लेनिन का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त | Lenin’s theory of dialectical materialism in Hindi
लेनिन का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त
लेनिन ने जहाँ एक व्यवहारकुशल नेता के रूप में संगठन इत्यादि के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है वहीं उन्होंने दार्शनिक प्रश्नों की भी व्याख्या की है। मेटीरियलिज्म एण्ड एम्पीरिओ-क्रिटिसिज्म (1909) में उन्होंने इस प्रकार का कार्य किया है। मार्क्स ने जिस द्वन्द्वात्मक प्रणाली का प्रतिपादन किया था, लेनिन ने भी मार्क्स के विचारों के अनुरूप द्वन्द्वात्मक प्रणाली की विवेचना की है। द्वन्द्वात्मक प्रणाली क्या है, यह पद्धति किस प्रकार कार्य करती है, उसका क्या स्वरूप है, उसका सामाजिक एवं प्राकृतिक विज्ञानों से क्या सम्बन्ध है, इत्यादि ऐसे दार्शनिक प्रश्न हैं जिनका उत्तर लेनिन ने मेटीरियलिज्म एण्ड एम्पीरियो-क्रिटिसिज्म ग्रंथ में देने का प्रयास किया है। सेबाइन का मत है कि इस पुस्तक का एक उद्देश्य और भी था। लेनिन अपने समय के दलीय सैद्धान्तिक कलहों का भी उत्तर देना चाहता था। इस पुस्तक के द्वारा लेनिन ने उस कार्य को भी पूरा किया है।
लेनिन के मेटीरियलिज्म एण्ड एम्पीरियो-क्रिटिसिज्म का दार्शनिक तर्क बहुत साधारण और पूर्णतः अगम्भीर था। एंगल्स की भाँति उसकी मान्यता थी कि प्रत्येक दर्शन को या तो आदर्शवादी होना चाहिए या भौतिकवादी। इसके सिवाय कोई तीसरा विकल्प नहीं है। तीसरा विकल्प केवल बहाना या भ्रम होता है। आदर्शवाद, धर्मवाद का दूसरा नाम है क्योंकि पारलौकिक कल्पनाओं की रचना धर्म गुरुओं द्वारा जनता को धोखा देने के लिए की गई है। वैज्ञानिक दार्शनिक अर्नेस्ट माच का वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद, जिसका खण्डन करना लेनिन का वास्तविक उद्देश्य था, भौतिकवाद और आदर्शवाद से अपने आपको भिन्न सिद्धान्त सिद्ध करना चाहता था। लेनिन ने वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद को ह्यरुम और काण्ट की परम्परा का अनुसरण करने वाला दर्शन घोषित किया। इन विचारधाराओं का खण्डन कर लेनिन ने अपने भौतिकवाद का प्रतिपादन किया। लेनिन के विचारानुसार यथार्थता अथवा भौतिक शक्ति हमारी बोध-शक्ति से स्वतन्त्र रहती है। पौतिक पदार्थ हमारी इन्द्रियों पर प्रभाव डालता है। हमारे विचार भौतिक पदार्थ को प्रतिबिम्बित करते हैं अथवा भौतिक पदार्थ की छाया या उसके चित्र हमारे मस्तिष्क में पैदा होते हैं। यहाँ तक हम लेनिन को मार्क्स और एंगल्स के भौतिकवाद को मान्यताओं की पुनरावृत्ति करते हुए देखते हैं कि भौतिक पदार्थ प्राथमिक है और मनुष्य की चेतना उस भौतिक पदार्थ की छाया मात्र है। मार्क्स एवं एंगल्स की भाँति लेनिन की भी मान्यता थी कि जो भी दर्शन भौतिक पदार्थ के वस्तुपरक अस्तित्व पर बल नहीं देता वह दर्शन कभी भी पूर्णतः भौतिकवादी नहीं हो सकता। भौतिक पदार्थ के अस्तित्व को अस्वीकार करने का अर्थ सत्य को अस्वीकार करना है। लेनिन कहता है कि मानवीय चेतना चित्त की उत्पत्ति नहीं ऐसा मानने से आत्म-तत्व को अनावश्यक प्रधानता मिलेगी। यथार्थता यह है कि मनुष्य की चेतना भौतिक तत्व का प्रतिबिम्ब मात्र है। सारांश में लेनिन का मत था कि मार्क्स के भौतिकवादी सिद्धान्त का अनुसरण करने पर हम वस्तुनिष्ठ सत्य के समीप पहुँच सकते हैं। किसी दूसरे मार्ग का अनुसरण करने पर असत्य और भ्रम मिलेगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि लेनिन के भौतिकवाद में मार्क्स के भौतिकवाद की पुनरावृत्ति हुई है। हाँ, कुछ क्षेत्रों में लेनिन ने इस द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का विस्तार एवं नवीनता के साथ प्रयोग किया है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त का उपयोग मार्क्स ने सामाजिक अध्ययन के लिये किया था। लेनिन ने भी यही कार्य किया, लेकिन एक अन्तर के