भाषा विज्ञान

रूपिम की अवधारणा | रूपग्राम के परिवर्तन के कारण

रूपिम की अवधारणा | रूपग्राम के परिवर्तन के कारण

रूपिम अथवा रूपग्राम (Morpheme)

रूप या पद वे अवयव अथवा घटक हैं, जिनसे वाक्य निर्माण होता है। उसके रसोई घर में सफाई होगी’ वाक्य में पांच पद या रूप हैं, जिन्हें सामान्य भाषा में शब्द कहा जाता है। इन रूपों में सभी एक प्रकार के नहीं हैं। कुछ तो छोटे से छोटे टुकड़े हैं, उन्हें और छोटे खण्डों में विभाजित नहीं किया जा सकता है जैसे ‘में’। कुछ को छोटे खण्डों में बाँटा जा सकता है, जैसे रसोईघर को ‘रसोई’ और ‘घर’ में। यदि घर को और छोटे टुकड़े में बाँटना चाहे तो ‘घ’ और ‘र’ कर सकते हैं, यद्यपि इनमें न तो ‘घ’ का कोई अर्थ है और न ‘र’ का ही इसलिए ये दोनों खण्ड तो हैं, किन्तु सार्थक नहीं हैं। भाषा या वाक्य की लघुतम सार्थक इकाई को रूपग्राम अथवा रूपिम कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि वह उपर्युक्त वाक्य में उस के, रसोई, घर, में, साफ, ई, हो, ग, ई, ये दस रूपिम हैं। रूपिम के भेद दो आधारों पर किये जा सकते हैं। रचना और प्रयोग की दृष्टि से रूपग्राम प्रमुखतः दो प्रकार के होते हैं-

(क) मुक्त रूपिम (free morpheme)- जो अकेले अथवा अलग से भी प्रयोग में जाए जा सकते हैं। उपर्युक्त वाक्य में रसोई, घर, साफ, इसी प्रकार के हैं। ये अलग, मुक्त या स्वतंत्र रूप से भी आ सकते हैं (जैसे रसोईघर)।

(ख) आबद्ध रूपिम (bound morpheme)- जो अलग नहीं आ सकते हैसे, ‘ता’ (एकता सुन्दरता) या ई (जैसे घोड़ी लड़की, खड़ी आदि में) आदि। इन दो के अतिरिक्त एक तीसरा प्रकार भी कुछ लोग मानते हैं, जिसे (ग) अद्वैबद्ध, अर्द्धमुक्त, मुक्तबद्ध या बद्धमुक्त की संज्ञान दी गई है। इस तीसरे वर्ग में ऐसे रूपिम आते हैं जो अर्द्धबद्ध होते हैं और आधे मुक्त या जो एक दृष्टि से आधे मुक्त कहे जा सकते हैं तो दूसरी दृष्टि से बद्ध। अंग्रेजी का इसी प्रकार का है यह किसी अन्य रूपिम से मिलता नहीं है सर्वदा अलग रहता है, इसलिए मुक्त है, लेकिन साथ ही वह सर्वदा किसी के लिए आश्रित रहता है, या अकेले ही किसी भी प्रकार की रचना का निर्माण नहीं कर सकता है, अतः बद्ध है। हिन्दी के परसर्ग (ने, को, में, से) जब संज्ञा शब्दों के साथ आते हैं। (राम से, मोहन को) तो अलग रहते हैं, यद्यपि सर्वनाम के साथ ये बद्ध रूपिम (जैसे उसने, मुझसे, तुमको) आदि हो जाते हैं। तात्विक दृष्टि से इस भेद को अलग नहीं रखा जा सकता, क्योंकि स्थान की दृष्टि से अलग होकर भी अर्थ की दृष्टि से यह हमेशा बद्ध रहते हैं। बद्ध रूपिम के तीन उपभेद करके इन्हें समाहित किया जा सकता है-

(अ) मुक्त- जो अर्थ की दृष्टि से बद्ध होकर भी स्थान की दृष्टि से हमेशा मुक्त रहते हैं जैसे अंग्रेजी के from with आदि (ब) बद्ध-जो स्थान की दृष्टि से सर्वदा मुक्त रहते हैं जैसे अंग्रेजी (ly, ness, ed), संस्कृत (अ,अम्) या हिन्दी (ई, आई) आदि के प्रत्यय। (स) बद्धमुक्त-जो कभी तो बद्ध रहते हैं और कभी मुक्त। जैसे हिन्दी परसर्ग, जो संज्ञा के साथ मुक्त रहते हैं (जैसे राम को) और सर्वनाम के साथ बद्ध (जैसे उसको)

