भाषा विज्ञान

स्वनिम विज्ञान का स्वरूप | स्वनिम की अवधारणा | अक्षर क्या है? | स्वन लोप क्या है? | स्वनिमिक विश्लेषण

स्वनिम विज्ञान का स्वरूप | स्वनिम की अवधारणा | अक्षर क्या है? | स्वन लोप क्या है? | स्वनिमिक विश्लेषण

स्वनिम विज्ञान का स्वरूप

अथवा

स्वनिम की अवधारणा

स्वनिम शब्द ध्वनि ग्राम शब्द का नवीनतम् रूपान्तर है। अंग्रेजी में इसे ‘फोनीम’ कहा जाता है। स्वनिम उच्चरित भाषा का वह न्यूनतम अंश है जो दो ध्वनियों का अन्तर प्रदर्शित करता है स्वनिम ध्वनि न होकर सदृश्य ध्वनि लक्षणों का समूह है जिसकी परिधि से बाहर जाते ही ध्वनि पृथक परिभाषित होने लगती है। वस्तुतः स्वनिम विज्ञान भाषा का एक प्रमुख अंग है। इसमें प्रत्येक भाषा के स्वनिमों का वैज्ञानिक विश्लेषण विवेचन पद्धति के द्वारा किया जाता है और उसके आधार पर ही प्रत्येक भाषा के लिए सुव्यवस्थित वैज्ञनिक लिपि तैयार की जाती है।

प्रयोग की दृष्टि से स्वनिम विज्ञान का भाषा विज्ञान में विशेष महत्व है। स्वनिम विज्ञान ध्वनि का विशिष्ट और क्रियाशील अध्ययन है। इसका सम्बन्ध भाषा अथवा भाषाओं की ध्वनियों से होता है। यह भाषा को सदैव एक संप्रेषण व्यवस्था के रूप में स्वीकार करता है। स्वनिम विज्ञान भाषण ध्वनि का विश्लेषण करता है। प्रत्येक भाषा-ध्वनियों के वर्ग बनाये जाते हैं जिनका विश्लेषण भाषा वैज्ञानिक तरीके से उपयोगी और महत्वपूर्ण होता है। स्वनिम विज्ञान के आधार पर भाषा शास्त्रियों ने विश्व की समस्त भाषाओं का परीक्षण करने के बाद यह पाया कि विश्व की किसी भाषा में कम से कम 15 या 20 स्वनिम हैं। भाषाओं की दृष्टि से स्वनियों की औसत संख्या 30 है। स्वनिम विज्ञान के अन्तर्गत स्वनियों का भाषा सपेक्ष अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। भाषा ध्वनियों की विविधता और अनेकता को अंकि करना स्वनिम विज्ञान का ही कार्य है। आज ध्वन्यात्मक लेखन, ध्वान्यत्मक परीक्षण, आकलन के लिए स्वनिम विज्ञन अत्यन्त उपयोगी है। इसमें अर्थ-भेद करने की अद्भूत क्षमता होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि उपयोगी है। इसमें अर्थ-भेद करने की अद्भुत क्षमता होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि स्वनिम किसी भाशा की वह ध्वन्यात्म काई है जो अर्थ भेदक होती है, जो भौतिक यथार्थ न होकर मानसिक यथार्थ होती है और इसकी कई संध्वनियाँ होती है।

अक्षर क्या है?

हिन्दी में अक्षर का प्रयोग अंग्रेजी के Syllaple समानार्थक रूप में होता है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि वर्ण या वर्णों की अविच्छिन उच्चरित इकाई अक्षर हैं। इस अक्षर में सामान्यतः एक से अधिक स्वर वर्ण नहीं होते हैं। इस प्रकार एक शब्द में जितने स्वर वर्ण होते हैं, उतने ही अक्षर होते हैं।

उदाहरणार्थ-कु-वर्ण है। क + अ = क एक अक्षर है। इसी प्रकार बहादुरी = ब+ हा + दु + रि = चार अक्षर हैं। इन सभी अक्षरों में एक स्वर वर्ण मिला हुआ है। जैसे- बहादुरी को ही देखें – ब + अ + ह द + उ र = ई। इस प्रकार चार स्वर वर्ण जुड़कर चार अक्षर बने हैं।

स्वन लोप क्या है?

जिस प्रकार शब्दों के अन्तर्गत कुछ ध्वनियों का आगयों का है, उसी प्रकार कुछ ध्वनियाँ लुप्त भी हो जाती हैं। ध्वनियों के इसी लुप्त हो जाने को लोप कहते हैं। इसमें स्वर, व्यन्जन और अक्षर का इन तीनों का लोप हो जाता है। कभी आदि स्वर या व्यंजन का लोप होता है, कभी मध्य स्वर या व्यन्जन का लोप होता है, कभी अन्त के स्वर व्यन्जनों का लोभ होता है।

जैसे-

स्वर लो- अनाज-नाज (आदि स्वर लोप)

खुरजा – खुर्जा (मध्य स्वर लोप)

निद्रा – नींद (अन्त स्वर लोप)

व्यन्जन लोप – स्थान – थान (आदि व्यंजन लोप)

कोकिल – कोइल (मध्य व्यंजन लोप)

निम्ब – नीम (अंत व्यंजन लोप)

अक्षर लोप – त्रिशूल – शूल (आदि अक्षर लोप)

फलाहार – फलार (मध्य अक्षर लोप)

मर्कटिक ‘ मकड़ी (अन्त अक्षर लोप)

स्वनिमिक विश्लेषण

किसी भाषा की स्वनिमिक प्रणाली का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई भाषा शास्त्री कार्य आरम्भ करता है तो उसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह सूचक के साथ काम करे। वास्तव में सूचक वही व्यक्ति हो सकता है जिसकी मातृभाषा वही हो जिस पर भाषाशास्त्री काम कर रहा है अर्थात् जिसका वह विश्लेषण कर रहा हो। इस सम्बन्ध में भाषाशास्त्री का सर्वप्रथम एक प्रमुख कर्त्तव्य यह होता है कि वह सूचक के मुख से निसृत सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वनों को यथातथ्य रूप में अंकित करें। स्वरूपों के अंकन के लिए भाषाशास्त्री प्रायः अन्तर्राष्ट्रीय ध्वनि परिषद अथवा पाइक द्वारा निर्मित लिपि का प्रयोग करते हैं। किन्तु अन्य लिपियों (यथा-नागरी) में भी आवश्यक संशोधन करके उसे पूर्ण स्वनिमिक बनाया जा सकता है। ध्वन्यात्मक रूपों को प्राप्त करने के लिए भाषाशास्त्री को पैतृक परिवेश का ज्ञान होना आवश्यक है। इसके उपरान्त उसे निम्नलिखित चार आधारों पर किसी भाषा के स्वनिमों अथवा उसकी स्वनिमिक प्रणाली का अध्ययन करना चाहिए-

(1) व्यतिरेक तथा परिपूरक वितरण का सिद्धान्त

(2) ध्वन्यात्मक समानता का सिद्धान्त अथवा स्वन सादृश्य का सिद्धान्त।

(3) अभिरचना समता का सिद्धान्त।

(4) मितव्ययिता या लघुता का सिद्धान्त।

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Pankaja Singh

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