साथ। लेनिन ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का विज्ञान के साथ सम्बन्ध प्रदर्शित करने का नवीन प्रयास किया। मार्क्स ने यह कार्य इस धारणा के साथ नहीं किया कि भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र जैसे विज्ञान निर्जीव प्रकृति का अध्ययन करते हैं और ये शास्त्र पर्याप्त रूप से अद्वन्द्वात्मक भौतिक तरीके से अध्ययन कर लेते हैं परन्तु लेनिन मार्क्स की इस धारणा को स्वीकार करने के लिये तत्पर नहीं थे। अर्नेस्ट माच के सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए लेनिन के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह ‘नवीन’ भौतिकशास्त्र, गैर-न्यूटनवादी यन विज्ञान और गैर-यूक्लिडियन ज्यामिति को भी ध्यान में रखता। लेनिन का तर्क था कि ये विज्ञान इसलिए जटिल लगते हैं क्योंकि भौतिक-शास्त्रियों एवं गणितज्ञों ने अपने आप को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रणाली से शिक्षित-दीक्षित नहीं किया है। यदि वे वैज्ञानिक यह सीख लेते कि द्वन्द्वात्मक प्रणाली सब अन्तरों को सापेक्ष सिद्ध करती है तो उनको यह जानकर आश्चर्य एवं भ्रम नहीं होता कि कभी पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है और कभी ऊर्जा पदार्थ में। संक्षेप में, लेनिन की द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की जो धारणा थी, उसके अनुयायियों द्वारा उसे विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में एक स्वीकृत सार्वजनीन पद्धति के रूप में मार्ग-निर्देशन के नाते स्वीकार कर लिया गया। उसके अनुयायी विश्वास करने लगे कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक गणितज्ञ की यूक्लिडियन एवं गैर-यूक्लिडियन ज्यामिति के ज्ञान को ठीक कर सकता है और एक भौतिकशास्त्री को पदार्थ और विद्युत के ‘सही’ सम्बन्धों के बारे में शिक्षित कर सकता है। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि लेनिन के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त की सत्यता को मानकर उसके अनुयायियों ने उसके सिद्धान्त को जीवशास्त्र के नियमों पर लागू किया एवं कला और साहित्य के सौन्दर्यात्मक गुणों तक का मूल्यांकन करने के लिए उसे मापदण्ड स्वीकार किया। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सम्बन्ध सामाजिक विषयों के अध्ययन के बहुत समीप है। लेनिन का आग्रह था कि दर्शन एवं सामाजिक शास्त्र अनिवार्य रूप से पक्षपाती होते हैं। उसका कथन था कि अर्थशास्त्र के प्राध्यापक पूँजीवादी वर्ग के विचारों के और. दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक धर्मशास्त्र के कुशल विक्रेता है। समाज का वैज्ञानिक सिद्धान्त अधिक से अधिक इतना ही कर सकता है कि वह आर्थिक एवं ऐतिहासिक विकास के नियमों की सामान्य रूपरेखा प्रस्तुत करे।
इसलिए अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र और राजनीति-शास्त्र में वैज्ञानिक तटस्थता अथवा निष्पक्षता संभव नहीं है। वे केवल स्वार्थी हितों की पुष्टि मात्र करते हैं। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अन्तर्गत सामाजिक विज्ञान की दो प्रणालियाँ हैं पहली प्रणाली मध्यम वर्ग के हितों के लिये निर्मित की जाती हैं और दूसरी प्रणाली सर्वहारा वर्ग के हितों के लिए। इसी प्रकार का विभाजन पूँजीवादी ‘एवं सर्वहारावादी कला के बीच भी पाया जाता है। सर्वहारा वर्गीय सामाजिक विज्ञान एवं कला बुर्जुआ के सामाजिक विज्ञानों से श्रेष्ठ एवं निश्चित होते हैं। इसका कारण यह है कि द्वन्द्ववाद यह सिद्ध करता है कि सर्वहारा आरोही वर्ग है और सामाजिक प्रगति के क्षेत्र में अग्रणी है। इसके विपरीत, मध्यम वर्ग पूँजीवाद का सहारा लिए समाजवाद के प्रगतिचक्र को रोकता है। इसलिए मध्यम वर्ग का विज्ञान गतिहीन, पतनशील एवं प्रतिक्रियावादी है।
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