भाषा विज्ञान

वैदिक भाषा की ध्वन्यात्मक विशेषतायें | स्वनिम भाषा की लघुत्तम इकाई है, कैसे? | स्वन विज्ञान का स्वरूप | स्वन का वर्गीकरण | स्वन के उच्चारणों में कोमल तालु | स्वर गुण

वैदिक भाषा की ध्वन्यात्मक विशेषतायें | स्वनिम भाषा की लघुत्तम इकाई है, कैसे? | स्वन विज्ञान का स्वरूप | स्वन का वर्गीकरण | स्वन के उच्चारणों में कोमल तालु | स्वर गुण

वैदिक भाषा की ध्वन्यात्मक विशेषतायें

वैदिक भाषा की ध्वनियों की निम्न विशेषतायें हैं-

  1. मौलिक भारोपीय ध्वनियों ‘अ’, ‘ऐ’, ‘ओ’ के स्थान पर केवल ‘अ’ मूल स्वर ही शेष रह गया है।
  2. मूल भारोपीय तीन मूल दीर्घ स्वरों ‘आ’, ‘ए’, ‘ओ’ के स्थान पर वैदिक में केवल एक आ’ स्वर ही शेष रह गया है।
  3. मूल भारोपीय में प्राप्त ‘न’, ‘म’ अन्तस्थ ध्वनियों का वैदिक में लोप हो गया।
  4. मूल भारोपीय में तीन प्रकार की ‘क’ वर्ग की ध्वनियाँ थी लेकिन वैदिक में एक ही प्रकार की ‘क’ वर्ग (क, ख, ग, घ) ध्वनियाँ है।
  5. मूल भारोपीय में ‘च’ वर्ग तथा ‘ट’ वर्ग का नितान्त अभाव था जबकि वैदिक ध्वनियों में दोनों आ गये हैं।
  6. मूल भोरोपीय में उष्म ‘स’ ध्वनि एक थी। वैदिक में इसके साथ ही ‘श’, ‘ष’ ध्वनियाँ आ गई थी।
  7. वैदिक भाषा में प्लूत उच्चारण पाया जाता है।
  8. वैदिक भाषा में संगीतात्कता का अधिक महत्व है। इसमें स्वर तीन प्रकार के पाये जाते हैं- उदात्त, अनुदात्त, स्वरित ।
  9. भाषा विज्ञान की दृष्टि से वैदिक स्वराघात प्रधान भाषा है।

स्वनिम भाषा की लघुत्तम इकाई है, कैसे?

ध्वनियों के साथ-साथ इनके उच्चारण स्थान का भी अध्ययन ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत होता है। ध्वनियों का उच्चारण जिन अंगों से होता है उन्हें समग्र रूप में ‘वाग्यन्त्र’ कहते हैं। ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत इस वाग्यतन्त्र की रचना, इसके विभिन्न अंगों के कार्य आदि का अध्ययन होता है। वाग्यन्त्र के कई अंग होते हैं जिनसे विभिन्न ध्वनियों का उच्चारण होता है। जैसे ओष्ठ्य अंग से ‘पवर्ग’ ध्वनियों का, कण्ठ अंग के ‘कवर्ग’ की ध्वनियों का उच्चारण होता है। ध्वनि विज्ञान के अन्दर इन ध्वनियों के साथ-साथ ध्वनि उच्चारण के स्थानों का ही सम्यक् अध्ययन होता है।

वाग्यन्त्र के साथ-साथ ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत ध्वनियों के अंदर जो विभिन्न प्रकार के परिवर्तन होते हैं उनके कारणों और दिशाओं का भी अध्ययन ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत होता है। इन कारणों और दिशाओं के अध्ययन का आधार वैज्ञानिक होता है अर्थात् सम्यक रूप से यह अनुशीलन होता है कि ध्वनि परिवर्तन के इन कारणों और दिशाओं का आधार क्या है और इन परिवर्तनों का रूप क्या होता है।

ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत ध्वनि सम्बन्धी एक और महत्वपूर्ण विषय का अध्ययन होता है, जिसका नाम है ध्वनि नियम ये ध्वनि नियम विभिन्न प्रकार की ध्वनि परिवर्तनों को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं। इसके अन्तर्गत इस बात का अध्ययन होता है कि इन नियमों का सम्बन्ध किस भाषा से है, किस काल विशेष से है और इनका कार्य किन सीमाओं के अन्दर रहकर सम्पादित होता है। उदाहरण के लिए हम ग्रिम नियम को ले सकते हैं जो कि एक प्रसिद्ध ध्वनि नियम है।

