राजनीति विज्ञान

माओ-त्से-तुंग के राजनीतिक विचार | ‘अंसगतियों’ पर माओ के विचार

माओ-त्से-तुंग के राजनीतिक विचार | ‘अंसगतियों’ पर माओ के विचार | वर्ग संघर्ष पर माओ के विचार | दल पर माओ के विचार | न्यू डेमोक्रेसी पर माओ के विचार | साम्राज्यवाद पर माओ के विचार | गुरिल्ला युद्ध पर माओ के विचार | माओ दर्शन शक्ति का दर्शन है

माओ-त्से-तुंग के राजनीतिक विचार

(क) वर्ग संघर्ष

(ख) दल

(ग) न्यू डेमोक्रेसी (जनवादी लोकतंत्र)

(घ) साम्राज्यवाद

(ङ) गुरिल्ला युद्ध

एक चीनी लेखक का विचार है कि माओ त्से-तुंग ने “बड़े प्रभावशाली एवं सृजनात्मक ढंग से और सर्वांगीण रूप से मार्क्सवाद लेनिनवाद की विरासत को प्राप्त किया है- उसका विकास किया है तथा उसे पहले से अधिक ऊँची एक नई मंजिल तक पहुँचा दिया है।” माओ इतिहास की भौतिक व्याख्या तथा वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त की उसी प्रकार व्याख्या करता है जिस प्रकार की व्याख्या मार्क्स तथा लेनिन के द्वारा की गई थी। माओ का भी कथन है कि ऐतिहासिक विकास के कारणों को उस युग की अर्थप्रणाली में ढूँढ़ा जाना चाहिए। समाज में परिवर्तनों का प्रमुख कारण समाज में उपस्थित आन्तरिक अन्तर्विरोध (असंगतियाँ) होता है। माओ कहा है कि ‘असंगतियाँ’ (Contradictions) इतिहास के विकास में अन्तर्निहित है- उत्पादकीय शक्तियों और उत्पादन के सम्बन्धों के बीच अन्तर्विरोध, वर्गों के बीच के अन्तर्विरोध तथा नये और पुराने के बीच अन्तर्विरोध उत्पन्न होते हैं। इन अन्तर्विरोधों का विकास ही समाज को आगे बढ़ाता है तथा पुराने समाज के स्थान पर नये समाज की स्थापना की प्रक्रिया को गति प्रदान करता है।

