भाषा विज्ञान

रूपिम के विभिन्न प्रकार | रूपिम के प्रकार्यों की विवेचना | रूपग्राम के भेद अथवा रूपिम के भेद

रूपिम के विभिन्न प्रकार | रूपिम के प्रकार्यों की विवेचना | रूपग्राम के भेद अथवा रूपिम के भेद

रूपिम के विभिन्न प्रकार

कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि कई रूपिमों का अर्थ एक ही होता है। यदि अंग्रेजी से उदाहरण लें तो संज्ञा शब्दों का एकवचन से बहुवचन बनाने के लिए ‘स’ (hats, cats, books, rops आदि) ‘ज’ (schools, eyes, woods, dogs) आदि ‘इज’ (horeses, bridges roses आदि), ‘इन’ (oxen), ‘रिन’ (children), तथा शून्य रूपिम (या सम्बन्ध तत्व) जैसे बहुवचन (sheep) आदि का प्रयोग किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि स, ज, इज, इन, रिन, शून्य रूपिम बहुवचन बनाने के वाले रूपिम हैं। इन सभी का आशय एक है, इसीलिए सम्भावना यह हो सकती है कि ये अलग-अलग रूपिम न होकर एक ही रूपयाम के अंग अथवा विभिन्न रूप हों। जिन दो या दो से अधिक समानार्थी रूपों के एक रूपिम के अंग होने का संदेह होता है, उन्हें ‘संदिग्ध समूह’ अथवा ‘संदिग्ध युग्म’ कहते हैं। लेकिन केवल संदिग्ध समूह अथवा संदिग्ध युग्म होने के आधार पर ही उन्हें एक रूपिम के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। संदेह मिटाने के लिए यह देखना होता है कि वे रूप परिपूरक वितरण में है अथवा नहीं। इसका आशय यह है कि जिन ध्वन्यात्मक या रूपात्मक परस्थितियों में एक रूप का प्रयोग किया जाता है, दूसरों का भी उन्हीं में  होता है, या सभी का अलग-अलग। यदि सभी का एक ही परिस्थितियों में प्रयोग किया जाता है तो इसका अर्थ यह है कि उनका आपस में विरोध है। एक के स्थान पर दूसरा भी आ सकता है। यदि ऐसा है तो उन्हें एक रूपिम का अंग (जिन्हें उपरूप अथवा संरूप (allomorph) कहते हैं।) नहीं माना जा सकता है। वे सभी अलग-अलग रूपिम हैं। किन्तु यदि परिपूरक वितरण में है, अर्थात् वितरण या प्रयोग की दृष्टि से सभी का स्थान अलग-अलग है, जहाँ एक आता है वहाँ दूसरा नहीं, और जहाँ दूसरा आता है वहाँ तीसरा नहीं, तो इसका आशय यह है कि उनका आपस में विरोध नहीं है और ऐसी स्थिति में वे सभी एक ही रूपिम के उपरूप हैं। ऊपर के उदाहरण में जब हम स, ज, इज, इन, रिन तथा शून्य रूपिम के वितरण का विश्लेषण करते हैं, तो यह देखते हैं कि ‘स’ तो ऐसे शब्दों के अन्त में आ रहा है, जिनके अन्त में स, श के अतिरिक्त और कोई अघोष व्यंजन हो, ‘ज’ ऐसे शब्दों के अन्त में आता है जिनके अन्त में ज को छोड़कर कोई घोष व्यंजन या कोई स्वर हो, ‘इज’ से शब्दों के अन्त में स, ज, या श ध्वनि हो, ‘इन’ केवल ऑक्स, ब्रदर आदि कुछ निश्चित शब्दों या रूपिमों के अन्त में आता है। इसी प्रकार ‘रिन’चाइल्ड के साथ और शून्य रूपिम भी केवल डीयर, शीप, काड आदि कुछ निश्चित शब्दों के साथ ही आता है। इसका आशय यह हुआ है कि ये आपस में विरोधी नहीं हैं और इनका वितरण परिपूरक है। विशिष्ट परिस्थितियों में एक आता है और इसमें दूसरा नहीं आता। अतएव इन्हें एक ही रूपिम के संरूप माना जा सकता है। हम कह सकते हैं कि यदि कई रूप (क) समानार्थी हों, (ख) एक प्रकार की रचना में आयें और (ग) परिपूरक वितरण में हों, अर्थात सबके आने की स्थिति निश्चित रूप से अलग अलग हो, विरोध न हो, या एक ही स्थिति में एक से अधिक न आते हों तो उन सबको एक ही रूपिम के उपरूप माना जाता है। उन्हीं उपरूपों में किसी एक को (जो प्रायः अधिक प्रयुक्त हों या जिसे मूल आधार मानकर ध्वन्यात्मक दृष्टि से अन्य को स्पष्ट किया जा सके) रूपिम की संज्ञान दे दी जाती है। उपर्युक्त बहुवचनों के प्रत्यय में कहा जा सकता है कि अंग्रेजी में संज्ञा शब्दों के बहुवचन बनाने में ‘ज’ रूपिम का प्रयोग किया जाता है। इस ‘ज’ से सं रूप ज, स, इज, इन, रिन तथा शून्य हैं। ‘ज’ घोष ध्वनियों से अन्त होने वाले शब्दों के साथ आता है। अघोष ध्वनियों से अन्त होने वाले शब्दों में ‘ज’ भी अघोष होकर ‘स’ हो जाता है। स, श, ज, से अन्त होने वाले शब्दों के अन्त में ‘ज’ का उच्चारण ठीक से नहीं हो सकता है अतः ऐसी स्थिति में बीच में एक स्वर (इ) आ जाता है और यह ‘इज’ हो जाता है, अर्थात् ‘ज’ रूपिम के ज, स, इज, उपरूप ध्वन्यात्मक परिस्थितियों के कारण परिपूरक वितरण में हैं, लेकन शेष तीन रूपात्मक या शब्दिक परिस्थितियों के कारण । क्योंकि कुछ विशेष शब्दों, रूपों, या रूपियों में इन, रिन या शून्य का प्रयोग होता है। यहाँ निष्कर्ष यह निकला कि परिपूरक वितरण ध्वन्यात्मक अथवा रूपात्मक अथवा दोनों परिस्थितियों पर निर्भर करता है। संक्षेप में-

