भाषा विज्ञान

वाक्य-विज्ञान का तात्पर्य | वाक्य की आवश्यकताएँ | वाक्य का स्वरूप | वाक्य के अंग | वाक्य-विज्ञान का स्वरूप | वाक्य-रचना के नियम

वाक्य-विज्ञान का तात्पर्य | वाक्य की आवश्यकताएँ | वाक्य का स्वरूप | वाक्य के अंग | वाक्य-विज्ञान का स्वरूप | वाक्य-रचना के नियम

वाक्य-विज्ञान का तात्पर्य

भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से स्वतः पूर्ण सार्थक शब्द-समूह का नाम ‘वाक्य’ है। पाणिनि ने ‘वाक्यं-पद-समुच्चयः’ अर्थात् सही रूपों, सार्थक शब्दों के समुच्चय को वाक्य कहा है। यूरोपीय विद्वान् थैंक्स और भारतीय मनीषी पतञ्जलि द्वारा दी गई वाक्य की परिभाषाओं का सार इस प्रकार है-

“पूर्ण अर्थ की प्रतीति करने वाले शब्द-समूह का नाम वाक्य है।”

आज का भाषा-वैज्ञानिक इस परिभाषा को मानने को प्रस्तुत नहीं, क्योंकि आज यह सिद्ध हो चुका है कि भाषा की इकाई वाक्य है। अतः वाक्य को पदों का समूह मानकर पदों को वाक्य के कृत्रिम अवयव मानना ही अधिक उपयुक्त है।

पद अथवा वाक्य को भाषा की इकाई मानने का विवाद मीमांसकों में भी मिलता है। जहाँ अभिहितान्वयवादी मीमांसक पदों की सार्थक सत्ता को स्वीकार करते हुए पदों के समूह से वाक्य की रचना मानते हैं, वहां अन्विताभिधानवादी वाक्य की सार्थक सत्ता स्वीकार करते हैं और पदों को वाक्य के अवयवों के रूप में ग्रहण करते हैं। भर्तृहरि ने भी वाक्य की सत्ता को ही वास्तविक माना है और आज का भाषा-वैज्ञानिक भी इसी धारणा को मान्यता देता है।

वस्तुतः विचारपूर्वक देखा जाए तो वाक्य की उपर्युक्त परिभाषा का दोष स्पष्ट हो जाता है। इस परिभाषा में दो बातें-शब्द-समूह तथा अर्थ की दृष्टि से स्वतः पूर्णता का उल्लेख है। जहाँ तक शब्द- समूह का सम्बन्ध है, विश्व की कितनी ही भाषाएं ऐसी हैं, जिनमें एक ही शब्द के वाक्य हैं। इसके अतिरिक्त सामान्य व्यवहार में भी एक शब्द के वाक्य दिखाई देते हैं, उदाहरणार्थ-

“तुम कब आये हो?”

“कल।”

“एक-दो महीने तो रुकोगे?”

हाँ’’

इस बातचीत में ‘कल’ और ‘हाँ’ एक शब्द के वाक्य हैं। इसके अतिरिक्त जब कोई ‘रोटी’, ‘पानी’, ‘दूध’, ‘घोड़ागाड़ी’ आदि एक शब्द का उच्चारण करता है तो क्या वह अकेला शब्द पूरे वाक्य का अर्थ नहीं देता? स्पष्ट है कि वाक्य एक से अधिक पदों (पद-समूह) का ही हो यह अनिवार्य नहीं है।

अर्थ की दृष्टि से स्वतः पूर्णता की बात भी सर्वथा सही नहीं है। बहुत सारे वाक्य अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करने में असमर्थ होते हैं उदाहरणार्थ-‘उसने मुझे कह दिया है।” यह वाक्य अर्थ की दृष्टि से अपूर्ण है, क्योंकि अर्थ की पूर्णता के लिए एक अन्य वाक्य की अपेक्षा है- ‘तुम्हारा कार्य हो जाएगा’ अथवा ‘तुम निश्चिन्त रहो’ अथवा ‘मैं कुछ नहीं कर सकता’ आदि।

वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवन में भाव की एक अविछिन्न धारा रहती है और उसे विचित्र रूप में देखना सर्वथा अनुपयुक्त है।