माओ का ‘अन्तर्विरोध’ (असंगति) (Contradiction) का सिद्धान्त साम्यवादी दर्शन की एक नयी देन है। मार्क्स ने तथा लेनिन ने परिवर्तन के तीन नियमों में से ‘विरोधी तत्त्वों की एकता के नियम’ का प्रतिपादन किया था। माओ ने इस सिद्धान्त की सविस्तार व्याख्या की है। माओ के ‘असंगति’ के सिद्धान्त का साम्यवादी दर्शन को नयी देन कहा जाता है। माओ के ‘असंगतियों के सिद्धान्त’ को संक्षेप में यहाँ प्रमुख किया जा सकता है। माओ का कथन है कि वस्तुओं में असंगति का नियम, अर्थात् विपरीत तत्त्वों की एकता का नियम, प्रकृति और समाज का अतएव, चिन्तन का भी मूल नियम है। यह नियम आध्यात्मवादी विश्व दृष्टिकोण का प्रतिकूल नियम है। इसमें मनुष्य चिन्तन के इतिहास में एक महान क्रान्ति का सूत्रपात हुआ है। माओ की मान्यता है कि ‘असंगति सार्वभौम’ है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण के अनुसार असंगति वस्तुगत पदार्थों की और आत्मगत चिन्तन की सभी प्रक्रियाओं में विद्यमान रहती है और सभी प्रक्रियाओं में आदि से अन्त तक रहती है। यही असंगति की सार्वभौमिकता और निरपेक्षता है। असंगतिपूर्ण वस्तुओं तथा उनके प्रत्येक पहलू के अपने-अपने विशिष्ट रूप भी होते हैं। इसे असंगति की विशिष्टता एवं सापेक्षता कहा जा सकता है। कुछ परिस्थितियों में असंगतिपूर्ण वस्तुओं में समरूपता होती है इसलिए वे एक ही इकाई में सह-अस्तित्व की स्थिति में रह सकती हैं तथा एक दूसरे में बदल सकती हैं, किन्तु असंगति के भीतर का संघर्ष निरन्तर जारी रहता है। यह तब भी जब कि वे एक दूसरे में रूपान्तरित हो रहे होते हैं। रूपान्तरण की स्थिति में संघर्ष विशेष रूप से व्यक्त होता है। माओ कहता है कि असंगति की सापेक्षता तथा विशिष्टता का अध्ययन करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि असंगतियों में तथा असंगतिपूर्ण पहलुओं में भी कौन सी चीज मूल हैं तथा कौन सी गौण है। असंगति की सार्वभौमिकता और उसके भीतर के संघर्ष का अध्ययन करते समय हमें उसके भीतर संघर्ष के विभिन्न रूपों के भेदों को ध्यान में रखना चाहिए। अन्यथा हम भूलें करेंगे। इस सिद्धान्त को हृदयंगम इसलिए करना आवश्यक है जिससे कि रूढ़िवादी मार्क्सवाद-लेनिनवाद विरोधी विचारों को परास्त किया जा सके और क्रान्ति को सफल बनाया जा सके। माओ के इन विचारों की विशेषता इतनी ही नहीं है कि सैद्धान्तिक आधार पर उनकी व्याख्या की गई है किन्तु प्रत्येक सिद्धान्त को समझाने के लिए उसने चीन के सामाजिक विकास से सटीक उदाहरणे भी प्रस्तुत किए गए हैं। उदाहरणार्थ, इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कि ‘किसी महान वस्तु या घटना के विकास की प्रक्रिया में अनेक असंगतियाँ होती हैं वह चीन से उदाहरण देता है कि “चीन की पूँजीवादी-जनवादी क्रान्ति की प्रक्रिया में चीनी समाज के विभिन्न उत्पीडित वर्गों और साम्राज्यवाद के बीच असंगति है। साम्राज्यवाद और जनता के बड़े हिस्सों के बीच असंगति है, पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच असंगति है, शहरी मध्यम-वर्ग सहित किसानों और पूँजीपति वर्ग के बीच असंगति है। असंगतियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं और हर प्रकार की असंगति को भिन्न प्रकार से हल करना साम्यवादी का कार्य है। उदाहरण के लिए माओ का कथन है कि “गुणात्मक रूप से भिन्न अंसगतियों को केवल गुणात्मक रूप से भिन्न साधनों के द्वारा ही हल किया जा सकता है-पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच असंगति को समाजवादी क्रान्ति के तरीके से हल किया जाता है। सामन्ती व्यवस्था और आम जनता के बीच की असंगति जनवादी क्रान्ति के तरीके से हल होती है, साम्राज्यवाद और उपनिवेशों के बीच की असंगति राष्ट्रीय क्रान्तिकारी युद्धों से हल होती हैं, समाजवादी समाज में किसानों और मजदूरों के बीच की असंगति कृषि के सामूहिकीकरण और यंत्रीकरण के तरीके से हल होती है, कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर की असंगति आलोचना और आत्म-आलोचना के तरीके से हल होती है, समाज और प्रकृति के बीच की असंगति उत्पादक शक्तियों के बढ़ाने के तरीके से हल होती है। प्रक्रियाएँ बदलती हैं, पुरानी प्रक्रियाएँ और पुरानी असंगतियाँ लुप्त हो जाती हैं, नयी प्रक्रियाएँ और नयी असंगतियाँ प्रकट होती हैं और उन्हीं के अनुरूप असंगतियों को हल करने के तरीके भी भिन्न- भिन्न होते हैं।” स्थानाभाव के कारण हम यहाँ इतना ही कह सकते हैं। असंगतियों की विषय- वस्तु की माओ ने विशद व्याख्या की है जितनी संभवतः लेनिन अथवा स्टालिन ने नहीं की थी। माओ का मार्क्सवादी-लेनिनवादी चिन्तन को यह एक महत्वपूर्ण योगदान है।

