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रिचर्ड्स अनुसार भाषा प्रयोग | रिचर्ड्स द्वारा बताये गये भाषा के विविध प्रयोगों पर प्रकाश | आई०ए० रिचर्ड्स ने भाषा प्रयोग के सम्बन्ध में सुझाव

रिचर्ड्स अनुसार भाषा प्रयोग | रिचर्ड्स द्वारा बताये गये भाषा के विविध प्रयोगों पर प्रकाश | आई०ए० रिचर्ड्स ने भाषा प्रयोग के सम्बन्ध में सुझाव

रिचर्ड्स अनुसार भाषा प्रयोग

रिचर्ड्स ने भाषा-विज्ञान तथा मनोविज्ञान के आधार पर काव्य-भाषा का वैशिष्ट्य स्पष्ट किया है। उनके अनुसार भाषा प्रयोग के दो रूप हैं-

  1. भाषा का वैज्ञानिक प्रयोग-

इस भाषा में स्पष्टता, अर्थ की निश्चितता, संक्षिप्तता, तार्किकता और सीमितता लक्षित होती है। इसके द्वारा किसी सन्दर्भ विशेष के हेतु वक्तव्य दिया जाता है वह चाहे सत्य हो या मिथ्या इसे सूचनात्मक, तथ्यात्मक अथवा अभिधात्मक भाषा प्रयोग भी कहा जाता है, क्योंकि विज्ञान की भाषा तथ्यात्मक होती है।

  1. भाषा का भावात्मक अथवा रागात्मक प्रयोग-

यहाँ सत्य अथवा असत्य कथन की प्रस्तुति वक्ता का अभिप्राय नहीं होता, अपितु यहाँ मानव जगत् पर पड़ने वाले विविध प्रभावों को इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि श्रोता के मन पर भी वैसे ही प्रभाव की सृष्टि हो सके। अतः काव्य-भाषा सीधी-सपाट न रहकर जटिल, घुमावदार भाषा होती है। इसका प्रयोग मनोवेगों को प्रभावी बनाने के लिए किया जाता है। इसमें पदार्थ का उल्लेख मात्र सूचनात्मकं न होकर श्रोता के मन में अभिप्रेत भावों को आहूत करने हेतु किया जाता है। इसी आधार पर काव्य में शुद्ध कथन की उपेक्षा करके, छदम् कथन की महत्ता स्वीकार की गई है। रिचर्ड्स यह मानते हैं कि विज्ञान में कथन और काव्य में छदम् कथन होते हैं. ‘Science makes I statements, poetry makes pseudo statements.”

भाषा के उपर्युक्त दोनों प्रयोगों की स्थिति को स्पष्ट करते हुए रिचर्ड्स ने कहा है-

‘A statement may be used for the sake of the reference, true or false, which it causes. This is the scientific use of language. But it may also be used for the sake of the effects in emotion and attitude… This is the emotive use of language.’

अर्थात् ‘वस्तु सत्य या असत्य के निर्देश मात्र के लिए एक कथन प्रस्तुत किया जा सकता है। यह भाषा का वैज्ञानिक प्रयोग है। किन्तु भाषा का प्रयोग भावात्मक प्रभावों तथा प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति के लिए भी किया जा सकता है…यह भाषा का भावात्मक प्रयोग है।’

भाषा को रिचर्ड्स उन प्रतीकों का समूह मानते हैं, जो श्रोता-पाठक के मन में लेखक के मन के अनुकूल अवस्था उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार भाषा का प्रतीकत्व वक्ता और श्रोता के बीच अखण्ड मानसिक व्यापार का सूत्रपात करता है। वे शब्द का अर्थ प्रसंग के अन्तर्गत ही उद्घाटित करने के पक्षधर हैं। वे शब्दों को स्वतन्त्र और स्वतःपूर्ण नहीं मानते। ‘Words are not like coiled and naked thieves that infest railway carriages in India.’ शब्दों का अर्थ प्रसंग के अन्तर्गत उद्घाटित होने से उनका तात्पर्य परम्परागत अर्थ से नहीं है, अपितु प्रसंग में कल्पना के ऐसे नवीन तत्त्वों के समावेश से है, जिसका सम्बन्ध मनोविज्ञान और तर्कशास्त्र से है। इस सन्दर्भ में रिचर्ड्स ने लय, छन्द पर विचार करते हुए अर्थ की प्रक्रिया पर भी विचार किया है-

  1. लय और छन्द- लय रिचर्ड्स के मतानुसार काव्य के लिए अनिवार्य तत्त्व है। उनके मतानुसार लय (Rhythm) केवल ध्वनियों की व्यवस्था नहीं है, वरन् उसमें गम्भीर भावों और शब्दार्थ का नियोजन है अर्थात् लय की स्थिति केवल ऊपरी धरातल पर ही नहीं रहती, उसका विकास मन और भाषा की गहराई में होता है। प्रत्येक शब्द के अनेक सम्भावित प्रभाव होते हैं, जो

उसके प्रयोग की स्थिति के अनुसार अलगअलग होते हैं। ‘The way in which the sound of a word is taken varies with the emotion already in being. But further it varies with the sense.