इस प्रकार प्राचीन काल से चली आ रही वाक्य की परिभाषा आज निर्दोष नहीं मानी जाती। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने वाक्य को इस रूप में परिभाषित किया है-

“वाक्य भाषा की सहज इकाई है, जिसमें एक या अधिक शब्द (पद) होते हैं तथा जो अर्थ की दृष्टि से पूर्ण हों या अपूर्ण, व्याकरणिक दृष्टि से अपने विशिष्ट सन्दर्भ में अवश्य पूर्ण होते हैं। साथ ही उसमें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से एक समापिका क्रिया अवश्य होती है।

उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार वाक्य के नियोक्ता पाँच तत्व स्पष्ट होते हैं।

(क) वाक्य भाषा की सहज इकाई है- डा0 भोलानाथ तिवारी के अनुसार भाषा की लघुत्तम इकाई ध्वनि है, क्योंकि ध्वनियों के योग से प्रायः शब्द बनते हैं और शब्द अथवा शब्दों के योग से वाक्य। किन्तु भाषा की सहज इकाई वाक्य है। रूप, शब्द, अक्षर, ध्वनि आदि इकाइयाँ उसकी तुलना में कृत्रिम हैं तथा भाषा-विश्लेषण के बाद इनकी खोज हुई है या मनुष्य इनके प्रति सतर्क हुआ है।

(ख) वाक्य एक शब्द का भी हो सकता है और एक से अधिक शब्दों का भी हो सकता है।

(ग) वाक्य में अर्थ की दृष्टि से पूर्णता भी हो सकती है और अपूर्णता भी। ‘वह उनसे मिलने गया है’ वाक्य अर्थ की दृष्टि से पूर्ण (सन्दर्भ से परिचित व्यक्ति के लिए) भी माना जाता है और (अपरिचित के लिए) अपूर्ण भी।

(घ) वाक्य व्याकरणिक दृष्टि से अवश्य पूर्ण होता है। यह बात दूसरी है कि व्याकरणिक पूर्णता कभी-कभी सन्दर्भ पर निर्भर करती है।

(ङ) वाक्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कम एक समापिका क्रिया (कार्य सम्पन्न होने की सूचिका) अवश्य होती है। जैसे-

“खाना खओगे?”

“हाँ”

इस “हाँ” में परोक्ष क्रिया ‘खाऊँगा” विद्यमान है।

वाक्य की आवश्यकताएँ-

भारतीय आचार्यों ने वाक्य को ‘पद समुच्चय’ कहकर उसके दो अनिवार्य तत्त्वों-सार्थकता और अन्विति का तो परोक्ष रूप से उल्लेख किया ही है, साथ ही अन्य तत्त्व-योग्यता, आकांक्षा आसक्ति का भी उल्लेख किया है। डॉ० भोलानाथ तिवारी ने इन तत्त्वों को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

(1) सार्थकता- इसका आशय यह है कि वाक्य के शब्द सार्थक होने चाहिए।

(2) योग्यता- इसका आशय है कि शब्दों की आपस में संगति बैठे। शब्दों में प्रसंगानुकूल भाव का बोध कराने की क्षमता हो। ‘वह पेड़ को पत्थर से सींचता है’ वाक्य में शब्द तो सार्थक है, किन्तु पत्थर से सींचना नहीं होता, इसलिए शब्दों की परस्पर योग्यता की कमी है, अतः यह सामान्य अर्थ में वाक्य नहीं है, उलटबाँसी भले हो।

(3) आकांक्षा- इसका अर्थ है ‘इच्छा’ अर्थात् ‘जानने की इच्छा’ अर्थात् ‘अर्थ की अपूर्णता’ । वाक्य में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह पूरा अर्थ दे। उसे सुनकर भाव पूरा करने के लिए कुछ जानने की आकांक्षा न रहे।

(4) सान्निध्य या आसक्ति- इसका अर्थ है समीपता। वाक्य के शब्द समीप होने चाहिए। उपर्युक्त सभी बातों के रहने पर भी यदि एक शब्द आज कहा जाए, दूसरा कल और तीसरा परसों तो उसे वाक्य नहीं कहा जाएगा।