(क) वर्ग-संघर्ष

माओ की वर्ग-संघर्ष की धारणा मार्क्सवाद-लेनिनवाद जैसी ही है। माओ यह मानता है कि वर्गों की उत्पत्ति का कारण उत्पादन की शक्तियों का निजी स्वामित्व है जिसके आधार पर शोषक एवं शोषित वर्ग का निर्माण होता है। इनके बीच संघर्ष अनिवार्य रहता है। माओ का कथन है कि “वर्गों के बीच संघर्ष होता है, कुछ वर्ग विजयी होते हैं तथा कुछ अन्य वर्ग नष्ट हो जाते हैं। ऐसा ही इतिहास है, ऐसा ही हजारों साल की सभ्यता का इतिहास है। इस दृष्टिकोण के अनुसार इतिहास की व्याख्या करना ऐतिहासिक भौतिकवाद कहलाता है और इसके विपरीत दृष्टिकोण अपनाना ऐतिहासिक आदर्शवाद कहलाता है।” माओ वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त के आधार पर राष्ट्रीय संघर्ष की समस्या को भी देखता है। उसका विचार है कि अन्ततोगत्वा राष्ट्रीय संघर्ष का सवाल वर्ग-संघर्ष का ही सवाल है। विरोधी वर्ग का अन्तः स्वतः नहीं होता है। उसके लिए जनता को संगठित कर क्रान्ति के द्वारा समाप्त किया जाता है। माओ की आस्था शक्ति प्रयोग एवं क्रान्ति में है। उसका विचार है कि “राजनीतिक शक्ति बन्दूक की नली से उत्पन्न होती है” तथा बन्दूक से कोई भी वस्तु उत्पन्न की जा सकती है। माओ कहता है कि वर्ग संघर्ष में शोषितों द्वारा “यदि शक्ति का प्रयोग नहीं किया गया तो शोषक प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ बनी रहेंगी। अगर आप उस पर प्रहार नहीं करेंगे तो वह गिरेगी नहीं। यह भी फर्श को झाड़ने-बुहारने के समान है। यह निश्चित है कि जहाँ झाडू नहीं पहुँचेगी वहाँ से गर्द अपने-आप दूर नहीं हो जाएगी।” माओ की धारणा है कि क्रान्ति के मार्ग को अपनाए विना पूँजीवादी, साम्राज्यवादी तथा प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ स्वतः मंच से नीचे नहीं उतरेंगी। क्रान्ति द्वारा ही उन्हें अपदस्थ किया जाता है। जबकि मार्क्स आर्थिक शक्तियों के आन्तरिक विकास का अन्तिम चरण क्रान्ति को मानता है, माओ सैनिक शक्ति को क्रान्ति एवं समाज निर्माण का आवश्यक माध्यम मानता है।

(ख) दल

दल के सम्बन्ध में माओ के विचार लेनिन-स्टालिन की भाँति हैं। लेनिन की भांति माओ की मान्यता है कि कम्युनिस्ट पार्टी क्रान्ति का अग्रदूत एवं उसका साधन है। वह कहता है कि क्रान्ति के लिए क्रान्तिकारी पार्टी का होना आवश्यक है। उसके बिना साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध मजदूर वर्ग तथा जनता का नेतृत्व किसी अन्य अंग द्वारा नहीं किया जा सकता। जिस समय चीनी साम्यवादी दल कुओमिन्तांग के साथ जापान का विरोध कर रहा था उस समय माओ ने दल की आवश्यकता पर इस भाँति बल दिया : “चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रयत्नों के बिना और चीन के कम्युनिस्टों के चीनी जनता का मुख्य सम्बन्ध बने बिना, चीन अपनी स्वाधीनता और मुक्ति कदापि प्राप्त नहीं कर सकता, अथवा अपना औद्योगीकरण और अपनी कृषि का आधुनिकीकरण कदापि नहीं कर सकता। क्रान्ति के पूर्व तथा क्रान्ति के पश्चात् सुसंगठित, कर्मठ, अनुशासनपूर्ण दल की आवश्यकता रहती है, क्रान्ति करने के लिए तथा क्रान्ति के लाभों को ठोस बना कर साम्यवाद की स्थापना करने के लिए।” संक्षेप में माओ का ‘दल का सिद्धान्त’ लेनिन के विचारों की पुनरावृत्ति है। माओ भी दल के नेताओं का शासन दल के नाम पर लागू करता है। दल प्रवर्गीय नेताओं का संगठन है, यद्यपि उसमें मजदूर-कृषक वर्गों की भागीदारी को मौखिक प्रधानता दी जाती है।

