अर्थ विज्ञान | अर्थ विज्ञान के विषय क्षेत्र | अर्थ संकोच | अर्थ विस्तार | शब्द और अर्थ का सम्बन्ध | भाषा का अभिलक्षण
अर्थ विज्ञान
अर्थ विज्ञान के अन्तर्गत ही अर्थ शब्द की आत्मा होती है। जिस प्रकार आत्मा के निकल जाने से शरीर व्यर्थ हो जाता है, उसी प्रकार अर्थ के बिना शब्द का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। अर्थ विज्ञान के अन्तर्गत शब्द का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। अर्थ विज्ञान के अन्तर्गत शब्द के अर्थ परिवर्तन की विभिन्न दिशाओं का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन में तीन बातें विशेष रूप से ध्यान में रखी जाती हैं-
(1) अर्थ संकोच (2) अर्थ विस्तार तथा (3) अर्थादेश।
अर्थ संकोच का तात्पर्य यह है कि पहले से प्रचलित किसी शब्द के अर्थ में न्यूनता आ जाना। इस प्रकार किसी शब्द का व्यापक अर्थ जहाँ सिमट कर छोटा हो जाता है उसे अर्थ संकोच कहते हैं उदाहरण के लिए अंग्रेजी का ‘deer’ तथा संस्कृत का ‘मृग’ है शब्द का प्रयोग पहले ‘पशु’ के लिये होता था परन्तु क्रमशः वर्तमान अंग्रेजी तथा हिन्दी में इसका प्रयोग ‘हरिण’ के लिये हो रहा है।
जब किसी शब्द का अर्थ सीमित क्षेत्र से निकलकर विस्तृत हो जाता है तब उसे अर्थ विस्तार कहते हैं।
भाषा में अर्थ विस्तार के उदाहरण अधिक नहीं मिलते हैं। इसीलिए प्रसिद्ध भाषाशास्त्री टकर महोदय के अनुसार भाषा में वस्तुतः अर्थ विस्तार होता ही नहीं है। परन्तु यह मत उचित नहीं है क्योंकि अर्थविस्तार के उदाहरण मिलते तो हैं भले ही कम मिलें जैसे ‘अभ्यास’ शब्द का प्रयोग पहले केवल बाण फेकने के अभ्यास के लिए होता था परन्तु अब हर अच्छे-बुरे कार्यों के लिए भी अभ्यास शब्द का प्रयोग होता है। इसी प्रकार स्याह का अर्थ काला है जिससे स्याही शब्द बना है। क्योंकि पहले लोग काले रंग से लिखते थे परन्तु अब लाल, हरी, सभी रोशनाइयों के लिये स्याही शब्द का प्रयोग होने लगा है।
अर्थ संकोच
हिन्दी व्याकरण में प्रारम्भ में शब्दों में अर्थ व्यंजन की महान शक्ति होती है परन्तु धीरे-धीरे अर्थ रूढ़ हो जाते हैं, जैसे-एक ही गोली सिपाही, डॉक्टर, वैद्य, दर्जी, खिलाड़ी आदि विभिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न अर्थ रखते हैं। अर्थ संकोच-प्रसिद्धि के कारण समाज द्वारा उपसर्ग द्वारा विशेषणों के संयोग से, लोक प्रसिद्धि के आधार पर होता है।
अर्थ विस्तार
अर्थ के सम्बन्ध में विचार हमारे यहाँ प्राचीन काल से होता चला आ रहा है। भर्तृहरि, यास्क, पंतजलि ने इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक विचार किया है। आधुनिक काल में भाषा-विज्ञानी ब्रील ने पर्याप्त ख्याति अर्जित की है। उन्होंने अर्थ-विकास की तीन दिशाएँ मानी हैं- 1. अर्थ-विकास (Expansion of meaning), 2. अर्थ-संकोच (Contraction of meaning), 3. अर्थादेश (Transference of meaning ) ।
अर्थ- विकास की तीनों धराओं के नामकरण से ज्ञात होता है कि शब्द का अर्थ कभी-कभी विकास होता है। कभी अर्थ संकोच और कभी अर्थादेश शब्द प्रचलित शब्द के अलावा कोई नया अर्थ देने लगा है। कुछ विद्वानों ने अर्थ विकास की दो धाराएं और मानी हैं-
1. अर्थोत्कर्ष, 2. अर्थोपकर्ष
डॉ० श्यामसुन्दर दास ने अथदिश नामक एक धारा और मानी है परन्तु मान्यता केवल ब्रील द्वारा निर्धारित धाराओं को ही मिलती है।
अर्थ-विस्तार- अर्थ विस्तार में शब्दों का अर्थ अपने मौलिक अर्थ के रहते अपने सीमित अर्थ का अतिक्रमण कर व्यापक अर्थ को सूचित करने लगता है। डॉ0 तारापोरवाला के अनुसार, “विशिष्ट में सामान्य अर्थ की स्थापना ही अर्थ विस्तार है।”
“A general world a used in a special word in a general sense.”
