राजनीति विज्ञान

संरचनात्मक-प्रकार्यवाद को टालकोट पारसन्स तथा राबर्ट के० मर्टन के योगदान | समाज-व्यवस्था के लिए आवश्यक प्रक्रियात्मक अपेक्षाएँ | संरचनात्मक-प्रकार्यवाद में राबर्ट के० मर्टन का योगदान

संरचनात्मक-प्रकार्यवाद को टालकोट पारसन्स तथा राबर्ट के० मर्टन के योगदान | समाज-व्यवस्था के लिए आवश्यक प्रक्रियात्मक अपेक्षाएँ | संरचनात्मक-प्रकार्यवाद में राबर्ट के० मर्टन का योगदान

संरचनात्मक-प्रकार्यवाद को टालकोट पारसन्स तथा राबर्ट के० मर्टन के योगदान

संरचनात्मक प्रकार्यवाद उपागम के विकास में टालकोट पारसन्स, राबर्ट के० मर्टन, मेरियन जे० लेवी तथा आलमण्ड कोलमैन का विशेष योगदान रहा है।

समाज-व्यवस्था के लिए आवश्यक प्रक्रियात्मक अपेक्षाएँ

(Functional Requisites for Social System)

पारसन्स के अनुसार समाज-व्यवस्था की सततता के लिए चार प्रकार की प्रकार्यात्मक अपेक्षाएँ होती हैं-

(1) प्रतिमान-संधारण एवं तनाव-प्रबन्ध (Pattern maintenance and tension-management)-  प्रतिमान संधारण एवं तनाव प्रबन्ध प्रकार्य व्यवस्था के सांस्कृतिक स्वरूप अथवा विश्वास को बनाये रखते हैं। उनका लक्ष्य सम्पूर्ण समाज-व्यवस्था, व्यक्ति कार्यों, नैगम संरचनाओं के लक्ष्यों को तथा उन्हें प्राप्त कराने वाले साधनों को निर्दिष्ट कराना है। इस कार्य को पूरा करने के लिए समाजीकरण (Socialisation), सामाजिक दबावों या शास्तियों (Social Sanctions) तथा मूलभूत मानकों का आश्रय लिया जाता है।

(2) लक्ष्य प्राप्ति (Goal attainment)- लक्ष्य प्राप्ति वाले प्रकार्यों का सम्पादन वे संरचनायें करती हैं जिनका सम्बन्ध व्यवस्था के लक्ष्यों, उद्देश्यों एवं नीतियों की उपलब्धि तथा चुनाव और परस्पर प्रतिद्वन्द्विता रखने वाले उद्देश्यों में निश्चय करने वाली पद्धति के निष्पादन से होता है राज्य व्यवस्था का सम्बन्ध लक्ष्य प्राप्ति से होता है।

(3) अनुकूलन (Adaptation)- अनुकूलन वाली प्रकार्यात्मक अपेक्षायें आर्थिक उत्पादन साधनों का अभिनिधान तथा प्रबन्ध कराने वाली होती हैं। ये समंजन अथवा अधिगमन की प्रक्रियायें हैं। वातावरण के साथ विनिमय तथा व्यवस्था की निरन्तरता बनाये रखने वाले और दबावों का सामना करने तथा उनके पर्यावरण के प्रति संक्रिया करने की क्षमता का सुधार करने के उद्देश्यों से अनुक्रिया के रूप में होती है। माँग-वृद्धि के कारण इसकी आवश्यकता होती है तथापि पर्यावरण और व्यवस्था में होने वाले लगातार परिवर्तन भी अनुकूलन प्रक्रियाओं की माँग करते हैं। इसकी आवश्यकता व्यवस्था की क्षमता को बनाये रखने के लिए होती है।

(4) एकीकरण (Integration)- समाज-व्यवस्था की संरचनाओं में एकीकरण स्थापित करना आवश्यक है; क्योंकि ये संरचनायें विभिन्नीकृत तथा अन्योन्याश्रित होती हैं। ये प्रकार्य सामाजिक संस्थाओं द्वारा किये जाते हैं। इस एकीकरण की स्थापना राजनैतिक समुदाय के सदस्यों को दमन करके नहीं की जानी चाहिये। इसके विपरीत यह एकीकरण सहमति पर आधारित होता है । यह उच्च मात्रा में पारस्परिक राजनीतिक अन्तः क्रिया से प्रदर्शित होता है।