(ग) ‘न्यू डेमोक्रेसी’ (‘जनवादी लोकतन्त्र’)

दल की धारणा के साथ ही साथ माओ की लोकतंत्रात्मक अधिनायकवाद की धारणा जुड़ी हुई है। मार्क्स की भाँति माओ का मत है कि राज्य पूँजीपति वर्ग की कार्यकारिणी शक्ति है। राज्य एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर शासन करने की शक्ति है। पूँजीवादी राज्य में राज्य द्वारा मजदूर वर्ग के हितों को निर्दयता से कुचला जाता है। क्रान्ति के पश्चात यह मजदूर वर्ग का अधिकार हो जाता है कि वे राज्य के माध्यम से शोषकों का शोषण करें। राज्य का यह कार्य हो जाता है कि श्रमिक-कृषक वर्ग के हितों के विरोधी तत्त्वों को निर्ममता से कुचलें। श्रमिकों की इस तानाशाही में अधिनायकवाद तथा लोकतंत्र का सम्मिश्रण होगा। अपनी पुस्तिका दा न्यू डेमोक्रेसी में माओ ने स्पष्ट किया है कि संक्रमणकालीन श्रमिकों की तानाशाही की व्यवस्था लोकतन्त्रवादी तथा अधिनायकवादी होगी। यह इस आधार पर लोकतन्त्रवादी होगी कि इसमें शासन जनता की हितों की पूर्ति के लिए होगा। यह अधिनायकवादी इसलिए होगी कि जनता द्वारा राज्य सत्ता का निरंकुश प्रयोग सामन्तवादी, प्रतिक्रियावादी, पूँजीवादी एवं धर्मसत्तावादी वर्गों का दमन करने के लिए किया जाएगा। माओ का यह जनता की प्रजातांत्रिक तानाशाही का सिद्धान्त एक ओर लेनिन से प्रेरणा प्राप्त करता है तो दूसरी ओर चीन की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को ध्यान में रखकर प्रतिपादित किया गया है। माओ के शब्दों में इस व्यवस्था का स्वरूप ‘अवशिष्ट प्रतिक्रियावादी सामन्तों एवं गद्दार पूँजीपतियों के विरुद्ध लोकतान्त्रिक तानाशाही का होगा।”

‘न्यू डेमोक्रेसी’ (1940) पुस्तिका माओ द्वारा उस समय लिखी गई थी जब चीन अपनी राष्ट्रीय एकता और स्वाधीनता के लिए जापान के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था। सोवियत संघ के बाहर यह साम्यवाद पर लिखी गई 80 पृष्ठों की पुस्तिका साम्यवादी साहित्य की एक श्रेष्ठ रचना मानी जाती है।

‘न्यू डेमोक्रेसी’ में माओ चीन में राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्रान्ति पर बल देता है। चीन के इतिहास का वर्णन करते हुए वह बताता है कि ‘अफीम युद्ध’ (Opium War) के पूर्व चीन एक सामन्तवादी देश था जिसे बाद में पूँजीवादी आधारों पर संगठित किया गया। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर माओ कहता है कि चीन में क्रान्ति के दो स्तर होंगे-पहली क्रान्ति से चीन को सामन्तवादी-उपनिवेशवादी चंगुल से मुक्त कर ‘स्वतन्त्र समाज’ स्थापित किया जाएगा। दूसरे चरण में स्वतन्त्र चीनी समाज को ‘समाजवादी समाज’ में बदला जायेगा। माओ कहता है कि चीन की यह क्रान्ति विश्व-क्रान्ति का ही एक भाग है।

