भूगोल

चतुष्फलकीय सिद्धान्त | लीथियन ग्रीन के चतुष्फलक संकल्पना का आलोचनात्मक मूल्यांकन | महाद्वीपो तथा महासागरों की उत्पत्ति से सम्बन्धित चुतफलक संकल्पना

चतुष्फलकीय सिद्धान्त | लीथियन ग्रीन के चतुष्फलक संकल्पना का आलोचनात्मक मूल्यांकन | महाद्वीपो तथा महासागरों की उत्पत्ति से सम्बन्धित चुतफलक संकल्पना | tetrahedral theory in Hindi | Critical Evaluation of Lithian Green’s Quaternary Concept in Hindi | Quadrilateral concept in Hindi

चतुष्फलकीय सिद्धान्त (Tetrahedral theory)

महादेशों तता महासगरों के विन्यास में एक व्यवस्था तथा समिति (Smmetry) के आधार  पर एक आकर्षक सिद्धान्त 1875 ई. में लेथियन ग्रीन ने अपनी चतुष्फलक की प्राकल्पना (Tetrahedral hypothesis) को प्रतिपादित किया। इसमें उन्होंने यह बतलाया कि जल-थल के  वितरण में एक चतुष्फलक का विन्यास है। चतुष्फलक एक विविमितीय (Three dimensional) आकृति है जो चार समबाहू त्रिभुजों के योग से बनती है। एक सम बाहु त्रिभुजों आधार का काम करता है और इनकी तीनों भुजाओं पर एक-एक त्रिभुज इस प्रकार ऊपर की ओर बने होते हैं कि उनके शीर्ष एक बिन्दु में मिलते हैं। लोथियम ग्रीन ने बतलाया कि पृथ्वी एक वैसे चतुष्फलक के समान है जो अपने शीर्ष पर खड़ा है (चित्र) ऐसी स्थिति मे चतुष्फलक के चार चपटे पार्श्वी पर चार महासागर पाये जाते है। ऊपरी क्षैतिज पार्श्व (Upper horizontal face) पर आर्कटिक महासागर का विस्तार है और क्षैतिज किनारों पर उन स्थल-खण्डों का ज आर्कटिक महासागर के चारो ओर एक मेखला बनाते है। तीन खड़े किनारों (Vertical edges) पर उत्तर से दक्षिण फैले हुए महाद्वीप है, एक पर उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका हैं, दूसरे परं यूरोप तथा अफ्रीका और तीसे पर एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया। निचले शीर्ष पर दक्षिणी ध्रुव पड़ता है जिसके चारों ओर अंटार्कटिका महादेश फैला है। लोथियन ग्रीन ने बदलाया कि पृथ्वी का आकार बिल्कुल ज्यामितीय चतुष्फलक की आकृति का नहीं हो सकता, बल्कि इसके उभरे हुए भाग एकदम कोणात्मक और नुकीले न होकर उन्नतोदर है, जिनसे महाद्वीप बने हैं।

लोथियन ग्रीन की प्राकल्पना का आधार उस समय की विचारधारा था कि पृथ्वी धीरे-धीरे ठंडी हो रही है। अतः पृत्वी का ऊपरी भाग जो पहले डगा हो चुका है वह भीतरी सिकुड़ते हुए भाग के साथ ठीक-ठीक बैठ नहीं पाता, और कहीं ऊँचा और कहीं नीचा हो गया है। अर्थात् ऐसी स्थिति में धरातल को ऐसी आकृति में आना पड़ रहा है जिसका आयतन (Volume) कम होते हुए बी क्षेत्रफल अधिक हो। वास्तव में यह एक प्राकृतिक नियम है कि एक गीले (sphere) की, जिसका कि आयतन के अनुपात में तल का क्षेत्रफल सबसे कम होता है, बराबर एक चतुष्फलक का रूप धारण करने की प्रवृति होती है जिसका कि आयतन के अनुपात में तल का क्षेत्रफल सबसे अधिक. होता है। हाल में जे. डब्ल्यू ग्रेग्री (J. W. Gregory) ने चतुष्फलक की प्राकल्पना को, ऊपर बतलाये गये जल-थल के वितरण की विशेषताओं की सहाययता से, और भी व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। किन्तु यह प्राकल्पना अब अमान्य सिद्ध हो चुकी है, क्योंकि गणित के सिद्धान्तों के अनुसार चतुष्फलक जैसी आकृति पृथ्वी जैसे विशाल आकार को गुरूत्व संतुलन (Gravitational equilibrium) में नहीं रख सकती। यदि पृथ्वी चतुष्फलक की आकृति की प्रवृति दिखलाये भी, तो चतुष्फलक के किनारों तथा कोनों का भार इतना अधिक होगा कि ये फिर तुरन्त बैठ जायेंगी और पृथ्वी फिर सतुलित गोले की आकृति में लौट आयेगी।

