
भाषा विज्ञान के अध्ययन की दिशाएँ | भाषा विज्ञान की अध्ययन पद्धति | भाषा विज्ञान का वर्णात्मक अध्ययन
भाषा विज्ञान के अध्ययन की दिशाएँ
भाषा विज्ञान में भाषा का अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन विभिन्न दृष्टियों पर आधारित होता है। मुख्यतया भाषा विज्ञान के अध्ययन की दिशा वर्णनात्मक, ऐतिहासिक व तुलनात्मक है।
वर्णनात्मक अध्ययन- भाषा विज्ञान के अध्ययन की इस दिशा में किसी विशिष्ट भाषा का अध्ययन किया जाता है। वर्णनात्मक के विपरीत में ‘आदेशात्मक’ को रखा जा सकता है। ‘वर्णनात्मक’ भाषा विज्ञान भाषा के स्वरूप को केवल वर्णित करता है, यह प्रकट नहीं करता कि भाषा का यह रूप शुद्ध है अथवा अशुद्ध, मानक है अथवा अमानक। इसके विपरीत ‘आदेशात्मक’ में वर्णन न करके यह निर्धारित तथा आदेशित करते हैं कि अमुक भाषा में ऐसा बोलना तथा लिखना उचित है और ऐसा नहीं। हम कह सकते हैं कि व्याकरण यही कार्य करता है। ‘वर्णनात्मक अध्ययन’ यदि आज की हिन्दी का वर्णन करेगा तो केवल यह निष्कर्ष निकालेगा कि दिल्ली के निटकवर्ती लोग मुझे या मुझको जाना है’ के स्थान पर मैने जाना है’ बोलते हैं या पूरव के लोग कोट, रूमाल, तकिया, कलम आदि शब्दों को पुल्लिंग न बोलकर खीलिंग बालते हैं। किन्तु हिन्दी व्याकरण उपर्युक्त ने वाले प्रयोग को अशुद्ध मानेगा तथा उसके प्रयोग का वर्णन करेगा और कोट आदि शब्दों को पुल्लिंग ही मनेगा और यह संकेत देगा कि इन्हें सीलिंग रूप में प्रयोग में लाना गलत होगा। इस प्रकार ‘व्याकरण’ भाषा के प्रयोग को वैसे ही निर्धारित और आदेशित करता है, जैसे एक डाक्टर एक मरीज को दवा बताता है और व्याकरण प्रयोग्य-अयोग्य। इसके विपरीत वर्णनात्मक भाषा अध्ययन भाषा के प्रयोग में जो कुछ भी है उसका तटस्थ भाव से वर्णन मात्र करता है, यह चाहे शुद्ध हो अथवा अशुद्ध।
(1) एक कालिक भाषा विज्ञान- डॉ0 तिवारी की मान्यता है कि इसमें किसी भाषा का किसी एक समय का अध्ययन किया जाता है जैसे ‘आज की हिन्दी’ या वर्तमान हिन्दी का अध्ययन। यदि हिन्दी का अध्ययन या विश्लेषण करना है तो वह बहुकालिक या ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के अन्तर्गत आयेगा। डॉ तिवारी ने इसकी उपशाखाएं भी बतायी हैं –
(अ) वर्णनात्मक भाषा विज्ञान-जिस अध्ययन में ध्वनि संरचना शब्द संरचना, रूप सरचना, वाक्य सरचना अर्थ संरचना का वर्णन करते हैं, इसे व्याकरण भी कहा जा सकता है।
(ब) संरचनात्मक भाषा विज्ञान- सामान्यीकरण के द्वारा भाषा तत्वों की व्यवस्था से सम्बन्धित व्याख्या को संरचनात्मक भाषा विज्ञान कहा जाता है।
(2) बहुकालिक या ऐतिहासिक भाषा विज्ञान- इसे कालक्रमिक या ऐतिहासिक भाषा विज्ञान भी कहा जाता है। डॉ० तिवारी के अनुसार इसके अन्तर्गत किसी भाषा के इतिहास के कई काल बिन्दुओं के एक कलिक इतिहासाकारों को मिलाकर किसी भाषा के इतिहास’ या ‘विकास’ अथवा ‘उद्गम’ का अध्ययन होता है। अर्थात इसमें भाषा के परिवर्तन का अध्ययन समाहित रहता है। भाषा का आदि रूप क्या होगा किस प्रकार के परिवर्तन हुए और वह वर्तमान रूप में किस प्रकार से पहुँची। उसमें दो काल के भाषा विज्ञान को दिखाकर ही कुछ निष्कर्ष कनकाले जा सकते हैं। यथा वैदिक संस्कृति से लेकर आधुनिक अपभ्रंश आदि के रूप में परिवर्तित होते हुए वर्तमान हिन्दी में किस प्रकार परिवर्तन आया।