राजनैतिक एकीकरण के अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे-

(अ) राजनैतिक संस्कृति का प्रभुत्व,

(ब) प्रत्याशा पूर्ति में सहायक प्रक्रियाओं और राजनैतिक संस्थाओं की पर्याप्ततता,

(स) राजनैतिक संचार (Political Communication) की सरलता और सुगमता आदि ।

प्रायः निम्नलिखित कारणों से एकीकरण प्रभावहीन होने लगता है:-

(अ) जब सहभागिता मूल्य न्यून हो जाये ।

(ब) अनुपालन के लिए दमन आवश्यक हो जाये।

(स) कोई एक वर्ग पृथक्करण की माँग करें।

एकीकरण प्रभावहीन होने की अवस्था में दुर्बल करने वाले दबावों का सामना करने के लिए कदम उठाये जाने चाहिए।

राबर्ट के० मर्टन का योगदान

(Robert K. Merton)

राबर्ट के० मर्टन का नाम टालकोट पारसन्स के पश्चात् आता है। उसने मध्य स्तरीय सिद्धान्तों (Middle Range Theories) का प्रतिपादन किया है।

लक्ष्य (Objective)-  मर्टन का लक्ष्य है कि सामाजिक सिद्धान्त शोध एवं तथ्यों में घनिष्ठ एकता स्थापित की जाये । सम्पूर्ण सिद्धान्त के विकास के लिये एक मध्य स्तरीय सिद्धान्त का निर्माण आवश्यक है।

प्रकार्य (Functions)-  मर्टन के अनुसार प्रकार्य तीन प्रकार के होते हैं-

(1) सुकार्य (Eu-function), (2) विकार्य (Dy-function) तथा

(3) अकार्य (Non- function)

उसने प्रकार्य की परिभाषा पर्यवेक्षक के दृष्टिकोण से प्रस्तुत की है। उसका विचार है कि सामाजिक प्रकार्य पर्यवेक्षक योग्य वस्तुनिष्ठ परिणाम है। ये केवल व्यक्तिगत चित्तवृत्तियाँ मात्र ही नहीं हैं। कोई प्रकार्य विकार्य उस समय बन जाता है जब वह प्रकार्य व्यवस्था के अनुकूलन समंजन में रुकावट उत्पन्न कर देती है। यदि प्रकार्य अनुकूलन एवं समंजन में सहायक सिद्ध होता है तब वह सुकार्य (Eu functions) कहलाता है। प्रकार्य अरिक्तांगी (Redundant) भी हो सकता है। इसे अकार्य (Non-functional) कहा जाता है।

वह प्रकार्यों को पुनः दो भागों में बाँटता है-

(1) अभिव्यक्त प्रकार्य- व्यवस्था के अनुकूलन और समंजन में सहायक वस्तुपरक परिणाम किसी व्यवस्था में सहभागियों द्वारा अभीष्ट एवं अभिजात परिणामों को ‘अभिव्यक्त प्रकार्य’ कहा जाता है।

(2) अप्रकट प्रकार्य- वस्तुपरक परिणामों के अभीष्ट तथा अनभिज्ञात होने पर उन्हें ‘अप्रकट प्रकार्य’ कहा जाता है।

इसी प्रकार मर्टन ने सचेत अभिप्रेरणा और वस्तुनिष्ठ परिणामों के सम्बन्ध में होने वाली भ्रान्तियों को दूर करने का प्रयास किया है। उसकी धारणा है कि क्रियाओं की प्रेरक अभिप्रेरणाओं तथा परिणामों के साथ-साथ समपाशिर्वक परिणामों को भी देखा जाना चाहिये।

समाज (Society)- मर्टन ने समाज की स्वस्थ दशा को ‘यूनोमिया’ (Eunomia) तथा पतनावस्था को डायनोमिया (Dysnomia) कहा है। सामाजिक लक्ष्य स्पष्ट परिभाषित होने तथा उनके प्राप्त करने के साधनों के अस्पष्ट होने पर समाज भ्रष्टाचार की ओर अग्रसर होता है। इस व्यवस्था को मर्टन ने अप्रतिमानता (Anomic) कहा है। यह सामाजिक संरचनाओं का समपार्श्विक परिणाम है।

प्रकार्यात्मक विकल्प (Functional Alternative)- मर्टन ने प्रकार्यात्मक विकल्पों की अवधारणा भी प्रस्तुत की है। कोई भी प्रकार्य एक से अधिक विकल्पात्मक रीतियों द्वारा किया जा सकता है। उदाहरण के लिए विधि-निर्माण का कार्य ही ले लीजिये। इस कार्य को विधान मण्डल के अतिरिक्त राष्ट्राध्यक्ष, प्रशासकीय न्यायालय आदि भी करते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मर्टन ने अपने से पूर्व विचारकों जैसे मैलिनोवस्की आदि की प्रकार्यात्मक शाश्वत्वाद की अवधारणा को अस्वीकार्य ठहराया है।

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Pankaja Singh

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