(5) अन्विति- इसका अर्थ है-व्याकरणिक दृष्टि से एकरूपता। अंग्रेजी में इसे ‘Concordance’ कहते हैं। विभिन्न भाषाओं में इसके विभिन्न रूप मिलते हैं। यह सामान्य रूपता प्रायः वचन, कारक, लिंग और पुरुष आदि की दृष्टि से होती है।

वाक्य के अंग-

वाक्य के दो अंग हैं-उद्देश्य और विधेय।

(1) उददेश्य- जिसके सम्बन्ध में चर्चा की जाती है या वाक्य का वह अंश जिसके बारे में वाक्य के शेषांश में कुछ कहा गया हो। यथा-‘राम रोटी खाता है।‘ इसमें ‘राम’ उद्देश्य है। साथ ही ‘उद्देश्य’ में ‘केन्द्रीय शब्द’ तथा ‘उसका विस्तार’ आ जाता है।

(2) विधेय- उद्देश्य से सम्बन्धित सूचना विधेय कहलाती है। इसमें क्रिया और उसका विस्तार होता है। ‘राम रोटी खाता है’ में ‘रोटी खाता है’ विधेय है।

वाक्य-विज्ञान का स्वरूप-

कपिल मुनि के अनुसार वाक्य-विज्ञान में वाक्यों की रचना, वाक्यों के प्रकार, वाक्यों में परिवर्तन, वाक्यों में पद-क्रम (पद-विन्यास) और वाक्यों के विश्लेषण का अध्ययन होता है-

वाक्यानां रचना, भेदाः परिवृत्तिः पदक्रमः।

वाक्य-विश्लेषणं चैव, वाक्य विज्ञानमिष्यते ॥

डा. कपिलदेव द्विवेदी (भाषा विज्ञान एवं भाषाशास्त्र) के अनुसार-“वाक्य-विज्ञान में भाषा में प्रयुक्त पदों के परस्पर सम्बन्ध का विचार किया जाता है। अतएव वाक्य-विज्ञान में इस सभी विषयों का समावेश हो जाता है-वाक्य का स्वरूप, वाक्य की परिभाषा, वाक्य की रचना, वाक्य के अनिवार्य तत्त्व, वाक्य में पदों का विन्यास, वाक्यों के प्रकार, वाक्य का विभाजन, वाक्य में निकटतम अवयव, वाक्य में परिवर्तन, परिवर्तन की दिशाएं, परिवर्तन के कारण, पादिम आदि।”

वाक्य की रचना-डॉ. कपिलदेव द्विवेदी ने वाक्य-रचना के दो प्रकार बताये हैं-

(1) अन्तः- केन्द्रिक (Endo-centric) रचना, (2) बहिष्केन्द्रिक (Exo-centric) रचना।

(1) अन्तः-केन्द्रिक रचना (Endo-centric Construction)- यह वह रचना है, जिसका केन्द्र अन्दर हो। इसको अन्तर्मुखी रचना भी कह सकते हैं। यदि रचना का पद समूह (वाक्य-खण्ड) उतना ही काम करता है, जितना उसके एक या अनेक निकटतम अवयव करते हैं, तो उसे अन्तःकेन्द्रिक वाक्यांश कहेंगे और ऐसी रचना को अन्तः-केन्द्रिक रचना कहेंगे। इसमें मुख्य रूप से विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध होता है। इसमें एक या अनेक विशेष्य होते हैं और उनके एक या अनेक विशेषण हो सकते हैं। जैसे-सुन्दर फूल, शुद्ध दूध, स्वादिष्ट भोजन, सज्जन व्यक्ति, सीधी गाय आदि में एक विशेषण और एक विशेष्य है। अत्यन्त सुन्दर फूल, पूर्ण शुद्ध दूध, अत्यधिक स्वादिष्ट भोजन में एक विशेष्य और दो विशेषण हैं। ‘धनुर्धर राम’, योगिराज कृष्ण’ वाक्यांश में दो विशेष्य और दो विशेषण हैं। इस प्रकार अन्तः- केन्द्रिक रचना के अनेक भेदों का उल्लेख डॉ० कपिलदेव द्विवेदी जी ने इस प्रकार किया है-

(i) समवर्गी (Co-coordinative)- जैसे-राम और कृष्ण, दूध और दही, रोटी और मक्खन, फूल और फल। इनमें दोनों समान वर्ग या एक-सी स्थिति वाले होते हैं। द्वन्द्व समास वाले स्थलों पर ऐसे समवर्गी शब्द मिलते हैं।