माओ बताता है कि क्रान्ति के द्वारा चीन में जिस जनवादी लोकतन्त्र की स्थापना होगी वह पश्चिम के पूँजीवादी लोकतन्त्र से तथा सोवियती लोकतंत्र से भिन्न होगा। यह ‘क्रान्तिकारियों द्वारा संचालित लोकतन्त्र होगा जो बैंको, उद्योगों और व्यापार को जनता के हाथों सौपेंगा। इसमें श्रमिकों का शोषण नहीं होगा, क्योंकि पूँजीपतियों पर शासन का नियंत्रण रहेगा। माओ कहता है कि उपनिवेशी शासकों ने चीन में दासता की संस्कृति’ की स्थापना की है। अतः ‘नवीन लोकतन्त्र’ में उसे ‘जनवादी संस्कृति’ में बदला जायेगा जो कि चीन की ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ बनेगी। माओ लिखता है कि चीन की ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ मानवतावादी, वैज्ञानिक एवं विवेकवादी होगी जो विश्व की समाजवादी संस्कृतियों में एकता स्थापित करने का प्रयास करेगी। माओ के सत्तारूढ़ होने पर उसने चीन में ‘नवीन लोकतन्त्र’ में प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुसार शासन चलाने का प्रयास किया था।

(घ) साम्राज्यवाद

माओ साम्राज्यवाद को पूँजीवाद का नैसर्गिक एवं चरम परिणाम मानता है। असंगतियों के सिद्धान्त को साम्राज्यवाद पर भी लागू करते हुए वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि साम्राज्यवाद का अन्त विश्व-समाजवादी शक्तियों द्वारा होगा। साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद में आर्थिक एवं राजनीतिक शोषण की पराकाष्ठा पहुँच जाती है। लेनिन की भाँति माओ की मान्यता है कि वह युद्धों को जन्म देता है, दुनिया के लोगों को शोषक एवं शोषित गुटों में बाँट देता है। ऐसी स्थिति में तटस्थता जैसी नीति संभव नहीं हो सकती, क्योंकि माओ मानता है कि, “तटस्थता एक प्रकार सैद्धान्तिक प्रवंचना है।’ विश्व के देश या तो साम्राज्यवादी गुट के होंगे अथवा समाजवादी गुट के। साम्राज्यवाद सभी देशों में जन-विरोधी प्रतिक्रियावादियों को सहारा देता है, उपनिवेशों पर बल प्रयोग से अपना स्वामित्व बनाता है, सैनिक अड्डों पर अधिकार करता है, परमाणु युद्ध की धमकी देता है तथा सर्वत्र उत्पीड़न करता है। समाजवादी शक्तियाँ संगठित होकर साम्राज्यवादी शक्ति का अनिवार्य रूप से विनाश करेगी, जैसे कि राष्ट्रीय जीवन में श्रमिक वर्ग पूँजीवाद का विनाश करता है। सारांश रूप में साम्राज्यवाद में अन्तर्विरोध है और यह अपने अन्तर्विरोधों के कारण विस्फोट करेगा और एक वर्गहीन-विश्व का निर्माण करेगा। युद्ध अन्तर्विरोधों को हल करने के लिए किए जाने वाले संघर्ष का सर्वोच्च रूप है और जब राष्ट्रों अथवा राजनीतिक समूहों के बीच के ये अन्तर्विरोध विकसित होकर एक निश्चित मंजिल पर पहुँच जाते हैं, युद्ध प्रारंभ होता है। जैसे युद्ध का जन्म निजी सम्पत्ति और वर्गों के उदय के साथ भी जुड़ा हुआ है। युद्धों की व्याख्या करते हुए माओ बताता है कि इतिहास में और विशेषकर आधुनिक काल में युद्ध के दो प्रकार रहे हैं क्रान्तिकारी युद्ध तथा क्रान्ति-विरोधी युद्ध। साम्यवादी क्रान्तिकारी युद्ध के समर्थक हैं। स्पष्ट है कि माओवाद युद्धवाद का सैद्धान्तिक आधार पर समर्थन करता है। अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सहयोग सह-अस्तित्व के लिये उसके शब्दकोष में स्थान नहीं है। माओ का विचार है कि जब तक शोषण है तब तक युद्ध रहेंगे।

