भूगोल

ग्लोबल वार्मिंग | वैश्विक तुफान के कारणो, परिणामों एवं उपचारात्मक उपाय

ग्लोबल वार्मिंग | वैश्विक तुफान के कारणो, परिणामों एवं उपचारात्मक उपाय | Global Warming in Hindi | Causes, consequences and remedial measures of global storm in Hindi

ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming)

‘पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसके कारण मौसम में होने वाले परिवर्तन’ पृथ्वी के तापमान में हो रही इस वृद्धि (जिसे 100 सालो के औसत तापमान पर 1° फारेनहाईट ऑका गया है) के परिणाम स्वरूप बारिश के तरीकों में बदलाव, हिमखण्डों और ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और वनस्पति तथा जन्तु जगत पर प्रभावों के रूप के सामने आ सकते हैं।

भारत में भी ग्लोबलवार्मिंग एक प्रचलित शब्द नहीं है और भाग-दौड़ में लगे रहने वाले भारतीयों के लिये भी इसका अधिक कोई मतलब नहीं है। लेकिन विज्ञान की दुनिया की बात करें तो ग्लोबल वार्मिंग को लेकर भविष्यवाणियों की जा रही है। इसको 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। यह खतरा तृतीय विश्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह (एस्टेरॉइड) के पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है।

उष्मन कारण

ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस हैं। ग्रीन हाउस गैसें, होती हैं जो बाहर से मिल रही गर्मी या ऊष्मा को अपने अंदर सोख लेती हैं। ग्रीन हाउस गैसों का इस्तेमाल सामान्यतः अत्यधिक सर्द इलाकों में उन पौधों को गर्म रखने के लिये किया जाता है जो अत्यधिक सर्द मौसम में खराब हो जाते हैं। ऐसे में इन पौधों को काँच के एक बंद घर में रखा जाता है और काँच के घर में ग्रीन हाउस गैस भर दी जाती है। यह गैस सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी सोख लेती है और पौधों को गर्म रखती है। ठीक यही प्रक्रिया पृथ्वी के साथ होती है। सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी की कुछ मात्रा को पृथ्वी द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रक्रिया में हमारे पर्यावरण में फैली ग्रीन हाउस गैसों का महत्वपूर्ण योगदान है।

ग्रीन हाउस गैसों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण गैस कार्बन डाइऑक्साइड है, जिसे हम जीवित प्राणी अपने साँस के साथ उत्सर्जित करते हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि  पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी पर कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा लगातार बढ़ी है। वैज्ञानिकों द्वारा कार्बन डाऑक्साइड के उत्सर्जन और तापमान वृद्धि में गहरा सम्बन्ध बताया जाता है। यद्यपि ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों द्वारा शोध कार्य जारी है, मगर मान्यतता यह है कि पृथ्वी पर हो रहे तापमान वृद्धि के लिये जिम्मेदार कार्बन उत्सर्जन है जोकि मानव गतिविधि जनित है। इसका प्रभाव विश्व के राजनीतिक घटनाक्रम पर भी पड़ रहा है। सन् 1988 में जलवायु परिवर्तन पर अन्तरशासकीय दल (Inter-Governmental Panel on Climate Change) का गठन किया गया था। सन् 2007 में इस अन्तरशासकीय दल और तत्कालीन अमेरिकी उपराष्ट्रपति अल गोरे को शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया।

आई. पी.सी. सी. वस्तुतः एक ऐसा अन्तरशासकीय वैज्ञानिक संगठन है जो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी सभी सामाजिक, आर्थिक जानकारियों को इकट्ठा कर उनका विश्लेषण करता है। आई. पी. सी. सी का गठन सन 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली के दौरान हुआ था। यह दल खुद शोध कार्य नहीं करता और न ही जलवायु के विभिन्न कारकों पर नजर रखता है। यह दल सिर्फ प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित शोध पत्रों के आधार पर जलवायु को प्रभावित करने वाले मानव जनित कारकों से सम्बन्धित राय को अपनी रिपोटर्स के जरिए सरकारों और आम जनता तक पहुंचाता है। आई. पी. सी. सी. की रिपोर्ट के अनुसार मानवजनित ग्रीन हाउस गैसें वर्तमान में पर्यारण में हो रहे तापमान वृद्धि के लिये पूरी तरह से जिम्मेदार हैं, जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा सबसे ज्यादा है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग में 90 प्रतिशत योगदान मानवजनित कार्बन उत्सर्जन का है। जबकि प्रो. यू. आर. राव अपने शोध के आधार पर की रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग में 40 प्रतिशत योगदान तो सिर्फ कॉस्मिक विकिरण का है। इसके अलावा कई अन्य कारक भी हैं जिनका ग्लोबल वार्मिंग में योगदान है और उन पर शोध कार्य जारी है।

भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा ‘इसरो’ के पूर्व चेयरमैन और भौतिकविद प्रो. यू. आर. राव अपने शोध-पत्र में लिखते हैं कि अंतरिक्ष से पृथ्वी पर आपतित हो रहे कॉस्मिक विकिरण का सीधा सम्बन्ध सौर-क्रियाशीलता से होता है। अगर सूरज की क्रियाशीलता बढ़ती है तो ब्रहमाण्ड से आने वाला कॉस्तिक विकिरण निचले स्तर के बादलों के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाता है। इस बात की पेशकश सबसे पहले स्वेन्समार्क और क्रिस्टेन्सन नामक वैज्ञानिकों ने की थी। निचले स्तर के बादल सूरज से आने वाले विकिरण को परावर्तित कर देते हैं, जिस कारण से पृथ्वी पर सूरज से आने वाले विकिरण के साथ आई गर्मी भी परावर्तित होकर ब्रहमाण्ड में वापस चली जाती है।

वैज्ञानिक ने पाया कि सन् 1925 से सूरज की क्रियाशीलता में लगातार वृद्धि हुई। जिसके कारण पृथ्वी पर आपतित होने वाले कॉस्मिक विकिरण में लगभग 9 प्रतिशत कमी आई है। इस विकिरण में आई कमी से पृथ्वी पर बनने वाले खास तरह के निचले स्तर के बादलों के निर्माण में भी कमी आई है, जिससे सूरज से आने वाला विकिरण सोख लिया जाता है और इस कारण से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। प्रो. राव के निष्कर्ष के अनुसार ग्लोबल वामिंग में इस प्रक्रिया का 40 प्रतिशत योगदान है जबकि कॉस्मिक विकिरण सम्बन्धी जलवायु ताप की प्रक्रिया मानव गतिविधि जनित नहीं है और न ही मानव इसे संचालित कर सकता है। इस तरह यह शोध आई.पी.सी. के इस निष्कर्ष का खंडन करता है कि ग्लोबल वार्मिंग में 90 प्रतिशत योगदान मानव का है। अगर ग्लोबल वार्मिंग के अन्य कारकों का अध्ययन  किया जाए तो ग्लोबल वार्मिंग में मानव गतिविधियों का योगदान आई. पी. सी.सी. की रिपोर्ट की अपेक्षा बहुत कम होगा।

प्रो. राव के इस शोध- पत्र के प्रकाशन के ठीक दो दिन बाद विश्व के प्रख्यात वैज्ञानिक जर्नल ‘नेचर’ में यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के प्रो. ऐन्ड्रयू शेफर्ड का शोध पत्र प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया है कि ग्रीनलैंड की बर्फ को पिघलने में उस समय से कहीं अधिक समय लगेगा जितना की आई. पी. सी. की चौथी रिपोर्ट में कहा गया है। ऐन्ड्र्यू शेफर्ड अपने शोध-पत्र में लिखते हैं कि ग्रीनलैंड की बर्फ अपेक्षाकृत सुरक्षित है, उसे पिघलने में काफी वक्त लगेगा। सन् 1999 में डा. वी. के. रैन ने अपने शोध के दौरान पाया था कि हिमालय ग्लेशियर भी अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं।

प्रभाव, जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव आदि सम्बन्धित विषयों पर अध्ययन और शोध किया जा रहा है। जलवायु विज्ञान के इतिहास में यह पहली बार होने जा रहा है कि जलवायु से जुड़े मुद्दों पर ‘उच्च-ऊर्जा कर्ण त्वरक’ (High energy Particle Accelerator) का इस्तेमाल किया जाएगा। उम्मीद है कि इस प्रयोग के संपन्न होने के बाद इस पूरे विषय पर हमारी समझ और विकसित हो सकेगी।

परिणाम

ग्रीन हाउस गैस वो गैस होती है जो पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश कर यहाँ का तापमान बढ़ाने में कारक बनती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 डिग्री से 8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जाएँगी, समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़ जाएगा। समुद्र के इस बर्ताव से दुनिया के कई हिस्से जलमग्न हो जाएंगे, भारी तबाही मचेगी। यह तबाही किसी विश्वयुद्ध या किसी ‘ऐस्टेरॉइड’ के पृथ्वी से टकराने के बाद होने वाली तबाही से भी बढ़कर होगी।

वैश्विक तापन रोकने के उपाय

वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिये मुख्य रूप से सी.एफ.सी. गैसों का उत्सर्जन रोकना होगा और इसके लिये फ्रिज, एयर कंडीशनर और दूसरे कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा। जिससे सी.एफ.सी. गैसें कम निकलती हों।

औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ हानिकारक है और इनसे निकलने वाला कार्बन डाइऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है। इन इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे।

वाहनों में से निकलने वाले धुएँ का प्रभाव कम करने के लिये पर्यावरण मानकों का सख्ती से पालन करना होगा। उद्योगों और खासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी और प्राथमिकता के आधार पर पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगली के संरक्षण पर बल देना होगा।

अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानि अगर कोयले से बनने वाली बिजली के बदले पवन ऊर्जा, और ऊर्जा और पनबिजली पर ध्यान दिया जाय तो वातावरण को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

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Pankaja Singh

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