्रों की मिलों तथा जूट मिलों में मजदूरी का कार्य काने लगे हैं।

प्राकृतिक पर्यावरण-

संथालों के मूल निवास स्थल का प्राकृतिक पर्यावरण वन प्रदेशों युक्त असमान धरातल वाला है। यहाँ की जलवायु उष्ण कटिबंधीय मानसूनी है। ग्रीष्मकाल में तापमान 400 सेन्टीग्रेड से 450 सेन्टीग्रेड तक होता है। शीतकाल में वर्षा की मात्रा न्यून है। जो 10 सेन्टीमीटर तक रहती है। उसी पर्यावरण में संथाली अपना आदिम जनजीवन व्यतीत करते हैं।

शारीरिक रचना-

इनकी शारीरिक रचना द्राविड़ लोगों के समान ही पायी जाती है। त्वचा का रंग गहरा भूरा व काला, केशों की अधिकता तथा सीधे केश, नाम लम्बी तथा उठी हुई, मुँह अपेक्षाकृत चौड़ा व फैला हुआ, होंठ पतले तथा उभरे हुए तथा कद छोटा होता है।

आर्थिक व्यवसाय-

संथाल लोगों का जीपनयापन मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर रहता है। ये लोग कृषि द्वारा चावल, मक्का तथा मोटे अनाजों को उत्पन्न करते हैं। भिन्न-भिन्न फसलों को बोने के लिए भिन्न-भिन्न ढंग प्रयोग में लाये जाते हैं। चावल प्रायः क्यारियाँ बनाकर बोया जाता. है। पौधे को स्थानान्तरण कर धान को लगाया जाता है। ज्वार, बाजरा को बिखेर कर बोया जाता है। मक्का को खड्डों में वोया जाता है, जिसमें हर एक दाने को अलग-अलग दबाया जाता है। दाना बोने वाला व्यक्ति हल चलाने वाले व्यक्ति के साथ-साथ चलता है। अन्य अनाज व दूसरी फसलें सामान्यतया बिखेर कर ही चोयी जाती हैं।

यद्यपि संथाल वनों को साफ कर कृषि करने वाली आदिवासी जनजातियों में सबसे आगे हैं और इनके कृषि ढंग से अधिक व्यवस्थित है, तो भी सभ्य समाज के लोगों से बहुत पीछे हैं। इन लोगों में अभी तक सिंचाई, खाद व फसलों के हेर-फेर की प्रथा नहीं है। इस कारण कृषि उपज बहुत कम पायी जाती है।

वर्तमान समय में संथाल आदिवासी आखेट की भाँति वन्य वस्तुओं के संग्रहण पर भी निर्भर रहने लगे हैं। पहाड़ों क्षेत्रों के आदिवासी संथाल अपने कृषि कार्य से मुक्त होने पर वनों से कन्दमूल, फल, गांद, लाख, शहद आदि एकत्र कर लाते हैं।

संथाल आदिवासी अब मजदूरी करने लगे हैं। बिहार, बंगाल तथा असम के क्षेत्रों में इनका कार्य मजदूरी करना ही है। खानों तथा कारखानों में या चाय के बगीचों में स्त्री-पुरुष मजदूरी करते पाये जाने लगे हैं। विहार में अभ्रक, लोहा तथा कोयले की खानों में संथाल मजदूर अधिक मिलते हैं। अब इनकी संख्या घट गई है, क्योंकि ये लोग स्थानान्तरित होकर असम के चाय के बगीचों में मजदूरी करने चले गये हैं तथा कुछ संथाल बंगाल की कपड़ा व जूट मिलों में मजदूरी हेतु स्थानान्तरित हो गये हैं।

संथाल लोग टोकरियाँ बनाने की कला में भी दक्ष होते हैं। आज भी कुछ संथाल आदिवासी इस कुटीर उद्योग द्वारा अपना जीवनयापन करते हैं। इस जनजाति में शिक्षा के प्रचार- प्रसार के कारण लोग शिक्षित होने लगे हैं तथा कुछ संथाल विभिन्न सेवाओं में भी आने लगे हैं। अधिकांश संथाल अब भी अपने पौराणिक व्यवसायों में लगे होने के कारण पिछड़ी अवस्था में ही पाये जाते हैं।

भोजन-

संथाल लोग प्राकृतिक पर्यावरण से प्राप्त वस्तुओं का उपयोग करते हैं। इनके भोजन में चावल, ज्वार, बाजरा व मक्का का स्थान प्रमुख है। आखेट से प्राप्त पशु को ये लोग अपने भोजन का अंग बनाते हैं। माँस व मछली का सेवन प्रायः सभी संथाल करते हैं।