महासागरीय तल का स्थायीत्व (The Permanency of the Ocean basins)-

पहले लोगों का यह विश्वास था कि स्थल पर जल का वितरण स्थाई है, क्योंकि स्थल पर विस्तृति क्षेत्रों में समुद्री निक्षेप (Marine deposits) पाये जाते है। स्थल पर ऐसी तलछटी चट्टानें मिलती है जिनका निर्माण समुद्र में हुआ था तथा जिनमें सामुद्रिक जीवों के अवशेष मिलते हैं। इसके अतिरिक्त भू-वैज्ञानिक भूतकाल में महाद्वीपों के तटीय भागों के समुद्र में जलमग्न होने तथा जलमग्न भागों के ऊपर उठने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। किन्तु बाद में यह माना जाने लगा कि महासागरीय तल तथा महाद्वीप स्थाई है। अर्थात् वितरण एक बुनियादी योजना का परिणाम है। और इनका निर्माण पृथ्वी की प्रारंभिक अवस्था में ही स्थाई रूप से हुआ है। वस्तुतः महासागरीय तल बराबर महासागरीय तल रहा है और वह उठ कर कभी महाद्वीप नहीं बना है। इसी प्रकार महाद्वीपीय भाग भी स्थायी है। इनमें जब-तब छोटे-मोटे तथा स्थानीय परिवर्तन भले ही होते रहे हों, कन्तु ऐसा क्रांतिकारी उलट-फेर कभी नहीं हुआ है जिससे कि समुद्र स्थल-खण्ड में परिवर्तित हो गया हो अथवा स्थल-खण्ड समुद्र तल में बदल गया हो।

लोथियन ने निम्नांकित तथ्यों को अपनी परिकल्पना स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

  1. उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में जल की बहुलता।
  2. स्थल तथा जल का त्रिभुज के रूप में पाया जाना। उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरी ध्रुवीय सागर के चातुर्दिक स्थल भाग की एक क्रमबद्ध श्रृंखला या मेखला पायी जाती है,
  3. जबकि उत्तरी ध्रुव जल से घिरा है। इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी ध्रुव स्थल भाग (अन्टार्कटिका महाद्वीप) में व्यास है तथा इसके चारों ओर जल का प्रसार है।
  4. महाद्वीप तथा महासागर एक दूसरे के विपरीत दिशा में पायें जाते हैं।
  5. प्रशान्त महासागर का विस्तार अत्याधिक है, जो पृथ्वी के क्षेत्रफल का एक तिहाई भाग घेरे हुए हैं।
  6. प्रशान्त महासागर चारों ओर से नवीन वलित पर्वतों द्वारा घिरा हुआ है। ग्रीन ने पुनः यह अनुमान किया है कि पृथ्वी अभी पूर्ण रूप से चतुष्फलक में परिवर्तित हो पायी है, वरन् ज्यों-ज्यों ठंडी होती जा रही है, चतुष्फलक की आकृति पूर्णता को प्राप्त करती जा रही है। पृथ्वी की बनावट में विभिन्नता के कारण चतुष्फलक विशुद्ध रूप में नहीं हो सकता वरन् उसमें असमानता होना स्वाभाविक है। एक विशुद्ध चतुष्फलक में सपाट भाग‌ (plane face) के विपरीत दिशा में कोने वाले भाग अथवा कोणात्मक भाग (coign) होते हैं तथा ये अधिक नुकीले होते हैं। परन्तु पृथ्वी के विषय में शीर्ष (apex) अथवा कोणात्मक भाग (coign) नुकीला नहीं होता है वरन् उत्तल तथा मोटा होता है। इन चपटे भागों पर जल तथा किनारे वाले भागों अथवा कोणात्मक भागों पर स्थल का निर्माण होता है।

चूंकि संकुचन के समय पृथ्वी के वाह्या तथा आंतरिक परतों के बीच अन्तर (GAP) आ गया था, इसलिए पृथ्वी के चतुष्फलक के रूप में आते समय गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण ऊपरी परत नीचे वाली परत पर ध्वस्त (collapase) होने लगी अथवा बैठने लगी। दूसरे शब्दों में ऊपरी भूपटल, निचले चतुष्फलक की आकृति पर बैठ गया। फलस्वरूप सागर तथा स्थल भाग का निर्माण हुआ। चतुष्फलक रूपी पृथ्वी के चपटे चार भागों में चार महासागरों का निर्माण, हुआ। इन पर जल की स्थिति इसलिए हुई कि ये सपाट भाग किनारे वाले भागों से अपेक्षाकृत नीचे थे किनारे तथा कोने वाले भागों पर महाद्वीपों की रचना हुई। इस तथ्य को इस रूप में भी प्रमाणित किया जा सकता है कि यदि पानी के ग्लोब में चतुष्फलक को डुबोया जाय तो चपटे अथवा सपाट भाग पर पानी शीघ्र आ जायेगा तथा किनारे वाले भाग (coign) जल से बाहर होंगे, जो कि साधारण तौर पर सागर तथा स्थल भाग की स्थिति बताते हैं।