लय का आधार है-प्रत्याशा संगीत अथवा कविता में ध्वनि इस प्रकार नियोजित की जाती है कि मन आगे के कुछ खास अनुक्रमों के लिए तैयार हो जाता है। ‘The texture of expectations, satisfactions. disappointments, surprisal’s which the sequence of syllables brings about is rhythm. And the sound of words comes to its full power only through rhythm.

छन्द लय का ही एक विशिष्ट रूप है। छन्द वह साधन है जिसके द्वारा शब्द एक दूसरे को अधिकतम सीमा तक प्रभावित करते हैं। छन्द में लय अधिक नियमित होकर प्रकट होती है। उसके बंधे हुए नियम प्राचीन काल से चले आए हैं और लोग उन्हीं को मानदण्ड बनाकर कविता का मूल्यांकन करते हैं। पर यह यांत्रिक प्रयोग उचित नहीं। छन्द में भाव, अर्थ आदि उतना ही महत्त्व रखते हैं जितनी कि ध्वनि। ‘As with rhythm so with meter we must not think of it as in the words themselves or in the thumping of the drum…its effect is not due to our perceiving a pattern in something outside us, but to our becoming patterned ourselves. ‘

छन्द की प्रत्येक चोट पर हमारे भीतर प्रत्याशाओं का एक प्रवाह घूमता है। रिचर्ड्स छन्द और लय के सौन्दर्य को वस्तुगत न मानकर विषयगत मानते हैं।

  1. अर्थ मीमांसा- रिचर्ड्स के अनुसार अर्थ के चार स्तर होते हैं-

(i) सामान्य बोध या वाच्यार्थ- इसे वस्तुस्थिति की परिचायक शक्ति माना गया। शब्द जिस अर्थ के लिए प्रसिद्ध या रूढ़ है, उसी अर्थ का बोध कराना। रिचर्ड्स के अनुसार ‘We speak to say something and when we listen, we expect something to be said.’

जब हम कुछ कहते हैं, तो उसका कुछ अर्थ होता है। हमारा लक्ष्य होता है कि श्रोता उस अर्थ और उसके भाव को समझे। जब हम कुछ सुनते हैं तो हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हम उस कथन के मूल अर्थ को समझें। यही ‘वाच्यार्थ’ माना जाता है।

(ii) अनुभूति या भाव- यह वह भावना है जो कलाकार शब्द प्रयोग द्वारा व्यक्त करना चाहता है, अर्थात सुनी गई बात की अनुभूति। अनुभूति का आधार भी अर्थ-ग्रहण में सहायक होता है। रिचर्ड्स के शब्दों में-‘ We lhave an attitude towards it. Some special direction, bias or accentuation of interest towards it. Some personal flavour as colouring of feeling; and we use language to express these feelings, this nuance of interest.’

(iii) अनुतान अथवा स्वर या लहजा- इसे कथन-भंगिमा के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और काकुवक्रोति की सीमा में रखा जा सकता है। श्रोता जिस भाव विशेष की स्थिति या दृष्टि विशेष से प्रेरित होता है, उसकी शब्दावली विशेष स्वर, लय, अलंकार आदि से युक्त हो जाती है। काव्य का अर्थ इस पर भी आधारित होता है। रिचर्ड्स के अनुसार- ‘He chooses or Arranges his words differently as his audience varies, in automatic or deliberate recognition of his relation to them.’

(iv) अभिप्राय- ‘अभीष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति’ ही वक्ता या लेखक का उद्देश्य होता है। इसका अर्थ यह है कि पाठक या श्रोता पर कवि या वक्ता जो प्रभाव विशेष छोड़ना चाहता है, उसके प्रति भी यह जागरूक रहता है। इतना अवश्य है कि यह जागरूकता सदैव ज्ञान रूप से ही हो।  वह उस रूप के प्रति अज्ञात रूप से भी सहज रह सकता है। जो आलोचक या सुधी पाठक इस तत्त्व को पकड़ पाता है, अर्थात् ‘उद्देश्य’ तक पहुँच जाता है। इसके लिए अर्थ पूर्णतः सुलभ हो जाता है। रिचर्ड्स के शब्दों में ‘The understanding of it is part of the whole business of apprehending his meaning.”