→/ -.ज़/    

‘ज़’ को छोड़कर अन्य घोष ध्वन्यंत शब्दों के साथ

→/-.स/-    

‘स’ ‘श’ को छोड़कर अघोष ध्वन्यंत शब्दों के साथ

→/-इज़ /     

स, श, ज अंत्य शब्दों के साथ

→/-इन/     

ऑक्स, ब्रदर आदि कुछ सीमित शब्दों के साथ

→/-रिन /    

चाइल्ड के साथ

→/

डायर, कॉड आदि कुछ सीमित शब्दों के साथ

इसी प्रकार हिन्दी में बहुवचन के लिए-

रूपिक

उपरूप

वितरण

(ओ)

1./-ओं/

-सपरसर्ग शब्दों के लिए सभी शब्दों में। जैसे घरों, घोड़ों, कवियों, हाथियों, साधुओं, भालुओं, पुस्तकों, लताओं, गुड़ियों शक्तियों, लड़कियों, वस्तुओं, बहुओं, गौओं आदि।

 

2/-ओ/

-संबोधन में सभी शब्दों (घोड़ों, कवियों, साधुओं, आदि) के साथ नीचे का अपवाद वर्ग यहाँ भी अपवाद है।

 

3./-ए/

-अपरसर्ग रूप के लिए अकाराँत पु. शब्दों (जैसे घोड़े, लड़के, वेटे) के साथ।

 

4./एं-/

– अपरसर्ग रूप के लिए व्यंजनांत (किताबें, आकारांत, (माताएं), उकारांत (वस्तुएँ), उपरांत (बहुए) औकारांत (गौए) स्त्री शब्दों के साथ

 

5./-आँ/

अपरसर्ग रूप के लिए इकारांत (जातियाँ), ईकारांत (नदियां) तथा इयांत (गुड़िया) शब्दों के साथ।

 

6./-0/

अपरसर्ग रूप के लिए व्यंजनांत (घर), उकारांत (साधु), तथा उकारांत (भालु) पु. शब्दों में

रूपग्राम के भेद अथवा रूपिम के भेद

साधरणता रूपग्राम का विभाजन उनकी रचना, उनके योग, उनके अर्थ, उनके सम्बन्ध एवं उनकी खण्डता तथा अखण्डता के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार रूपग्रामों को सर्वप्रथम चार आधारों पर विभक्त कर सकते हैं- (1) प्रयोग के आधार पर, (2) रचना के आधार पर, (3) अर्थतत्व तथा सम्बन्धतत्व के आधार पर, और (4) खण्डीकरण के आधार पर।

(1) प्रयोग के आधार पर- सर्वप्रथम प्रयोग के आधार पर यदि रूपग्रामों का विभाजन करें, तो रूपग्राम के तीन भेद स्पष्ट दिखाई देते हैं-