अर्थ– विस्तार में किसी शब्द के अर्थ का क्षेत्र बढ़ जाता है अर्थात् जब पहले किसी शब्द का क्षेत्र सीमित हो और बाद में उसकी सीमा का विस्तार हो जाए तो उसे अर्थ-विस्तार कहते है जैसे-
प्रवीण- शब्द और अर्थ था- वीणा बजाने में प्रवीण- परन्तु बाद में किसी भी कार्य में निपुण व्यक्ति को प्रवीण कहा जाने लगा।
कुशल- शब्द और अर्थ का दूसरा उदाहरण है जो कुश लाने में प्रवीण हो उसे कुशल कहा जाता था। क्योंकि प्राचीनकाल में कुशा का विशेष महत्व था परन्तु आजकल कुशा का महत्व नहीं रहा फिर भी किसी भी कार्य को दक्षतापूर्वक करने वाला व्यक्ति कुशल कहा जाता है।
गोष्ठ- का अर्थ जहाँ गायें रहती हैं। बाद में सभी पशुओं के रहने के स्थान को गोष्ठ कहा जाने लगा।
गवेषण- गायों की खोज करने वाले को गवेषण कहा जाता था। बाद में किसी भी लगनपूर्वक कार्य को गवेषण कहा जाने लगा। यहाँ तक कि गवेषणात्मक निबन्ध भी होने लगे।
तेल- पहले तिलों को तेल कहते थे परन्तु अब अर्थ विस्तार के कारण मिट्टी के तेल, सरसों का तेल, नारियल का तेल होने लगा है। यहाँ तक तेल निकालना मुहावरा भी प्रचलित हो गया है।
शब्द और अर्थ का सम्बन्ध
हिन्दी के क्षेत्र में शब्द और अर्थ का संयुक्त रूप भाषा है। बिना अर्थ के शब्द का कोई मूल्य नहीं है। भाषा विज्ञान के अन्तर्गत अर्थ सम्बन्धी विवेचन को अर्थ विज्ञान कहा जाता है। आज अर्थ विज्ञान की गणना भाषा-विज्ञान के प्रमुख भागों के अन्तर्गत की जाती है। भाषा विज्ञान के अन्तर्गत अर्थ का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि भाषा सार्थक होने पर ही महत्वपूर्ण होती है। निरर्थक भाषा का अध्ययन नहीं होता है।
भारतवर्ष में अर्थ विचार की परम्परा काफी प्राचीन है। शब्द विचार के साथ ही अर्थ विचार की परम्परा अति प्राचीनकाल से ही रही होगी ऐसा अनुमान है। यास्क का निरूक्त इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य है। इसको दर्शनशास्त्र भी मानता है। पातंजलि के महाभाष्य और भर्तृहरि के वाक्यपदीय में भी शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को नि य माना गया है। भाषा-विज्ञान भी इसी मत की पुष्टि करता है शब्द और अर्थ का सम्बन्ध नित्य है क्योंकि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध यदि नित्य न होता तो एक शब्द कहने से एक ही अर्थ सामने क्यों आता। अतः भाषा-विज्ञान की दृष्टि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध नित्य मानना आवश्यक है। शब्द और अर्थ के सम्बन्ध में भर्तृहरि का मत है हमारे लिए विशेष उपादेय है क्योंकि उन्होंने शब्द और अर्थ का सम्बन्ध न केवल दार्शनिक दृष्टि से अपितु व्यावहारिक दृष्टि से भी माना है। भर्तृहरि का कथन है कि यदि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध मानव से ही है तो वह सम्बन्ध वाच्य वाचक सम्बन्ध हो सकता है।
भाषा का अभिलक्षण
भाषा विज्ञान में जब भाषा पर विचार किया जाता है तब उसका आशय मानव की भाषा से होता है यहाँ अभिलक्षण से तात्पर्य, विशेषता या मूलभूत, लक्षण से ही है, क्योंकि किसी वस्तु या पदार्थ के लक्षण ही उसको दूसरे पदार्थ से अलग करते हैं।
डॉ0 भोलानाथ तिवारी के अनुसार- “मानव भाषा के अभिलक्षण वे हैं जो उसे अन्य सभी प्रकार को भाषाओं से अलगाते हैं।” जो इस प्रकार हैं- (1) यादृच्छिकता, (2) सृजनात्मकता, (3) अनुकरण ग्राह्यता (4) परिवर्तनशीलता, (5) विविक्तता, (6) द्वैतता, (7) भूमिका परिवर्तन, (8) दिक् काल अन्तरणता, (9) द्विमार्गता, (10) असहज-वृत्तिकता, (11) स्वतः पूर्णता, (12) निजी वैयक्तिकता, (13) सतत् प्रवहणशीलता, (14) उपार्जित सामाजिक सम्पदा, (15) सारल्योन्मुखता।
उपर्युक्त समस्त लक्षण समवेत-रूप में केवल मानव भाषा में ही मिलते हैं। भाषा की ये विशेषतायें ही उसे मानवेतर भाषाओं से अलग करती हैं।
भाषा विज्ञान – महत्वपूर्ण लिंक
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