इस परिकल्पना के अनुसार सागर तथा स्थल का वर्तमान वितरण पूर्ण रूप से समझाया जा सकता है। चतुष्फलक इस रूप में है कि उसका उत्तरी भाग चपटा है। शेष तीन सपाट भाग दक्षिण में एक बिन्दु (COIGN) पर मिलते हैं। इस प्रकार उत्तरी समलत अथवा सपाट भाग (PLANE FACE) पर उत्तरी ध्रुव सागर है तथा शेष तीन चपटे भागों पर प्रशान्त महासागर, आंध्र महासागर तथा हिन्द महासागर का विस्तार है। इसी प्रकार जल से ऊपर उठे हुये चार कोणात्मक भागों के सहारे क्रमशः उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, यूरोप व अफ्रीका, एशिया तथा आस्ट्रेलिया और अन्टार्कटिका महाद्वीप फैले हुए है। इस प्रकार उत्तरी ध्रुव के पास जल तथा दक्षिणी ध्रुव के पास स्थल का होना प्रमाणित हो जाता है। महाद्वीपों की स्थिति को और स्पष्ट रूप से समझाया जा सकता है। चार समत्रिबाहु त्रिभुजों के चार मिलन बिन्दु (COIGNS) होगें। दक्षिणी शीर्ष बिन्दु को छोड़कर शेष तीन शीर्ष बिन्दु (COIGNS) उत्तरी गोलार्द्ध में पाये जाते हैं। ये तीन प्राचीनतम स्थिर भूखण्ड लारेंशियन अथवा कनाडियन शील्ड, बाल्टिक शील्ड तथा पूर्वी साइबेरिया में स्थित अंगारा शील्ड को प्रदर्शित करते हैं। दक्षिणी शीर्ष भाग जो कि चतुष्फलक का प्रथम आधार (pivot) है, वह अण्टर्किटिका शील्ड द्वारा प्रदर्शित होता है। इन्हीं चार शीर्ष बिन्दुओं के स्थिर भूखण्डों से विस्तृत होकर वर्तमान महाद्वीपों का निर्माण हुआ है। उपर्युक्त तीन उत्तरी शीर्ष से किनारे के सहारे महाद्वीपों का विस्तार हुआ। सभी महाद्विपीय भाग चतुष्फलक के किनारे हैं, जो कि दक्षिण की तरफ सँकरे होते जाते हैं। इस प्रकार महाद्विपों का त्रिभुजाकार रूप भी प्रमाणित हो जाता है। चार सपाट भागों के सहारे महासागरों की स्थिति तथा किनारों के सहारे महाद्वीपों का होना जल-थलं की प्रति ध्रुवस्थ स्थिति को प्रमाणित करता है।

ग्रेगरी आधुनिक युग में इस परिकल्पना के प्रधान समर्थक है। परन्तु इस परिकल्पना के मूलरूप में उन्होंने कुछ संशोधन भी प्रस्तुत किया है। ग्रेगरी के अनुसार संकुचन के कारण पृथ्वी में सिकुड़न आने से चतुष्फलक के लम्बवत् किनारे स्थिर रहेंगे, परन्तु ऊपर वाली सपाट सतह को घेरने वाले तीन किनारे परिवर्तनशील रहेंगे। यह परिवर्तन कभी उत्तर तथा कभी दक्षिण दिशा में खिसकाव अथवा विस्तार के रूप में हुआ बताया गया है, जिस कारण महाद्वियों और महासागरों के आकार में क्रमशः परिवर्तन होता रहा। फ्रेंक (Frech) नामक विद्वान ने भी अपने मानचित्र में कैम्ब्रियन युग में उत्तरी तथा दक्षिणी गोलाई में जल तथा धल का पूर्ण विपरीत वितरण दिखाया है। इस प्रकार ग्रेगरी तथा फ्रेक के कुछ संशोधनों द्वारा ग्रीन की “चतुष्फलक परिकल्पना” अधिक सार्थक बना दी जाती है।

आलोचना: यद्यपि “चतुष्फलक परिकल्पना” से महासागरों तथा महाद्वियों की कई समस्याओं पर प्रकाश पड़ता है, फिर भी कुछ मूलभूत कठिनाइयों के कारण यह मत वर्तमान समय में मान्य नहीं है। इसके अनुसार चतुष्फलक रूपी पृथ्वी एक शीर्ष बिन्दु (COIGN) पर रुकी है। इस प्रकार एक शीर्ष बिन्दु पर परिभ्रमण करती हुई चतुष्फलक के रूप में पृथ्वी का संतुलन कदापि स्थापित नहीं हो सकता है। दूसरे पृथ्वी अपनी कीली पर इतनी तीव्रगति से परिभ्रमण करते हैं कि गोल भूमण्डल चतुष्फलक के रूप में सिकुड़कर नहीं बदल सकता है। इस प्रकार इस परिकल्पना का मूल आधार ही प्रमाणित नहीं हो पाता है।

भूगोल – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!