(क) मुक्त रूपग्राम (Free morpheme)- जो रूपग्राम पूर्णतया स्वतंत्र अथवा मुक्त होकर वाक्य में प्रयुक्त होते हैं या हो सकते हैं उन्हें मुक्त रूपग्राम कहते हैं। जैसे- मोहन रसोई घर में दूध पीता है? इस वाक्य में ‘मोहन’ और ‘दूध’ सर्वथा स्वतंत्र एवं मुक्त रूपग्राम है, क्योंकि इनका प्रयोग बिना किसी अन्य रूपग्राम की सहायता के हुआ है। इनके अतिरिक्त ‘रसोई’ और ‘घर’ भी स्वतंत्र रूपग्राम ही हैं, क्योंकि इनका प्रयोग भी वाक्यों में स्वतंत्र रूप से हो सकता है। जैसे, रसोई वन रही है’ तथा ‘घर साफ हो रहा है’ आदि।

(ख) बद्ध रूपग्राम (Bound morpheme) – जो रूपग्राम अकेले न आकर वाक्य में सदैव किसी न किसी शब्द के साथ जुड़कर प्रयुक्त होते हैं, उन्हें ‘वद्ध रूपग्राम’ कहते हैं। जैसे, ‘लड़के घरों से निकलकर लड़ाई कर रहे हैं।’ इस वाक्य में लड़के में ‘ए’, ‘घरों में ‘ओ’,

(ग) मुक्तबद्ध रूपग्राम (Free-bound morpheme)- जो रूपग्राम देखने में तो सर्वथा स्वतन्त्र और मुक्त होते हैं, किन्तु वाक्य में सदैव किसी न किसी शब्द के आश्रित होकर ही प्रयुक्त होते हैं, वे मुक्तबद्ध रूपग्राम कहलाते हैं। जैसे हिन्दी के ‘क’, ‘न’, ‘से’, में आदि परसर्ग स्वतन्त्र लिखे जाते हैं, किन्तु किसी न किसी शब्द के आश्रित प्रयुक्त होते हैं। जैसे, मोहन का घोड़ा जा रहा है’ आदि। ऐसे ही अंग्रेजी के ‘from’, ‘with’, ‘in’, ‘into’ आदि भी ऐसे ही रूपग्राम हैं, जो स्वतन्त्र दिखाई देते हैं, किन्तु किसी न किसी शब्द के आश्रित होकर ही वाक्य में प्रयुक्त होते हैं जैसे, ‘Alka is coming from the house’, ‘Shyam lives with his brother’, ‘Theyt live in Delhi The snake crawled into its hole’ आदि। अतः ये सभी मुक्तबद्ध हैं।

(2) रचना के आधार पर- रूपग्रामों का विभाजन रचना के आधार पर दो भागों में किया जाता है।

(क) संयुक्त रूपग्राम (Complex morpheme)- जिन रूपग्रामों की रचना दो या दो से अधिक ऐसे रूपग्रामों से होती हैं, जिनमें एक तो अर्थात् होता है तथा शेष सभी सम्बन्ध तत्व होते हैं, उन्हें संयुक्त रूपग्राम कहते हैं जैसे, हमारे घरों की सफाई होगी। इस वाक्य में हमारे, घरों, सफाई और होगी संयुक्त रूपग्राम हैं, क्योंकि इनकी रचना में क्रमशः हम घर, साफ और होना तो अर्थतत्व हैं और शेष सभी सम्बन्धतत्व प्रयुक्त हुये हैं। तथा हमार (हम + आ + रे), घरों (घर + ओं), सफाई (साफ + आई) और होगी (हो +गी)।

(ख) मिश्रित रूपग्राम (Compound morpheme)- जिन रूपग्रामों की रचना एक अधिक स्वतन्त्र अर्थतत्वों से होती है अथवा जिनकी रचना दो या दो से अधिक अर्थतत्वों से होती है उन्हें मिश्रित रूपश्राम कहते हैं। जैसे, हमारे रसोईघर से स्नानागार निकट ही हैं, ‘नगरपालिका में आज विधानसभाध्यक्ष का भाषण होगा’, ‘कल राष्ट्रपति थलसेनापति, जलसेनापति एवं वायुसेनापति से विचार-विनिमय करेंगे, आदि वाक्यों में क्रमश: ‘रसोईघर’ (रसोई +घर), ‘स्नानागार’, (स्नान + आगार), ‘नगरपालिका’ (नगर पालिका) और राष्ट्रपति (राष्ट्र +पति) तो ऐसे मिश्रित रूपग्राम हैं, जिनका निर्माण दो स्वतन्त्र अर्थतत्वों से हुआ है तथा ‘विधानसभाध्यक्ष’ (विधान + सभा +  अध्यक्ष) ‘थलसेनापति’ (धल + सेना +पति) ऐसे मिश्रित रूपग्राम हैं जिनका निर्माण तीन-तीन स्वतन्त्र रूपग्रामों के सम्मिश्रण से हुआ है।

