भाषा विज्ञान

भाषा-विज्ञान की भूमिका | भाषा-विज्ञान की उपयोगिता

भाषा-विज्ञान की भूमिका | भाषा-विज्ञान की उपयोगिता

भाषा-विज्ञान की भूमिका

साहित्य का निर्माण भाषा द्वारा होता है। भाषा मनुष्य के वाग्यन्त्री से निकली सार्थक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज में मनुष्य एक-दूसरे से विचार-विनिमय करता है। भाषा का अर्जन समाज सापेक्ष है। समाज में ही व्यावहारिक भूमि पर वह सीखी और प्रयोग में लायी जाती है। भाषा हमारे प्रयोजनों की वाहिका होती है। हमारे प्रयोजनों बहु-आयामी होते हैं, जिनमें साहित्य-सृजन भी हमारा एक आयामिक गंतव्य है।

भाषा साहित्य के सृजन का आधार है। साहित्यकार को जब भाषा का अच्छा ज्ञान होता है तो वह अपने सृजित साहित्य को अधिक समृद्ध बनाता है। साहित्य में भावों और विचारों की अभिव्यक्ति होती है। हमारे बौद्धिक चिन्तन का उन्मेष होता है और यह कार्य व्यावहारिक भूमि पर भाषा के द्वारा होता है। जिस साहित्यकार को जितनी उच्च कोटि की भाषा का ज्ञान होता है, उसका साहित्य भी उतना ही उच्च कोटि का होता है।

भाषा के अभाव में साहित्य को अस्तित्व ही नहीं मिल सकता। भाषा विहीन साहित्य की कल्पना असंभव है। इससे स्पष्ट है कि साहित्य के निर्माण और अस्तित्व में भाषा अथवा भाषा-विज्ञान का अप्रतिम महत्व है।

भाषा-विज्ञान में भाषा का इतिहास संमूर्तित और व्याख्यायित होता है। भाष-विज्ञान अपने विभिन्न अंगों द्वारा साहित्य को सहयोग करता है और साहित्य भाष-विज्ञान को विश्लेषण के लिए प्रभूत सामग्री देता है। दोनों का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। दोनों एक दूसरे के ऋणी हैं। यदि आज संस्कृत, अवेस्ता या ग्रीक साहित्य हमारे सामने न होता तो किस आधार पर भाषा-विज्ञान कह पाता या जान पाता कि तीनों भाषाएं किसी एक मूल भाषा से निकली हैं। इसी प्रकार यदि आदिकाल से आधुनिक काल तक हिन्दी साहित्य हमारे सामने न होता तो भाषा-विज्ञान हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन किस प्रकार कर पाता। इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा के तुलनात्मक और ऐतिहासिक दोनों की अध्ययनों में भाषा-विज्ञान को साहित्य की सहायता लेनी पड़ती है।

भाषा-विज्ञान अपने ऐतिहासिक और तुलनात्मक क्षेत्र में साहित्य का उपयोग जब करता है तो साहित्य को भी अपने अतीत में झांकने का अवसर प्राप्त होता है। प्रत्येक कालखण्ड की शब्द-योजना उस काल के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन से जुड़ी होती है। इस प्रकार जब भाषा वैज्ञानिक शब्दों का ऐतिहासिक विश्लेषण करता है तो उस काल का सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य उभरकर हमारे सामने आ जाता है जिससे साहित्य अपनी वैकासिक-यात्रा में लाभान्वित होता है।

भाषा-विज्ञान के विभिन्न अंग साहित्य को विभिन्न रूपों में लाभ पहुँचाते हैं। भाषा-विज्ञान का शब्द-विज्ञान विभाग शब्दों के उद्भव और विकास से तो साहित्य को परिचित कराता ही है उसकी अर्थवत्ता और व्यावहारिक उपयोग की महानता से भी अवगत कराता है। साहित्य को सार्थक शब्द- चयन और अपने भावों की संगत बैठाने में भाषा-विज्ञान के शब्द-विज्ञान विभाग से पर्याप्त सहायता मिलती है।

इसी प्रकार अर्थ-विज्ञान विभाग उपयुक्त शब्दों में निहित अर्थ और दूसरे शब्दों से जुड़ने वाले सम्बन्ध तत्व से साहित्य को सुपरिचित कराता है जिससे साहित्य अपनी व्यंजना में अर्थ गरिमा भरने के साथ नवोन्मेष लाता है।