(ii) आश्रितवर्गी (Subordinative)- इसमें एक या कुछ शब्द मुख्य (Head) होते हैं और शेष इनके आश्रित (Attribute या Sub-ordinate) होते हैं। जैसे-सुन्दर फूल, मधुर फल, स्वादिष्ट व्यंजन, मनोरम प्रसाद। आश्रित वर्गों के दो भेद है-

(क) मुख्य- आश्रितों में भी जो प्रमुख होता है या विशेष्य का स्थान ले लेता है, उसे मुख्य कहते हैं। जहाँ विशेलेषण का भी विशेषण लगता है, वह एक विशेषण विशेष्यत् हो जाता है। जैसे- अत्यन्त मधुर फल में मधु विशेषण (आश्रित) है, फल विशेष्य (मुख्य), फिर ‘अत्यन्त मधुर’ में अत्यन्त विशेषण (आश्रित) है और ‘मधुर’ विशेष्यवत् है।

(ख) आश्रित- जहाँ दो विशेषण शब्द होते हैं, वहीं विशेषण का विशेषण आश्रित होता है। जैसे-‘मधुर’ विशेषण का विशेषण ‘अत्यन्त’ ।

(2) बहिष्केन्द्रिक रचना (Exo-centric Construction)- इसका तात्पर्य है, जिसका केन्द्र बाहर हो। इसको बहिर्मुखी रचना भी कह सकते हैं। यदि रचना का वाक्यांश अपने निकटतम अवयव के अनुरूप कार्य न करता हो तो उसे बहिष्केन्द्री वाक्यांश कहेंगे और उस रचना को बहिष्केन्द्रक कहेंगे। यह रचना अन्तः- केन्द्रिक के विपरीत होती है। दोनों में यह अन्तर है-

(क) अन्तः-केन्द्रिक में मुख्य विशेष्य और विशेषण होता है अथवा दो या अधिक समवर्गी शब्द मुख्य होते हैं। उनके विशेषण हो सकते हैं।

(ख) बहिष्केन्द्रिक ने न विशेष्य होता है और न विशेषण।

(ग) बहिष्केन्द्रिक में कोई एक शब्द अथवा वाक्यांश पूरी रचना के स्थान पर नहीं आ सकता है।

जैसे- शुद्ध दूध में, हाथ से, राके लिए, छत पर। इन वाक्यांशों में संज्ञा शब्द कारक-चिह्नों (में, से, के लिए, पर) का स्थान नहीं ले सकते हैं और न कारक-चिह्न संज्ञा- शब्दों का कारक चिह्नों आदि के कारण यह रचना बहिष्केन्द्रिक है। कारक-चिह्न संज्ञा शब्द के आश्रित नहीं हैं। दोनों स्वतन्त्र और निरपेक्ष हैं। ऐसे स्थानों पर केन्द्र बहिर्मुख है या बाहर है। इसी प्रकार में आया, वह गया, उसने काम किया, उसने पाठ पढ़ा आदि वाक्य कर्त्ता-क्रियात्मक या उद्देश्य विधेय-मूलक हैं। ये भी बहिष्केन्द्रिक ही हैं, क्योंकि इनमें उद्देश्य ‘विधेय’ का स्थान नहीं ले सकता है और न विधेय ‘उद्देश्य’ का।

बहिष्कन्द्रिक रचना में संज्ञा शब्द + कारक-चिह्न या निपात होते हैं हाथ + से, घर + पर, छत + पर, पेड़ + से आदि। ये वाक्यांश किसी संज्ञा शब्द आदि के विशेषक के रूप में आते हैं। जैसे-हाथ से काम करो, घर पर पुस्तक है, छत पर पक्षी है। इनमें ‘हाथ से’, ‘घर पर’ आदि वाक्यांश काम, पुस्तक आदि के विशेषक (Attribute) के रूप में हैं।

रचना वृक्ष

डॉ0 कपिलदेव द्विवेदी ने वाक्य-रचना को इस प्रकार दर्शाया है-

रचना (Construction)

बहिष्केन्द्रिक (Exo-centric)

अन्तः- केन्द्रिक (Endo-centric)

समवर्गी (Co-ordinate)

आश्रितवर्गी (Attribute or Subordinate)

