भाषा विज्ञान की उपयोगिता | साहित्य के अध्ययन में भाषा विज्ञान की उपयोगिता | भाषा का विकास | भाषा विकास के कारण
भाषा विज्ञान की उपयोगिता
साधारणतया तो प्रत्येक विज्ञान स्वयं में एक निरपेक्ष अध्ययन होता है। उसके अध्ययन में उपयोगिता की अपेक्षा ज्ञानवर्द्धन का दृष्टिकोण ही अधिक पाया जाता है। फिर भी मानव स्वभाव उसमें भी कोई न कोई उपयोगिता निकाल ही लेता है।
भाषाविज्ञान का स्वयं का निरपेक्ष लक्ष्य तो यही है कि उसके द्वारा हम प्रत्येक भाषा अथवा बोली के विभिन्न अवयवों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अध्ययन द्वारा, उस भाषा विशेष की संरचना का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके ज्ञानवर्द्धन में सहयोग करें, पर इस प्रकार के अध्ययन की व्यावहारिक उपयोगिता को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। अतः भाषाविज्ञान के अध्ययन की कुछ महत्वपूर्ण उपयोगिता को हम, क्रमशः निम्नानुसार प्रस्तुत कर सकते हैं-
- भाषाविज्ञान की सर्वप्रथम उपयोगिता तो यही है कि भाषा के सम्बन्ध में उत्पन्न हमारी समस्त जिज्ञासाओं का समाधान करके न केवल हमें मानसिक सन्तोष देता है, बल्कि हमारी भाषा- सम्बन्धी पकड़ को भी मजबूत बनाता है।
- प्रागैतिहासिक खोजों के विषय में भाषाविज्ञान की उपयोगिता बहुत अधिक है। भाषा की ऊपरी परत के नीचे इतिहास के न जाने कितने पत्रे बिखरे पड़े हैं। वस्तुतः भाषा के प्रत्येक शब्द के बाह्य स्वरूप के भीतर विस्तृत व्याख्यान अदृश्य हैं। प्रागैतिहासिक काल के सम्बन्ध में अनेक तथ्यों का ज्ञान, हमने भाषाविज्ञान के आधार पर ही प्राप्त किया है। इस क्षेत्र में भाषाविज्ञान की सामर्थ्य अन्य सभी विज्ञानों से अधिक है। विगत शताब्दी में मूल आर्य जाति तथा प्राचीन मिस्री और असीरी आदि जातियों की सभ्यता का उद्घाटन भाषाविज्ञान द्वारा ही हो सकता है।
- मानवता के मानसिक विकास की कहानी कितनी विशाल है तथा वह कितने कौतूहल से भरी हुई है, इसका ज्ञान भाषा द्वारा ही होता है। आदिम मानव से लेकर आज तक के मानव के मानसिक विकास को जानने समझने के लिए भाषाविज्ञान हमारा मार्गदर्शक बन सकता है।
- मानव स्वभाव है कि अपने से भिन्न व्यक्ति, समाज और देश आदि के सम्बन्ध में अधिक से अधिक जानना चाहता है। इसका सर्वोत्तम उपाय विश्व की अधिक से अधिक भाषाओं को सीखना है। इस कार्य में भाषाविज्ञान हमारी बहुत अधिक सहायता करता है; क्योंकि, उसके द्वारा हम अन्य भाषाओं को अधिक सरलता से सीख सकते हैं।
भाषाविज्ञान तथा साहित्य
भाषाविज्ञान एक विज्ञान है, जबकि साहित्य कला है। दोनों में अन्तर भी है। भाषाविज्ञान में भाषा का अध्ययन उसके स्वरूप को जानने के लिए किया जाता है, जबकि साहित्य में भाषा का अध्ययन साहित्य के अर्थ को जानने के लिए किया है। भाषाविज्ञान का सम्बन्ध मस्तिष्क से अधिक है साहित्य का सम्बन्ध हृदय की रसास्वादन-वृत्ति से अधिक है। प्रथम का क्षेत्र विस्तृत है, क्योंकि उसमें साहित्य में अप्रयुक्त भाषाओं एवं बोलियों का भी अध्ययन होता है। द्वितीय का क्षेत्र बहुत सीमित है, क्यों कि उसमे केवल साहित्यिक भाषाओं का ही अध्ययन किया जाता है।
साथ ही, साहित्य और भाषाविज्ञान एक दूसरे के उपकारी भी हैं। भाषाओं के प्राचीन रूपों को सुरक्षित रखकर साहित्य, भाषाविज्ञान के लिए अध्ययन सामग्री देता है, जिसके बिना भाषाविज्ञान का विकास नहीं हो सकता। इस प्रकार साहित्य, भाषाविज्ञान के लिए कोषागार का कार्य करता है। वस्तुतः भाषाविज्ञान का तो जन्म ही संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का साहित्य न होता, तो किसी भी प्रकार आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के विकास की रूपरेखा तैयार नहीं होती। संस्कृत, ग्रीक, और लैटिन आदि भाषाओं के साहित्य के सहारे ही भाषा-विज्ञानियों को मूल भारोपीय भाषा का अनुमानित ढाँचा खड़ा करने में सफलता प्राप्त हो सकी है।