ध्वनि-विज्ञान साहित्य को ध्वनियों के विविध रूपों से परिचित करा उपयुक्त शब्द चयन में और उनकों एक ध्वन्यात्मक व्यवस्था देने में सहयोग करता है। साहित्य, ध्वनि-विज्ञान की सहायता से अपने शब्दों को श्रुतिमधुर, करुण-कोमल तथा परूथ व कठोर तथा विस्मयाधिक भाववृत्तियों के अभिव्यंजन के अनुकूल बनाता है। ध्वनियों का ऐतिहासिक विकास साहित्यकार को भाषा-विज्ञान से ही ज्ञात होता है और सार्थक ध्वनियों के संयोजन से निर्मित शब्द-योजना साहित्य के अभिव्यंजन पक्ष को प्रभावित करती है।

भाषा-विज्ञान का वाक्य-विज्ञान, रूप विज्ञान तथा पदग्राम-विज्ञान विभाग भी साहित्य को अपने वाक्यों और पदों के निर्माण एवं सुनियोजन में सहयोग करता है, जिससे साहित्य की अर्थ एवं भाव व्यंजना प्रभावित होती है।

प्राचीन साहित्य का बोध कराने में भाषा-विज्ञान अत्यन्त उपयोगी होता है। भाषा-विज्ञान के द्वारा ही एक साहित्य का विद्यार्थी किसी भाषा के अर्थ-परिवर्तन का ज्ञान प्राप्त करता है, विविध भाषाओं के शब्दों से परिचित हो जाता है और प्राचीन भाषाओं के विविध रूपों को भली-भाँति समझ सकता है। प्राचीन साहित्य में बहुत से शब्द ऐसे मिलते हैं जिनका अर्थ आसानी से समझ में नहीं आता। कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही शब्द पहले दूसरे अर्थ में प्रयुक्त होता था, आज उससे भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है। जैसे-असुर शब्द का अर्थ पहले देवता था किन्तु आज बदलकर राक्षस हो गया है।

भाषा-विज्ञान ध्वनि परिवर्तन या अर्थ-परिवर्तन के कारणों को स्पष्ट कर सन्देह का निवारण कर देता है जिससे साहित्य का काफी हित साधन होता है। भाषा-विज्ञान साहित्य के क्लिष्ट अर्थों की जानकारी देकर साहित्य की समस्याएं सुलझाने में मदद करता है। साहित्यिक रचनाओं की प्रमाणिकता, प्राचीनता, शुद्धता और पाठालोचन के आधार पर उचित मूल्यांकन के लिए साहित्य को भाषा-विज्ञान की अपेक्षा रहती है।

अतः कहने का आशय यह है कि भाषा-विज्ञान के चाहे जिस विभाग को ले लें, हमें यह स्पष्ट भासित होगा कि यह सभी विभाग साहित्य को अपने विविध रूपों में सहयोग करते हैं। भाषा- विज्ञान का व्याकरण विभाग अपनी व्याकरणिक इकाइयों और व्याकरणिक कोटियों आदि के द्वारा साहित्य को एक मार्दव प्रदान करता है। उसे शुद्ध, प्रभावक और समुत्कृष्ट बनाता है। साहित्यकार को यदि भाषा का अच्छा ज्ञान नहीं होगा तो निश्चिततः वह अच्छे साहित्य का निर्माण नहीं कर पायेगा, क्योंकि अच्छा साहित्य जहाँ अच्छे भावों व विचारों की सम्पदा से परिपूर्ण होता है, वहीं भाषा के सहयोग से अपने शिल्पगत सौन्दर्य को भी उद्भासित करता है।

इस प्रकार हम देखते हैं किस साहित्य अपने भाव और शिल्प दोनों पक्षों में भाषा को सशक्त बनाने के लिए भाषा-विज्ञान के विभिन्न अंगों से पर्याप्त सहायता लेता है। अतः साहित्य के विकास में भाषा-विज्ञान के विभिन्न अंगों के सहयोग की भूमिका अप्रतिम कहीं जायेगी।

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Pankaja Singh

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