भाषा-

संथाल लोग मुण्डा भाषा बोलते हैं। यह आस्ट्रिक भाषा का एक उपवर्ग आस्ट्रो- एशियाटिक है। इसके अतिरिक्त संथाल बंगाली, बिहारी व असमी भाषाएँ भी आवश्यकतानुसार बोलते हैं। मूल भाषा मुण्डा है जो आदिम मूल क्षेत्रों में ही बोली जाती है। असम, बिहार व बंगाल के सभ्य समाज से सम्पर्क होने के कारण इन्हें इन भाषाओं को सीखना पड़ा है।

सामाजिक व्यवस्था-

संथाल लोगों के प्रकृति पर विशेष निर्भर रहने से इनसे अन्य आदिम जातियों की भाँति सामाजिक ढंगों में प्रकृति पर निर्भरता विशेष ही पायी जाती है। ये लोग समूह में ग्राम बनाकर निवास करते हैं तथा परिवार के मुखिया के अनुरूप ही अपना कार्य करते हैं।

संथाल जनजाति में विवाह के कई ढंग प्रचलित है जिसके आधार पर हम विवाह प्रथा को चार भागों में विभाजित करते हैं-

  1. नीटबोलोक- विवाह से पूर्व प्रेम सम्बन्ध होने पर युवक व युवती वन में भाग जाते हैं तथा वहाँ कुछ दिन रहने के बाद लौट आते हैं। इनकी वापसी पर घर वाले “हण्डिया” (मझिरा) पिलाते हैं। इसके बाद दोनों पति-पत्नी की भाँति रहने लगते हैं।
  2. बापला या किरिग बीहू- इसमें परिवार वाले लड़कों को खरीदते हैं। कभी-कभी विवाह से पूर्व यदि लड़की गर्भवती हो जाती है और गोत्र नहीं मिलती है तो संथाल लोग पंचायत करके लड़की के पिता से चावल लेकर प्रेमी युवक के साथ विवाह कर देते हैं।
  3. इतूट- इस विवाह प्रथा में युवक जिस युवती से विवाह करना चाहता है, उसका हाथ रंग देता है। यदि लड़की तैयार हो जाती है तो सामान्य विवाह कर दिया जाता है, किन्तु तैयार न होने की अवस्था में लड़की का अपहरण कर विवाह कर लेते हैं।
  4. सेया- इसमें विधवा स्त्री विधुर पुरुष से विवाह करने की प्रथा है।

संथाल लोगों की सामाजिक व्यवस्था विकसित है। दनमें प्रादेशिक संगठन पाया जाता है। गाँव में मुखिया को सामाजिक दृष्टि से सम्मानजनक माना जाता है तथा उसे राजनैतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। गाँव के सभी लोग उसके अधिकार में रहते हैं। बड़े ग्रामों में पंचायत रहती है जिसे सभी अधिकार प्राप्त होते हैं, परन्तु गाँव का मुखिया राजनैतिक दृष्टि से सबल रहता है।

संथाल लोगों का मुख्य त्यौहार “सोहराई” नाम से पुकारा जाता है, यह नवम्बर-दिसम्बर या पौष माह में आता है। इस समय धान की फसल काट ली जाती है। इस त्यौहार पर भेड़- बकरी या मुर्गी की बलि दी जाती है तथा त्यौहार को मानाया जाता है। दूसरा त्यौहार बसन्त ऋतु के प्रारम्भ में मनाया जाता है। इस समय नृत्य, गाने-बजाने के साथ पूजा की जाती है। इस त्यौहार को “बाहर पूजा” कहा जाता है। इस समय साल के वृक्षों पर पल्ल्व आने लगते हैं।

संथाल जनजाति की संख्या यद्यपि सर्वाधिक हैं, किन्तु अब यह भौतिक रूप को छोड़ सभ्य समाज के सम्पर्क में आने लगी है जिससे यह जनजाति मजदूरी के व्यवसाय द्वारा अपना जीवनयापन करने में व्यस्त है। इसका मूल क्षेत्र धीरे-धीरे संथालों में कमी कर रहा है। ये लोग अब बंगाल, बिहार व असम के नगरीय क्षेत्रों में जाकर बसने लगे हैं। कुछ संथाल शिक्षित होकर सेवाओं के कार्य में भी लग गये हैं।

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Pankaja Singh

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