भाषा विज्ञान

अर्थ परिवर्तन की दिशाएँ | शब्दार्थ को किस रूप में प्रभावित करते हैं? | अर्थ के आधार पर वाक्य का विभाजित

अर्थ परिवर्तन की दिशाएँ | शब्दार्थ को किस रूप में प्रभावित करते हैं? | अर्थ के आधार पर वाक्य का विभाजित

अर्थ परिवर्तन की दिशाएँ

संसार परिवर्तनशील है, परिवर्तन सृष्टि का अटल नियम है। मानव प्रयोग की भाषा भी परिवर्तन से मुक्त नहीं है। अतः संसार की प्रत्येक भाषा में विविध प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं। इस अर्थ परिवर्तन को विकास सिद्धान्त की दृष्टि से अर्थ विकास भी कहा जा सकता है। इस अर्थ परिवर्तन की तीन दिशाएं मानी गयी है।

(1) अर्थ विस्तार (Expansion of Meaning)

(2) अर्थ संकोच (Contraction of Meaning)

(3) अर्थादेश (Transference of Meaning)

डॉ० श्यामसुन्दरदास ने अर्थ परिवर्तन की छः दशाओं का उल्लेख किया है- (1) अर्थापकर्प, (2) अर्थापदेश, (3) अर्थोत्कर्ष, (4) अर्थ का मूर्तीकरण तथा अमूर्तीकरण, (5) अर्थ संकोच (6) अर्थ विस्तार पर डॉ) द्वारिका प्रसार सक्सेना की मान्यता है कि ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि अर्थापकर्ष, अर्थोपदेश, अर्थोत्कर्ष और अर्थ का मूर्तीकरण तथा अमूर्तीकरण में प्रायः शब्द का मूल अर्थ पूर्णतः बदल जाता है और वह शब्द अन्य अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है। यह बात दूसरी है कि कभी वह अन्य अर्ध अपकर्ष का द्योतक होता है, कभी उत्कर्ष का, कभी उसका मूर्तीकरण हो जाता है, और कभी अमूर्तीकरण, कभी किसी शब्द का अच्छा अर्थ बुरे अर्थ में परिवर्तित हो जाता है और कभी बुरा अर्थ, अच्छे अर्थ में। अतः उक्त चारों प्रकार के अर्थ परिवर्तनों का सम्बन्ध एकमात्र अर्थादेश (Transference of Meaning) से ही है। इस दृष्टि से ज्ञात हो जाता है कि अर्थ- परिवर्तन की तीन दिशाएँ होती हैं जिनका यहाँ संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है-

  1. अर्थ विस्तार-

डॉ0 सक्सेना के अनुसार जब शब्दों का अर्थ सीमित एवं संकुचित क्षेत्र से निकल कर अधिक विस्तृत एवं व्यापक हो जाता है, तब उसे ‘अर्थ विस्तार’ कहते हैं।

डॉ० कपिलदेव द्विवेदी और डॉ० सक्सेना ने इसे इस रूप में स्पष्ट किया है-

(1) स्याही- यह शब्द पहले भाग काले रंग की मसि हेतु ही प्रयुक्त था, कालान्तर में अन्य रंगों की मसि (नीली, लाल, हरी) का लेखन में प्रयोग होने से अब सभी रंगों की मसि हेतु ‘स्याही’ शब्द प्रयुक्त होने लगा।

(2) कुशल- स शब्द का अर्थ था-कुशान् लाति (कुशों को लाना या लेना) कुश का अग्रभाग तीक्ष्ण होने के कारण उसको समेट कर लाना थोड़ा कष्टकारक है। अतः कुश लाना चतुरता सूचक था। इसी से ‘तीक्ष्ण बुद्धि’ को भी ‘कुशाग्र बुद्धि’ कहा जाता था। धीरे-धीरे यह अर्थ विस्तार को प्राप्त होकर ‘निपुणता’ का द्योतक हो गया।

(3) गवेषण– इसका वास्तविक अर्थ गाय को खोजना या चाहना था। पर वह ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि के साथ, विस्तार को प्राप्त कर ‘खोज’ या ‘अन्वेषण का अर्थ पा गया।

(4) द्रव्य- इसका मूला था ‘दु’ अर्थात् लकड़ी से बना हुआ पदार्थ, परन्तु आगे चलकर यह भी विस्तार को प्राप्त होकर ‘धन’ आत्मा, आदि गुणवान पदार्थों का वाचक हो गया है।

(5) प्रवीण- इस शब्द का अर्थ-प्रकृष्टोवीणायाम (वीणा वादन में श्रेष्ठ या निपुण) था। यह शब्द वीणा-वादन की निपुणता को छोड़कर ‘निपुण’ या दक्ष अर्थ में प्रयुक्त होने लगा, यह भी अर्थ विस्तार का ही प्रभाव है, यथा-वह कला में प्रवीण है।