मुख्य (Head)

आश्रित (Sub-ordinate)

मुख्य (Head)

आश्रित (Sub-ordinate)

वाक्य-रचना के नियम

वाक्य-रचना के कुछ नियम हैं, जिनका उल्लेख डॉ० भोलानाथ तिवारी ने इस प्रकार किया है-

(1) क्रम-विन्यास- वाक्य-रचना

करते समय पदों को व्याकरण की दृष्टि से निश्चित स्थान पर रखना चाहिए। यद्यपि संस्कृत, फारसी आदि कुछ भाषाओं में पदों का स्थान परिवर्तन से अर्थ में परिवर्तन नहीं होता, जैसे-

रामः रावणम् हन्ति ।

रावणम् हन्ति रामः ।

रामः हन्ति रावणम् ।

‘तथापि इन भाषाओं में सामान्यतः कर्ता, कर्म करण आदि के अतिरिक्त क्रिया को प्रायः ही वाक्य के अन्त में  रखने का नियम है। हिन्दी तथा अंग्रेजी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं में तो पदों का स्थान परिवर्तित होते ही उसके अर्थ में भी परिवर्तन आ जाता है, जैसे-

Rama Killed Ravana

Ravana killed Rama.

इन दोनों वाक्यों में पदों का स्थान बदलते ही अर्थ बदल गया है-मरने वाला मारने वाला बन गया है। इसी प्रकार-

लड़की गाय दोहती है।

गाय लड़की दोहती है।

यहाँ पदों-लड़की, गाय के स्थान पर परिवर्तन से अर्थ में असंगति आ गयी है। इस प्रकार इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वाक्य-रचना में पदों के क्रम-विन्यास का वशेष ध्यान रखना अपेक्षित होता है।

चीनी भाषा में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से मिलती है-

पा ताड्.शेन = पा शेन को मारता है।

शेन ताड्.पा = शेन पा को मारता है।

अंग्रेजी में सामान्यतः कर्ता, क्रिया और तब कर्म आता है, पर प्रश्नावाचक वाक्य में क्रिया का कुछ अंश पहले ही आ जाता है। विशेषण संज्ञा के पहले आता है और क्रिया-विशेषण क्रिया के बाद में हिन्दी में कर्ता, कर्म और तब क्रिया रखते हैं, पर बल देने के लिए पद-क्रम-प्रधान भाषाओं में भी पद-क्रम में प्रायः परिवर्तन ला देते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी में सामान्यतः कहेंगे, मैं घर जा रहा हूँ’ परन्तु बल देने के लिए ‘घर जा रहा हूँ मैं’ यो ‘जा रहा हूँ घर मैं’ आदि भी कहते हैं।

(2) अन्वय- अन्वय का अर्थ है व्याकरणिक अनुरूपता। विभिन्न भाषाओं में विशेषण- विशेष्य, कर्ता-क्रिया, कर्म-क्रिया आदि में लिंग, वचन, पुरुष आदि की अनुरूपता होती है। यहाँ दो बातें विशेष उललेखनीय हैं- (1) हर भाषा के अन्वय नियम मित्र होते हैं, (2) अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग चीजों का अन्वय होता है। जैसे संस्कृत में कर्त्ता क्रिया में लिंग का अन्वय नहीं है, किन्तु हिन्दी में है-

रामः गच्छति = राम जाता है।

सीता गच्छति = सीता जाती है।

ऐसे ही हिन्दी में विशेषण में भी वचन तथा लिंग का अन्वय है, किन्तु अंग्रेजी में नहीं है।