(ङ) गुरिल्ला युद्ध (Guerrilla Warfare)

युद्ध के अनेक प्रकारों में ‘गुरिल्ला युद्ध का अपना विशिष्ट स्थान व महत्व है। यह युद्ध शत्रु के प्रबल होने पर किया जाता है। यह ऐसी लड़ाई है जो शत्रु द्वारा अधिकृत प्रदेश में उन सशस्त्र व्यक्ति समूहों द्वारा लड़ी जाती है, जो किसी संगठित सेना का भाग नहीं होते। इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती कि वे शत्रु के साथ सीधी लड़ाई कर सकें। अतः उनकी कोशिश यही रहती है कि शत्रु के ऊपरं चोरी-छिपे आक्रमण किए जाएँ।

माओ ने किसानों को संगठित करके इसी ‘गुरिल्ला युद्ध’ या छापामार प्रणाली के द्वारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद को एशिया के एक अविकसित देश में स्थापित करने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। सुन तजयू की युद्ध कला से प्रेरित होकर माओ ने सोचा कि छापामार युद्ध का सहारा लेकर ही सैनिक दृष्टि से कमजोर कोई संगठन एक शक्तिशाली सेना की चुनौतियों का सामना कर सकता है और धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ा सकता है। माओ के अनुसार “छापामार युद्ध” एक ऐसा हथियार है जिससे अस्त्र-शस्त्रों और सैनिक साज-सामानों की दृष्टि से कमजोर राष्ट्र अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली हमलावार देश के खिलाफ संघर्ष कर सकता है।

माओ का उद्देश्य तत्कालीन भ्रष्ट शासन के विरुद्ध जनता को संगठित कर ग्रह युद्ध को भड़काना था। इसके लिये उसने क्रान्तिकारियों को एक सेना के रूप में संगठित किया और उन्हें छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देकर ‘गुरिल्ला युद्ध’ प्रारम्भ किया। माओ ने इस युद्ध के माध्यम से जितनी भूमि को शासन के अधिकार क्षेत्र से मुक्त कराया, वहाँ किसानों के हितों को ध्यान में रखकर भूमि सुधार के कार्य करवाए गए। उसकी सेना युद्ध करने के साथ ही आर्थिक, सामाजिक एवं भूमि सुधार करने वाला राजनीतिक दल भी थी। जिसकी अपनी सर्वहारावर्गीय चेतना भी थी। वह पुरानी अत्याचार व्यवस्था के प्रत्येक स्वरूप से लड़ने के लिये तैयार रहती थी।

माओ के अनुसार लाल सेना का उद्देश्य केवल लड़ना न होकर जनता में आन्दोलन करना, उसे सुसंगठित और शस्त्रसज्जित करना तथा राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने में उसे सहायता देना भी है। उसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को मूलतः जनसंगठन की प्रक्रिया बना दिया। उसने अपनी सेना को सीधे शत्रु से युद्ध करने में सक्षम मानने के बजाय उसे शत्रु को गाँवों में उलझाने का साधन बना लिया। इन ग्रामीण क्षेत्रों में शत्रु को अपनी पूर्ण संगठित जनता के बीच में पछाड़ा जा सकता था। माओ के शब्दों में, ‘शत्रु आगे बढ़ता है, हम पीछे हटते हैं, शत्रु खाई खोदता है, हम उसे परेशान करते हैं, वह चूकता है, हम उस पर हमला करते हैं, वह पीछे हटता है, हम उसका पीछा करते हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों को मुक्त करा के शहरों की ओर बढ़ना माओवादी क्रान्ति की सबसे बड़ी विशिष्ट तकनीक थी। शहरों को विजय करने के ‘असफल’ प्रयासों ने ही उसे शनैः-शनैः ग्रामीण क्षेत्रों से दीर्घकालीन गुरिल्ला युद्ध की राजनीति को अपनाने के लिये प्रेरित किया। इस प्रकार क्रमशः शासन सत्ता के अधिकार क्षेत्रों को छीनकर क्रान्ति को बड़े-बड़े नगरों की ओर विकसित किया जा सकता था। माओ ने मार्क्स के निरन्तर क्रान्ति के सिद्धान्तों को चीनी परिस्थितियों के सन्दर्भ में संगतिपूर्ण बनाने का प्रयास किया।