रिचर्ड्स के अनुसार पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए भाव के उपर्युक्त चारों स्तर महत्त्वपूर्ण हैं। श्रेष्ठ काव्य में इन चारों रूपों का विवेकपूर्ण समन्वय होता है। भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के अन्तर्गत ये चार स्तर समाहित हैं।

वैज्ञानिक भाषा में वक्ता या लेखक पहले स्तर से ही विशेषतः सम्बद्ध होता है, क्योंकि वह अपने कथन की अभिव्यक्ति स्पष्ट संकेतों के माध्यम से ही करता है और संकेत अपने निश्चित अर्थ से बाहर नहीं जाते। चतुर्थ स्तर अथवा वक्ता का अभिप्राय पहले स्तर पर ही पूर्ण हो जाता है। श्रोता की अकांक्षा प्रथम स्तर पर ही तृप्त हो जाती है। जो कुछ कहा गया है, उसके आगे उस सम्बन्ध में कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।

काव्य-भाषा में कवि का सम्बन्ध पहले अर्थ-स्तर से सामान्य किन्तु दूसरे तथा तीसरे अर्थ- स्तर से विशेष होता है, क्योंकि यहाँ एक शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं। एक शब्द ‘निशा न जाने कितने अर्थों का परिचायक हो सकता है। यही शब्द जब एक वाक्य में बंध जाता है तो उसकी अर्थ-व्याप्ति सीमित हो जाती है। इस प्रकार कवि में सन्दर्भ भी अर्थ का एक प्रमुख निर्णायक आधार बन जाता है। कविता में बहुत कुछ अनकहा भी रह जाता है, जिसे पाठक की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है। वाक्य में अर्थ के इस वैशिष्ट्य पर ध्यान रखते हुए भी इसके अध्ययन में प्रवृत्त हुआ जा सकता है। शब्द-शक्तियों को पहचानने की समुचित क्षमता द्वारा ही आलोचक सम्पूर्ण अर्थ तक पहुँच सकता है, क्योंकि कविता में भावाभिव्यक्ति के अनेकों तत्त्व हो सकते हैं, जो सामान्य बुद्धि तथा भाषा. की तार्किक रचना से अलग होते हैं। डॉ० रिचर्ड्स के अनुसार- ‘But these indirect devices expressing feeling, through logical nonsense, through statements not to be taken strictly, literally or seriously, though pre-eminently apparent in poetry, are not peculiar to it.’

रिचर्ड्स काव्य-भाषा की विशिष्ट संरचना पर भी विचार करते हैं। उनकी मान्यता है कि अभीष्ट काव्यार्थ के हृदयंगम करना प्रयत्न साध्य है। उन्होंने काव्यार्थ तक पहुँचने की प्रक्रिया के छह स्तर माने हैं–

  1. छपे हुए शब्दों की दृश्यात्मक अनुभूति,
  2. परस्पर सापेक्षता से बिम्बों का स्वतन्त्र होना,
  3. अनुभूतियों से निकटतम सम्बद्ध बिम्बों का ग्रहण,
  4. अन्याय विचारों अथवा वस्तुओं का सन्दर्भ,
  5. संवेग तथा
  6. भावात्मक ऐच्छिक प्रवृत्ति ।

इस प्रकार अमीष्ट काव्यार्थ तक पहुँचने का एक क्रम दिखलाई पड़ता है। कविता के शब्द पढ़ते ही इन शब्दों से मन की आँखों के सामने कुछ चित्र खड़े हो जाते हैं। दूसरी अवस्था में इन सामान्य चित्रों के बीच से कुछ बिम्ब उभरते हैं, जो परस्पर सम्बद्ध होते हैं, किन्तु तीसरे स्तर पर ये बिम्ब सर्वथा स्पष्ट एवं स्वतन्त्र रूप ग्रहण करते हैं। चतुर्थ स्तर पर अन्य प्रासंगिक विचार या  स्थितियाँ इन बिम्बों से सम्बद्ध होती है और तब पाँचवाँ स्तर पाठक के मन में कवि के समान संवेगों के उदय का होता है। इसके बाद ही अन्तिम स्तर पर पाठक या आलोचद भावात्मक स्तर पर कविता के अभीष्ट अर्थ को हृदयंगम करते हुए उसके अनुशीलन में प्रवृत्त होता है। इन विभिन्न स्तरों से गुजरने के कारण ही, एक ही कविता पर अनेक आलोचकों की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं दिखलायी पड़ती हैं।

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Pankaja Singh

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