(3) तुलनात्मक भाषा विज्ञान- इसमें दो या अधिक भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही नई और पुरानी भाषाओं की तुलना, किसी प्राचीनभाषा से आधुनिक भाषा की तुलना, एक ही भाषा की विभिन्न बोलियों की तुलना की जाती है। लुप्त भाषाओं के स्वरूप का निर्माण करने में भी यह सहायक होती है। इसके अध्ययन में वर्णनात्मक और ऐतिहासिक पद्धतियों का समावेश हो जाता है।
यथा-जब किसी विशिष्ट काल की सम-सामयिक भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो वर्णनात्मक पद्धति का सहारा लिया जाता है और जब विभिन्न कालों में विकसित भाषा- ध्वनियों, पदों, वाक्यों आदि का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो ऐतिहासिक पद्धति को अपनाया जाता है।
“यह पद्धति अत्यनत महत्वपूर्ण पद्धति है। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना का मत है कि किसी भी विकसित भाषा का अध्ययन करने के लिए इस तुलनात्मक पद्धति का सहारा लेना पड़ता है। जैसे यदि हम हिन्दी की ध्वनियों एवं उसे रूपों का सम्यक अध्ययन करना चाहें तो हमें ब्रज, अवधि, खड़ी बोली, कन्नौजी आदि के रूपों का तुलनात्मक अध्ययन करना अभीष्ट रहेगा।
(4) व्यतिरेकी भाषा विज्ञान- ‘व्यतिरेक’ का अर्थ है ‘विरोध’ इसके अन्तर्गत दो भाषाओं की तुलना करके उनके ध्वनि रूप, वाक्य, अर्थ आदि के व्यतिरेक (विरोधी) तत्वों की भाषा शिक्षण तथा अनुवाद आदि के लिए ज्ञान करते हैं।
(5) अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान- इसे प्रयोगात्मक भी कह सकते हैं। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने इसके सम्बन्ध में तीन तथ्य स्पष्ट किये हैं-
(i) ज्ञान के किसी अन्य क्षेत्र को स्पष्ट करने के लिए भाषा विज्ञान, और उसके सिद्धान्तों के अनुप्रयोगों का प्रयोग, अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान है।
(ii) भाषा शिक्षण के लिए भाषा विज्ञान का प्रयोग इसी के अन्तर्गत आता है।
(iii) इसके अनुसार भाषा विज्ञानके सिद्धान्त का किसी भी अन्य विषय में अनुप्रयोग होता है।
डॉ० तिवारी की मान्यता है- आज लेखकों-कवियों की रैलियों का विवेचन, अनुवाद, भाषा-शिक्षण, कोश निर्माण, वाग्दोष सुधार, विज्ञान समाज-भाषा विज्ञान, मनोभाषा विज्ञान आदि को माना जा सकता है।
(6) समाज भाषा विज्ञान- समाज के परिपेक्ष्य भाषा का अध्ययन इसके अन्तर्गत आता है। इसमें भाषा और इसमें बोलने वाले समाज के बीच पाए जाने वाले समबन्धों का अध्ययन विश्लेषण होता है।
भाषा विज्ञान का वर्णात्मक अध्ययन
भाषा विज्ञान के अन्तर्गत किसी एक भाषा अथवा विविध भाषाओं का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन की विविध पद्धतियाँ प्रचलित हैं। कभी तो किसी एक ही काल की विशिष्ट भाषा के व्याकरणिक रूपों का सम्यक अनुशीलन किया जाता है जिसे भाषा विज्ञान की वर्णानात्मक पद्धति कहते हैं, और भारतीय व्याकरणों में प्रायः इसी पद्धति का प्रयोग मिलता है।