क्या माओ दर्शन शक्ति का दर्शन है संक्षेप में समझाइए।

माओ की यह बहुत प्रसिद्ध उक्ति है कि, “राजनीतिक शक्ति बन्दूक की नली से उत्पन्न होती है इसलिए राजनीतिक शक्ति को सैनिक शक्ति से पृथक् नहीं किया जा सकता है।” इसके अनुसार साम्यवाद की उपलब्धि और सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिए सैनिक शक्ति आवश्यक है। माओ शक्ति का पुजारी था। उसके शक्ति सम्बन्धी विचार 1917 में लिखे गए ‘भौतिक संस्कृति का अध्ययन’ निबन्ध में मिलते हैं। इसमें उसने चीनी राष्ट्र के लिए शक्ति, सैनिक भावना, शारीरिक शिक्षा तथा इन्हें प्राप्त करने के लिए नवीन प्रेरणा की आवश्यकता पर बल दिया।

माओ ने चीनी साम्यवादी क्रान्ति का सफलतापूर्वक संचालन करने के लिए क्रान्तिकारियों की एक सशस्त्र सेना का संगठन किया था और इन क्रान्तिकारियों को ‘गुरिल्ला युद्ध’ का गहन प्रशिक्षण प्रदान किया था। चीन में साम्यवादी क्रान्ति की सफलता के बाद जब देश का राजनीतिक नेतृत्व भी माओ के हाथ में आ गया तो माओ ने देश में एक विशाल एवं सुसंगठित सेना का निर्माण किया। सेना को पूर्ण निष्ठावान बनाए रखने के लिए और समाज में रूढ़िवादी, दक्षिणपन्थी एवं अन्य क्रान्तिकारी तत्वों का उन्मूलन करने के लिए माओ ने अनेक अभियान चलाए। इनमें से सैकड़ों पुष्पों को खिलने दो’ (Let a hundred flowers blossom) मस्तिष्क की शुद्धि तथा आत्मालोचना (Brain-Washing and Self-criticism) के अभियान एवं माओ संहिता द्वारा सेना, छात्रों तथा जनसाधारण को सामाजिक जीवन के विविध क्षेत्रों में माओ के उपदेश पर अन्धश्रद्धा रखने की प्रेरणा देना, आदि प्रमुख हैं। यद्यपि ये सभी तकनीकें माओ द्वारा संचालित तथाकथित सांस्कृतिक क्रान्ति के अंग है, परन्तु उनका मुख्य उद्देश्य साम्यवादियों के विरोधियों का दमन करना तथा शक्ति के आधार पर जनता को साम्यवादी नीतियों का अन्धानुकरण करने को विवश करना है।

इस प्रकार माओ का स्पष्ट मत था कि केवल हिंसा के द्वारा ही एक वर्ग दूसरे वर्ग के अधिकारों को समाप्त कर सकता है। स्वयं माओ ने भी शक्ति के आधार पर ही सत्ता प्राप्त की थी। वह सेना को राजसत्ता का प्रमुख अंग मानता है। जो कोई भी राजसत्ता पर नियन्त्रण करना चाहता है और उसको बनाए रखना चाहता है, उसके पास एक सुदृढ़ शक्तिशाली सेना का होना आवश्यक है।

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Pankaja Singh

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