(6) महाराज – यह शब्द राजा वाचक था, पर अपने अर्थ-विस्तार को प्राप्त होकर ‘रसोइया’ के अर्थ में सीमित हो गया।

(7) जयचन्द्र- यह एक कन्नौज का राजा पर आज देशद्रोही को ‘जयचन्द्र’ कहा जाता है। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं। इधर-उधर भिड़ाने वाले को नारद मुनि, सत्यवादी को युधिष्ठिर, आततायी को ‘हिटलर’ आदि इसी प्रकार के अर्थ विस्तार हैं।

  1. अर्थ संकोच-

डॉ0 द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार जहाँ बहुत से शब्दों का अर्थ कभी अधिक व्यापक एवं विस्तृत था किन्तु कालांतर में शब्द किसी एक संकुचित अर्थ में ही प्रयुक्त होने लगे, तब उसे अर्थ संकोच कहा गया। अर्थ संकोच में प्रायः किसी शब्द का प्रयोग विस्तृत था। व्यापक अर्थ से हटकर विशिष्ट या सीमित अर्थ में होने लगता है। मृग शब्द पहले सभी प्रकार के जंगली जानवरों के लिए प्रयुक्त था पर हिन्दी में अब इसका प्रयोग हिरन के लिए होने लगा। आचार्य विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण में कहा, शब्दों की व्युत्पत्ति का आधार दूसरा है और प्रयोग का आधार दूसरा इस प्रकार लोक व्यवहार के आधार पर ही प्रयोग होता है, व्युत्पत्ति के आधार पर नहीं। यहीं अर्थ संकोच कहा जाता है।

प्रो० मिशेल ब्रेआल की मान्यता है कि राष्ट्र या जाति जितनी अधिक विकसित होगी, उसकी भाषा में अर्थ संकोच के उदाहरण उतने ही अधिक मिलेंगे। इसका अभिप्राय यह है कि संस्कृति और सभ्यता के विकास में सामान्य शब्द विशेष अर्थों में प्रयुक्त होने लगते हैं। विद्वानों ने अर्थ संकोच के अनेक उदाहरण दिये हैं, जिनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं-

(1) समास- समास भी अर्थ संकोच में सहायक होते हैं। कृष्ण +सर्प (सर्प की एक जाति), राज पुरुष (राजपुरुष), राजकीय कर्मचारी, गजबरन = गणेश पुरारि = शिव, वश्यती हरः = सुनार (देखते-देखते चुराने वाला)

(2) उपसर्ग- उपसर्ग के संयोग से भी अर्थ संकोच हो जाता है। ‘ह’ धातु में विविध उपसर्ग जुड़कर उसके अर्थ का संकोच कर देते हैं। यथा हार से बिहार =बिहार, संहार, प्रहार, आहार, उपहार, निराहार आदि बनते हैं।

(3) प्रत्यय- प्रत्यय भी अर्थ संकोच की भूमिका का निर्वाह करते हैं, यथा-बाग से बगीचा, घर से घरूआ, कोठा से कोठरी युज-योग, योजना, आयोजन, प्रयोजन आदि।

(4) विशेषण- इसके प्रयोग से ही अर्थ संकोच हो जाता है, यथा-जन-दुर्जन, सज्जन। आचार दुराचार, सदाचार, कदाचार

(5) नामकरण- नामकरण भी अर्थ संकोच का आधार बनता है यथा कृष्णा का अर्थ काला, पर यह मात्र यशोदा के लाला कृष्ण तक ही सीमित रह गया है। शत्रुघ्न का अर्थ है शत्रुओं का विनाशक, पर अब मात्र यह राम भ्राता सुमित्रा पुत्र हेतु ही प्रयुक्त होता है।

(6) विशेषीकरण- विशेषीकरण भी अर्थ संकोच में सहायक होता है, यथा-निष्कृत का अर्थ है निवेचन-शास्त्र, किन्तु आजकल केवल यास्क मुनि रचित शास्त्र को ही निरुक्त कहा जाता है। वेद का अर्थ है ज्ञान जो आज चारों वेदों के नाम तक सीमित रह गया- सामवेद आदि।

(7) रूपक- रूपक भी किसी शब्द के अर्थ संकोच में सहायक होता है। डॉ० सक्सेना ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है- सॉपिन =वह सॉपिन बड़ी लड़ाका है, गधा = वह गधा मानता ही नहीं, सिंह = पंजाब सिहों का प्रदेश है, कमल = आज कमल न जाने क्यों मुरझा रहा है। यहाँ ये शब्द दृष्टा, मूर्ख, वोट, मुख आदि के समुचित अर्थ में प्रयुक्त है।