रचना और प्रयोग के आधार पर ही रूपिम के दो अन्य भेदों का उल्लेख भी यहाँ किया जा सकता है। जब दो या इससे अधिक ऐ से रूपिम एक में मिलते हैं, जिनमें अर्थतत्व एक ही (जैसे ऊपर के वाक्य में ‘उसके’, ‘सफाई’, ‘होगी’) तो उस पूरे रूपिम को संयुक्त रूपिम कहा जाता है। ऊपर के वाक्य में ‘रसोईघर’ मिश्रित रूपिम ही है।

अर्थ और कार्य के आधार पर रूपिम के दो भेद होते हैं-

(क) अर्थदर्शी रूपिम- जिनका स्पष्ट रूप में अर्थ होता है और अर्थ व्यक्त करने के अतिरिक्त जो और कोई कार्य नहीं करते हैं। इन्हीं को अर्थतत्व भी कहा गया है। प्राचीन व्याकरण में इन्हें ही (tem, road) धातु, मस्दर या माद्दा कहा है। विचारों का सीधा सम्बन्ध इन्हीं से होता है। भाषा के मूल आधार ये ही हैं। व्याकरणिक अथवा प्रयोगिक दृष्टि से ये अनेक प्रकार के हो सकते है- जैसे क्रिया (हो, खा, go भू) संज्ञान (राम, cat किताब), सर्वनाम (वह, तुम), विशेषण (अच्छ, बड़, सुन्दर good) आदि। प्रत्येक भाषा में इस वर्ग के रूपिमों की संख्या हजारों में होती है। दूसरे प्रकार के रूपिमों से बहुत अधिक।

(ख) सम्बन्धदर्शी रूपिम या कार्यात्मक रूपिम- इन्हें निरर्थक तो नहीं कहा जा सकता है किन्तु यह कहना अनुचित न होगा कि इनमें अर्थ की प्रमुखता नहीं होती। इनका प्रमुख कार्य होता है। सम्बन्ध-दर्शन या व्याकरणिक। इसलिए इन्हें सम्बन्धत्व भी कहा गया है। यों इन्हें व्याकरणिक तत्व कहना सम्भवता अधिक ठीक होगा। संस्कृत में प्रत्यय, तिङ, सुप या हिन्दी में परसर्ग प्रत्यय आदि यही हैं। इनके अनेक भेद होते हैं।

इस प्रसंग में ‘संबंध’ शब्द अत्यधिक व्यापक है। इनमें यह भाव तो है ही कि ये रूपिम एक शब्द का सम्बंध वाक्य में दूसरे से दिखाते हैं, साथ ही ये लिंग वचन, पुरुष काल, वृत्ति अथवा अर्थ और भाव (बार-बार आधिक्य) आदि की दृष्टि से अर्थदर्शी, रूपिम में परिवर्तन भी लाते हैं। (जैसे ‘लड़क’ अर्थ दर्शी रूपग्राम है। इसमें ‘ई’, ‘आ’, ‘इयाँ’, ‘इयों’, ‘ए’ होर, आदि सम्बन्धदर्शी रूपिम या सम्बन्ध तत्वों को जोड़कर लड़की, लड़का, लड़कियाँ, लड़कियों, लड़के, लड़कों आदि संयुक्त रूपिम अथवा रूप या पद बना सकते हैं। इसीलिए इन्हें कार्यात्मक रूपिम कहना अधिक उचित होगा। इस श्रेणी के रूपिमों की संख्या प्रत्येक भाषा में कुल सौ से अधिक नहीं होती है, अर्थात् अर्थदर्शी रूपिमों से बहुत कम होती है।

कुछ भाषाशास्त्री के आधार पर भी रूपिम के दो भेद करते हैं। एक तो (क) खण्ड रूपिम, जिन्हें तोड़कर पृथक किया जा सके। ऊपर के समस्त रूपिम इसी तरह के हैं। दूसरे (ख) अखण्ड रूपिम हैं। बलाघात सुर या सुरलहर आदि रूप में स्वीकृत रूपिम इसी श्रेणी के हैं। इन्हें दो टूक रूप में खण्डित नहीं किया जा सकता है। ध्वनिमविज्ञान में भी इसीलिए इन्हें अखण्ड कहा गया है।

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Pankaja Singh

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