भाषा विज्ञान के वर्णनात्मक अध्ययन के अन्तर्गत किसी विशिष्ट काल की किसी एक भाषा के संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, प्रत्यय, विभक्ति आदि रूपों की वर्णनात्मक समीक्षा करते हुए उनकी ध्वनि, वाक्य रचना एवं उनके साधु-असाधु रूपों का सम्यक् अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन किसी एक भाषा के विशिष्ट कालीन विशिष्ट रूप में अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी होता है, क्योंकि इसके द्वारा उस काल में प्रचलित उस भाषा के सभी शिष्ट एवं अशिष्ट रूपों के निर्माण एवं प्रचलन का ठीक-ठाक ज्ञान प्राप्त हो जाता है। भाषा विज्ञान की इस पद्धति को भारतीय व्याकरणों के अन्तर्गत भली प्रकार देखा जा सकता है। इस क्षेत्र में पाणिनी का व्याकरण सर्वथा आदर्श माना जाता है क्योंकि इसमें संस्कृत भाषा का वर्णनात्मक अध्ययन बड़ी तत्परता और तल्लीनता के साथ किया गया है।
आजकल भाषा विज्ञान के क्षेत्र में वर्णनात्मक पद्धति की बहुलता दृष्टिगोचर होती है। इसमें किसी एक विशिष्ट भाषा की ध्वनि, रचना, रूप विकास, वाक्य रचना आदि का अध्ययन तो करते हैं किन्तु अर्थ का अध्ययन इसमें सम्मिलित करना समीचीन नहीं समझते। वे यह भूल जाते हैं कि भाषा की ध्वनि, भाषा के शब्द, वाक्य, रूप आदि तो उसके शरीर हैं और अर्थ आत्मा है। बिना आत्मा या प्राण के जिस प्रकार शरीर अपूर्ण होता है वैसे ही अर्थ के बिना भाषा के अन्य अंगों का का अध्ययन भी अपूर्ण एवं अपर्याप्त होता है। भाषा से अभिप्राय केवल ध्वनि, शब्द, रूप एतं वाक्य से नहीं होता, अपितु उनके अर्थ से भी होता है और अर्थ भाग ही भाषा को सार्थक और उपयोगी बनाता है। जैसे, यदि हम किसी ध्वनि को सुनते हैं या कोई शब्द सुनते हैं और उसका अर्थ नहीं जानते, तो वह हमारे लिए व्यर्थ होता है और उसकी हमारे लिए कोई उपयोगिता नहीं होती। उसी प्रकार ध्वनि विज्ञान, शब्द विज्ञान, पदविज्ञान या वाक्य विज्ञान का सम्यक अनुशीलन करने पर भी यदि किसी भाषा के अर्थविज्ञान का अध्ययन नहीं किया जाता तो वह अध्ययन अपूर्ण, अनुपयोगी एवं अपर्याप्त ही होता है। भाषा की ध्वनि, उसके शब्द, पद या वाक्य का जितना महत्व है उससे कहीं अधिक महत्व उसके अर्थ तत्व का भी यदि ऐसा न हो, तो पशु पक्षियों एवं मनुष्यों की भाषा में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। यह अर्थ ही वह भेदक है जिसके आधार पर मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों की भाषा में अन्तर दृष्टिगोचर होता है अतएव वर्णनात्मक पद्धति के अन्तर्गत अर्थ तत्व का भी सम्यक अध्ययन होना चाहिए।
भाषा विज्ञान – महत्वपूर्ण लिंक
- भाषा विज्ञान का अर्थ एवं स्वरूप | भाषा विज्ञान को समझने के लिए भारतीय एवं विदेशी विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं की विवेचना
- भाषा विज्ञान की परिभाषा | भाषा विज्ञान का क्षेत्र | भाषा विज्ञान का महत्व एवं उपयोगिता
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