(3) अर्थतत्व एवं सम्बन्धतत्व के प्रदर्शन के आधार पर- जब रूपग्राम केवल अर्थतत्व अथवा सम्बन्धतत्व को प्रदर्शित करते हैं, तब इस प्रदर्शन के आधार पर रूपग्राम के दो भेद होते हैं।

(क) अर्थतत्व-प्रदर्शक रूपग्राम- जो रूपग्राम वाक्य में केवल अर्थतत्व के प्रदर्शक होते हैं, उन्हें ‘अर्थतत्व-प्रदर्शक रूपग्राम’ कहते हैं। जैसे, संज्ञा- राम, बालक, घोड़ा, सीता, लता, आदि, क्रिया, – होना, जाना, उठना, बैठना, चलना, हटना, रटना आदि, तथा विशेषण -अच्छा, बुरा, नीला, पीला, भला, दुष्ट, काला आदि। ऐसे रूपग्रामों की संख्या सभी भाषाओं में अत्यधिक होती है और इन्हें व्याकरण की दृष्टि से प्रकृति, धातु मस्दर या माद्दा भी कहा जाता है।

(ख) सम्बन्धतत्व-प्रदर्शक रूपग्राम- जो रूपग्राम वाक्य में केवल सम्बन्धतत्व को ही प्रदर्शित करते हैं, उन्हें ‘सम्बन्धतत्व-प्रदर्शक रूपग्राम से कहते हैं जैसे, संस्कृत की-सु, और, जस, अम्, अटि शस्, आदि विभक्तियाँ, तिप्, तस्, झि, सिप्, थस्, थ, मिप्, वस् मस, ता, आता, झा आदि तिडन्त प्रत्यय, तुमुन्, ण्वुल, घन्, अच, अथ्, नन्, कि, कितन, क्विप, अ, युचआ आदि कृदन्त प्रत्यय, भाण, ण्य्, यञ्, अञ् । ईकक, यते आदि तद्धित प्रत्यय, डीप, ष्फ, डीष्, चाप्, उड्, ति स्त्री-प्रत्यय आदि, हिन्दी के ने, को, से का, में पर आदि परसर्ग, अ, अक्कड, आ, आईंद, आऊ, आका, आइत, आड़ी, आला, ओत, ऐत, औता, टी, गा, ता आदि देशी प्रत्यय, ई, दान, वान, खाना, खोर, गीरी, ची, बाजी, बाज, डम, एशन आदि विदेशी प्रत्यय तथा अंग्रेजी की ‘ed’, ‘ing’t, er, s, id, en, art, dom, head, hood, kin, let, ing, ness, red, ish, less some, ate, able, age ee, ism, ment, tive- आदि (प्रत्यय) Suffixes ‘सम्बन्धतत्व-प्रदर्शक रूपग्राम है।’

(4) खण्डीकरण के आधार पर- रूपग्रामों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण उनकी खण्डता एवं अखण्डता के आधार पर भी किया जाता है। इस दृष्टि से रूपग्रामों के दो भेद होते हैं-

(क) खण्डात्मक रूपग्राम (Segmental morpheme)- जिन रूपग्रामों के खण्ड किये जा सकते हैं अथवा जो तोड़कर पृथक् किये जाते हैं उन्हें ‘खण्डात्मक रूपग्राम’ कहते हैं जैसे, लड़ाई (लड़+आई), डाकखाना (डाक +खाना), मित्रों (मित्र +ओं) आदि।

(ख) अखण्डात्मक रूपग्राम (Suprasegmental morpheme)- जिन रूपग्रामों के खण्ड नहीं हो सकते अथवा पृथक्-पृथक् विभाजन करना सर्वथा असम्भव होता है, वे ‘खण्डात्मक रूपग्राम’ कहलाते हैं। बलाघात (stress), सूर (tone, pitch) तथा सुरलहर (intonation) ‘अखण्डात्मक रूपग्राम’ होते हैं, क्योंकि इनके खण्ड नहीं होते।

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Pankaja Singh

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