भाषाविज्ञान की सहायता से प्राचीन साहित्य का अर्थ भली-भाँति समझने में भी सहायता मिलती है। भाषाविज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि प्राचीन वैदिक साहित्य में असुर शब्द का अर्थ प्राणवन् (असु + र) है, किन्तु बाद के संस्कृत-साहित्य में वह राक्षस या दानव (अ + सुर) का वाचक बन गया है। इस अर्थ-परिवर्तन का कारण भाषाविज्ञान ही स्पष्ट करता है। प्राचीन मिस्री और असीरी साहित्य का अर्थ-बोध एवं उद्धार भी भाषाविज्ञान द्वारा ही हो सका है। इसके साथ ही, भाषाविज्ञान की वैज्ञानिक पद्धति द्वारा एक साहित्य की भाषा से परिचित व्यक्ति अन्य साहित्यों की भाषा और उसके पश्चात् साहित्य से भी शीघ्र ही परिचय प्राप्त कर सकता है। थोड़े ही समय में ऐसा व्यक्ति बहुभाषाविद् के साथ-साथ बहुसाहित्यविद् भी बन सकता है।
अतः भाषाविज्ञान और साहित्य एक-दूसरे के उपकारी होने के कारण परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं।
भाषा का विकास-
संसार की सभी वस्तुएं परिवर्तनशील हैं। भाषा भी संसार की ही एक वस्तु है और इसलिए यदि वह बदलती है तो यह स्वाभाविक ही है। वास्तव में परिवर्तनशीलता भाषा का अनिवार्य गुण है। कुछ विद्वान इस परिवर्तन को अवनति और कुछ उन्नति मानते हैं। किन्तु यह परिवर्तन-उन्नति है या अवनति इस विवाद में आए बिना हम इस परिवर्तन को विकास मानते हैं। निःसन्देह इस परिवर्तन के साथ-साथ भाषा का विकास होता है और विकास भाषा की अनिवार्य गति है। अदित्यवार से आगे चलकर ‘इतवार’ बन जाना इस विकास का उदाहरण है।
भाषा के विकास अथवा परिवर्तन के कारण स्वयं भाषा में विद्यमान हैं। भाषा मनुष्य समाज अथवा संसर्ग द्वारा सीखता है। इस संसर्ग अथवा परिवेश में परिवर्तन के साथ ही भाषा में भी परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है संसर्ग अथवा परिवेश की भिन्नता के अतिरिक्त शारीरिक गठन और अभ्यास में अन्तर के कारण भी भाषा में परिवर्तन हो जाता है। विभिन्न व्यक्तियों के उच्चारणों में भिन्नता के कारण भी भाषा में अन्तर अथवा विकास हो जाता है।
भाषा के बाहरी कलेवर के अतिरिक्त अर्थ में भी अन्तर अथवा परिवर्तन हो जाता है। यह परिवर्तन स्मृति और अनुभव के कारण हो जाता है। प्रायः किन्हीं दो व्यक्तियों की भाषा समान नहीं होती किन्तु व्यवहार में इसका अनुमान सरलता से नहीं लगाया जा सकता। यह भिन्नता वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा ही स्पष्ट होती है।
विकास में बाधा- प्रायः यह पूछा जाता है कि भाषा में परिवर्तन अथवा विकास द्रुतगति से क्यों नहीं होता? वास्तव में जिस प्रकार विकास अथवा परिवर्तन के गुण स्वयं भाषा में विद्यमान है इसी प्रकार भाषा में विकास अथवा परिवर्तन के बाधक तत्व भी विद्यमान हैं। भाषा का मूल कार्य है विचारों को व्यक्त करना और इस कार्य में उच्चारण परिवर्तन अथवा अर्थ परिवर्तन की भी बाधाएँ आती हैं समाज अथवा समुदाय उनके प्रति रोष प्रकट करता है और उनका विरोध करता है। सम्भव है किसी सामान्य कठिनाई को वह सहन कर ले किन्तु अर्थ-ग्रहण आदि में आनेवाली कठिनाइयों को समाज निश्चित रूप से विरोध करता है। उदाहरण के लिए ‘ले पाना’ प्रयोग ठीक और ग्राह्य है किन्तु उसी के समान ‘या पाना’ आपत्तिजनक समझा जाएगा। इसी प्रकार किया के स्थान पर करा समाज अभाव व्याकरण द्वारा शुद्ध नहीं माना जाएगा।
विकास के मूल कारण- भाषा का विकास दो प्रकार से होता है एक तो उसके सहज अथवा स्वाभाविक रूप में और दूसरा किसी अन्य ऐसे कारण से जो उस पर बाहर से प्रभाव डालता है। भाषा के सहज विकास अथवा परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कारणों को (क) आभ्यंतर वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है और भाषा के परिवर्तन को बाहर से प्रभावित करने के कारणों को (ख) बाह्य वर्ग में रखते हैं।
भाषा विज्ञान – महत्वपूर्ण लिंक
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