(8) परिभाषिकता- पारिभाषिक शब्दावली के रूप में प्रयुक्त बहुत-सी शब्दावली में अर्थ संकोच हो जाता है, यथा-रस वैव्यक और साहित्य में अलग-अलग अर्थ देता है।

(3) अर्थादेश-

डा0 द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने स्पष्ट किया है कि अर्थ विस्तार एवं अर्थ संकोच के अन्तर्गत अर्थ परिवर्तन तो होता है, किन्तु मूल अर्थ बराबर बना रहता है जबकि अर्थादेश में किसी शब्द का मूल पूर्णतया लुप्त हो जाता है और उसके स्थान पर एक नया अर्थ प्रचलित हो जाता है। अतः जहाँ किसी शब्द का मूल अर्थ एक दम लुप्त हो जाय और उसके स्थान पर कोई नया अर्थ प्रचलित हो जाये वहाँ अर्थादेश होता है। इन उदाहरणों से यह तथ्य अधिक स्पष्ट हो सकेगा।

असुर- असु + र्, प्राणशक्ति सम्पन्न देवता, बाद में यह राक्षस हेतु प्रयोग होने लगा। डॉ० द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने इसके चारों रूपों की चर्चा की है-

(क) अर्थापकर्ष- जहाँ किसी शब्द का मूल अर्थ तो लुप्त हो जाय और कोई दूसरा ऐसा अर्थ प्रचलित हो उठे जो उसकी गिरावट का सूचक हो, वहाँ, अर्थापकर्ष होता है, यथा-पुंगव शब्द का मूल अर्थ था श्रेष्ठ एवं अच्छा, किन्तु कालान्तर में इसका मूल अर्थ लुप्त हो गया और आजकल इससे बने पोंगा शब्द का अर्थ मूर्ख हो गया। इसी प्रकार जुगुप्सा का मूलार्थ था छिपाने की इच्छा, किन्तु आजकल इसका अर्थ घृणा हो गया हैं यही क्रम इस प्रकार भी गतिशील रहा-महाजन (श्रेष्ठ व्यक्ति, सूदखोर महाजन के अर्थ में आ गया।) स्वर्गवास गंगालाभ भी इसी के उदाहरण हैं।

(ख) अर्थोत्कर्ष- कुछ शब्दों के अथों में परिवर्तन होकर जब उत्कृष्ठता आ जाती है यही स्थिति रहती है। मुग्ध शब्द का मूलार्थ का मूल या मूर्ख पर अब यह हिन्दी में मोहित होना के अर्थ में प्रयुक्त होता है। साहस भी पहले हत्या, चोरी आदि करने के अर्थ में प्रयुक्त था, पर अब इसका अर्थ सराहनीय कार्य हेतु हिम्मत दिखाने वाला हो गया है।

(ग) अर्थ का मूर्तीकरण- पहले जब किसी शब्द का अर्थ अमूर्त होता है किन्तु कालान्तर में वह अमूर्त अर्थ लुप्त होकर जब कोई मूर्त अर्थ प्रचलित हो उठता है वहाँ अर्थ का मूर्तिकरण होता है। ‘जनता’ शब्द पहले भावाचक संज्ञा थी और मानवता का वाच कथा, पर आज इसका प्रयोग जनसाधारण के अर्थ में होता है। इसी प्रकार खटाई तथा मिठाई शब्द भी भाववाचक संज्ञा थे और खट्टापन तथा मिठास के अर्थ में अमूर्त अर्थ के द्योतक थे, परन्तु आजकल इनको मूर्त अर्थ लुप्त होकर ये द्रव्यवाचक मूर्त अर्थ के द्योतक हो गये।

(घ) अर्थ का अमूर्तीकरण- जिस प्रकार कुछ शब्द अपने अमूर्त अर्थ को छोड़कर मूर्त अर्थ ग्रहण कर लेते हैं, उसी के प्रकार कुछ शब्द अपने मूर्त अर्थ अर्थ को छोड़कर कालान्तर में अमूर्त अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। मूर्त से अमूर्त होने की यही प्रक्रिया अर्थ का अमूर्तीकरण कहलाती है, यथा- कपाल शब्द पहले मूर्त खोपड़ी का वाचक था पर अब यह शब्द भाग्य जैसे अमूर्त अर्थ का वाचक हो गया है। इसी प्रकार बड़ी छाती, बड़ा कलेजा, विशाल हृदय जैसे शब्द अब साहस, दृढ़ता, उदारता आदि के वाचक हो उठे हैं।

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