स्वन विज्ञान का स्वरूप

अथवा

स्वन का वर्गीकरण

भाषा का आरम्भ ही स्वन से होता है। स्वन के अभाव में भाषा की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। भाषा विज्ञान का मुख्य कार्य क्षेत्र स्वन मूलक भाषा ही है। इसलिए स्वन का विवेचन आवश्यक है। स्वन के तीन पक्ष होते हैं- उत्पादन, संवहन और ग्रहण। इनमें उत्पादन और ग्रहण का सम्बन्ध शरीर से है तथा संवहन का सम्बन्ध वायु तरंगों से है। वक्ता के मुख से निःसृत स्वन श्रोता के कान तक पहुंचता है।

स्वन के उत्पादन के लिए वक्ता जितना आवश्यक है उतना ही उसके ग्रहण के लिए, श्रोता भी आवश्यक है। किन्तु वक्ता और श्रोता के बीच यदि स्वन के संवहन का कोई माध्यम न हो तो उत्पन्न स्वन भी निरर्थक हो जायेगा। यह कार्य वायु तरंगों के द्वारा सम्पन्न होता है। इस प्रकार उच्चारण, संवहन और श्रवण के आधार पर स्वन विज्ञान की तीन शाखायें होती हैं-

(1) उच्चारण मूलक स्वन विज्ञान- इसमें स्वनियां का अध्ययन उनके उच्चारण प्रयुक्त वाक् अवयवों की संचालन प्रक्रिया के आधार पर होता है अर्थात् विभिन्न भाषायी स्वनियों के उच्चारण में कौन से अंग किस प्रकार सहायता करते हैं।

(2) संवहन मूलक स्वन विज्ञान- इसमें स्वनियों का अध्ययन एवं विश्लेषण तरंगों के रूप में किया जाता है। स्वनियों के उच्चारण में निहित विशेषताओं की पहचान यन्त्रों द्वारा तरंगों के रूप में की जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् स्वनिम की इस शाखा का अत्यधिक विकास हुआ है।

(3) श्रवण मूलक स्वन विज्ञान- श्रवणेन्द्रिय द्वारा स्वनियों को ग्रहण किये जाने की क्रियाओं का वर्णन एवं विश्लेषण श्रवण मूलक स्वन विज्ञान के अन्तर्गत होता है। वक्ता द्वारा उच्चरित ध्वनि तरंगों के रूप में श्रोता तक पहुँचती है। वस्तुतः उच्चरित स्वनियों को ग्रहण कर कान उन्हें मस्तिष्क को प्रेषित करते हैं। अतः कानों का कार्य सम्प्रेषक का है। इसके बाद इस ध्वनि से जो अर्थगत धारणा बनती है उसका निश्चय और निर्णायक का कार्य मस्तिष्क करता है।

स्वन के उच्चारणों में कोमल तालु

उच्चारण स्थान की दृष्टि से मुख विवर के सर्वोच्च भाग को मूर्द्धा कहते हैं। मूर्द्धा से गले की तरफ जाते समय मुख का जो भाग है, उसे कोमल तालु कहा जाता है। तालु का अर्थ है। निचला तालु में बाहर और भीतर दोनों तरफ ढाल होती है। मसूढ़े के ऊपर का भाग भी तालु है और दूसरी तरफ का भाग भी तालु है। वाह्य तालु की अपेक्षा भीतरी भाग कोमल होता है। अतः उसे ही कोमल तालु कहते हैं कवर्गीय ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का पिछला भाग इसी तालु का स्पर्श करता है।

स्वर गुण

भाषा विज्ञान के अन्तर्गत स्वनों के रूप में मूलतः स्वर और व्यन्जन का अध्ययन होता है, किन्तु भाषा को मूर्त रूप देने में कतिपय अन्य तत्वों का योगदान भी महत्वपूर्ण होता है। ऐसे तत्वों को स्वनगुण कहा जाता है। स्वनगुण एक ही प्रकार के शब्दों में केवल उच्चारण भेद से अर्थ भेद उत्पन्न कर देते हैं। इसीलिए स्वन गुण का भाषा में विशेष महत्व होता है। सामान्यतः स्वन गुण उन्हें कहते हैं, जो स्थान और प्रयत्न के अतिरिक्त ध्वनियों के उच्चारण को प्रभावित करते हैं ये स्वयं स्वन नहीं होते, किन्तु अर्थ भेदक होते हैं। अतः इनकी गणना स्वनियों में की जाती है। स्वन गुण के अलावा इन्हें अभिखण्डीय अभिलक्षण भी कहा जाता है। स्वन गुण के पाँच भेद हैं-

(1) दीर्घता, (2) बलाघात, (3) सूर, (4) अनुतान, (5) संगम।

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Pankaja Singh

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