अच्छा लड़का Good boy

अच्छी लड़की Good girl

अच्छे लड़के – Good boys

हिन्दी में भी क्रिया कभी तो कर्ता के अनुरूप होती है –

मोहन गया-शीला गई।

कभी कर्म के अनुसार-

राम ने रोटी खाई राम ने आम खाया।

सीता ने आम खाया-सीता ने दो आम खाये।

राम ने कई परांठे खाये-राम ने एक परांठा खाया।

कभी-कभी नहीं-

लड़की ने लड़के को मारा।

लड़के ने लड़की को मारा।

लड़कियों ने लड़कों को मारा।

लड़कों ने लड़कियों को मारा।

ऐसे ही मूल विकृत  रूप की भी विशेषण-विशेष्य में अनुरूपता होती है-

वह काला कपड़ा उठाओं।

उस काले कपड़े को उठाओ।

(3) लोप- वाक्य रचना में सभी अपेक्षित शब्दों का प्रयोग सर्वदा नहीं किया जाता। कभी- कभी कुछ का लोप भी हो जाता है। किन्तु यह लोप कुछ ही को हो सकता है और वे निश्चित होते हैं। ‘राम जा रहा है’ वाक्य का नकारात्मक रूप होगा ‘राम नहीं जा रहा’ यहाँ ‘है’ का लोप है। इसी तरह ‘राम जाता है’ का नकारात्मक रूप पहले होता था- ‘राम नहीं जाता है’ किन्तु अब होता है ‘राम नहीं जाता।

ऐसे ही ‘राम घर पर है’ को यह भी कहा जा सकता है ‘राम घर है’ किन्तु ‘राम घोड़े पर है को यह नहीं कह सकते कि ‘राम घोड़े है’।

इसी प्रकार बोलचाल में केवल मुख्य सूचक शब्द अथवा शब्द का ही प्रयोग करते हैं, बाकी का लोप कर देते हैं-

Will you take milk?

Yes, (I will take milk.)

No. (I will not take milk.)

क्या आप कुछ देर रुकेंगे ?

हाँ (कुछ देर रुकूँगा)

नहीं। (कुछ देर नहीं रुकूँगा)

यहाँ कोष्ठक में दिए पद लुप्त हैं। वाक्य-रचना में इन्हें प्रयोग में नहीं लाया जाता, परन्तु अर्थबोध में इनका अध्याहार (उपस्थिति) कर लिया जाता है। लोप कई प्रकार का होता है-

(i) कर्ता का लोप- अपना क्या जाता है, (तुम सफल होओ अथवा असफल) ।

(ii) कर्म का लोप- हमें क्या खाना है, तुम (इसकी) चिन्ता मत करो।

(iii) क्रिया का लोप- घर की मुर्गी दाल बराबर (है)।

(iv) वाक्यांश का लोप- (प्रश्न तुम्हारा क्या नाम है?

(उत्तर) मोहन। (‘मेरा नाम’ तथा ‘है’ का लोप) ।

लोप के सम्बन्ध में तीन बातें स्मरणीय हैं-(क) हर भाषा में लोप के नियम अलग-अलग होते हैं। (ख) एक ही भाषा में कहीं तो लोप होता है, कहीं नहीं होता-राम घर (पर) है, राम घोड़े पर है। (ग) कहीं-कहीं लोप-अलोप दोनों सम्भव है, पर अर्थ में प्रायः अन्तर होता है-हाथ से मारा, हाथ मारा-लाठी से मारा, लाठी मारी।

(4) आगम-कभी-कभी अज्ञान, असावधानी अथवा अपने कथन पर बल देने के लिए अनाश्यक शब्दों को रख दिया जाता है, जो सर्वथा अशुद्ध होने से नितान्त अवांछनीय होता है,

जैसे-

I have just returned back

इस वाक्य में ‘बैक’ (Back) निरर्थक आगम है, क्योंकि ‘रिटर्न’ (Return) का अर्थ ही वापस लौटना होता है।

आप कृपया मेरे घर पधारने की कृपा करें।

‘कृपया’ ‘कृपा करें’ में आवृति है- एक ही प्रयोग अभीष्ट है। ‘वापस लौटना’, ‘सज्जन व्यक्ति’, ‘हिमाचल पर्वत’ आदि वाक्यों अनावश्यक आगम हैं। ‘लौटना’ वापस आने की ही सूचना देता है, सज्जन में ‘व्यक्ति’ अर्थ सन्निहित है। इसी प्रकार ‘हिमाचल’ में अचल शब्द ही पर्वतवाची है।

इस प्रकार के आगो से भाषा अनावश्यक रूप से अशुद्ध हो जाती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बहुत सारे प्रयोग (आगम के कारण) अशुद्ध होने पर भी प्रचलित हो जाते हैं-‘विन्ध्याचल पर्वत भारत के दक्षिण में है।” वह एक सज्जन पुरुष है।’ आदि इसी प्रकार के बहुप्रचलित प्रयोग हैं।

भाषा विज्ञान – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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