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रस सम्प्रदाय सिद्धान्त | भरतमुनि और रस-सिद्धान्त | रस सम्प्रदाय का महत्त्व

रस सम्प्रदाय सिद्धान्त | भरतमुनि और रस-सिद्धान्त | रस सम्प्रदाय का महत्त्व

रस सम्प्रदाय सिद्धान्त

रस सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का मूलाधार एवं महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसके प्रवर्तन पर विवाद होते हुए भी अधिकांश विद्वान भरतमुनि को ही इसका प्रथम उदघोषक मानते हैं।

उनके ‘नाट्यशास्त्र’ में इसका विवेचन हुआ है। डॉ० नगेन्द्र ने भी (रस-सिद्धान्त) ‘नाट्यशास्त्र’ में ‘कामसूत्र’ (वात्स्यायन-कृत) के अनेक उद्धरणों की प्राप्ति के आधार पर यह स्वीकार किया है कि रस का मूलाधार ‘कामसूत्र’ है और उसके (काम-सूत्र के) स्रोत ‘अथर्ववेद’ में भी निहित हैं। इसी आधार पर भारतीय आलोचनाशास्त्र के रचयिता डॉ० राजवंश सहाय ‘हीरा’ यह स्वीकार करते हैं कि ‘नाट्यशास्त्र’ शताब्दियों से प्रवहमान रस-परंपरा का विकसित रूप है, न कि इस परंपरा का प्रवर्तन करने वाला आदिग्रंथ है। इससे पूर्व ही रस-विवेचन का स्वरूप स्थिर हो गया था और भरतमुनि ने पूर्वाचार्यों की समस्त मान्यताओं का उपयोग करके अपने रस-विषयक मत को पूर्ण बनाने का प्रयास किया था।

भरतमुनि और रस-सिद्धान्त-

भरतमुनि का रस-विवेचन नाटक को दृष्टि में रखकर किया गया है। वे नाटक के चार अंगों-वस्तु, अभिनय, संगीत और रस-में से रस को ही प्रमुखता देते हैं। उनके अनुसार रस काव्य या नाटक का प्रमुख तत्व है। रस के अभाव में नाटक का कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। उन्होंने रस को पाठ्य (वस्तु), अभिनय और संगीत का नियंता मानकर नाटक में इसके सफल नियोजन को महत्त्व दिया। भरतमुनि नाटक को वाङ्मय का सर्वश्रेष्ठ रूप स्वीकार करते हुए रस को उसका प्राण स्वीकार करते हैं, क्योंकि कोई भी नाट्यांग रस के बिना अर्थ- प्रवृत्त नहीं हो सकता —

‘नहि रसाद् ऋते कश्चिदर्थः प्रवर्तते।’

नाट्यशास्त्र का रस-सूत्र-

नाट्यशास्त्र का बहुचर्चित रस-सूत्र है-

‘यत्र विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः ‘

इसमें ‘यत्र’ का प्रयोग रंगमंच की ओर संकेत करता है। अतः स्थायीभाव ही विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस-निष्पत्ति का कारण बनता है।

भरतमुनि के रस-सूत्र में स्थायी भाव का उल्लेख नहीं है, जबकि रस की निष्पत्ति अथवा परिपाक में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्व है। स्थायी भाव से ही रस का रूप परिणत अथवा परिवर्तित होता है। भरत मुनि के रस सूत्र में संयोग और निष्पत्ति इन दो शब्दों पर विवाद उत्पन्न हुआ है।

भरतमुनि के रस-सूत्र का उल्लेख करते हुए आचार्य मम्मट भे भट्टलोल्लक आदि के मतों की चर्चा इस रूप में की है।

उक्तं हि भरतेन-

विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः ।

एतद् विवृण्यते-

विभावैर्ललनादिभिरालम्बनोद्दीपनकारणैः रत्नादिको भावंजनितः, अनुभावैः, कटाक्ष- भुजाक्षेप प्रभृतिः कार्यै प्रतीतियोग्यः कृतः व्यभिचारिभिनिर्वेदादिभिः सहकारिभिरूपचितो ‘मुख्यतया वृत्या रामादावनुकार्ये तद्रूपतानु संधानान्नर्तकेऽपि प्रतीयमानो इति भट्टलोल्लट प्रभृतयः ।

(जैसा कि भरत ने कहा है-विभाव अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

विभावों में ललना आदि आलम्बन तथा उद्यान आदि उद्दीपन कारणों से रति आदि भाव (स्थायी भाव) उत्पन्न होता है। अनुभाव कटाक्ष, भुजाक्षेप आदि कार्यों से प्रतीति के योग्य किया जाता है, व्यभिचारी भाव अर्थात् निर्वेद आदि सहकारी भावों के द्वारा परिपुष्ट अर्थात् उपचित किया गया मुख्य रूप से राम आदि अनुकार्य में तथा उनके रूप का अनुसन्धान अर्थात् रामादि के रूप. का अनुसंधान करने के कारण अनुकर्ता अर्थात् नर्तक में भी प्रतीपमान (प्रतीत होने वाला) रस है। यह भट्टलोल्लट प्रभृति विद्वानों का मत है )

भट्टलोल्लट आदि के मत का सारांश इस प्रकार है-

(क) भट्टलोल्लट- ये उत्पत्तिवादी आचार्य कहलाते हैं । भट्टलोल्लट ने ‘संयोग’ शब्द के तीन अर्थ किये हैं-उत्पाद्य-उत्पादक भाव, गम्य-गमन भाव और पोष्य-पोषक भाव । इसी प्रकार उन्होंने निष्पत्ति शब्द के भी तीन अर्थ किये हैं-उत्पत्ति, प्रतीति और उपचिति । तात्पर्य यह है कि विभाव के साथ स्थायी भाव का संयोग, उत्पाद्य, उत्पादक भाव से रस की निष्पत्ति अर्थात् उत्पत्ति होती है । अनुभावों के साथ संयोग अर्थात् गम्य-गमक भाव सम्बन्ध होने पर निष्पत्ति अर्थ प्रतीत होगा। व्यभिचारी भावों के साथ पोष्य-पोषक भाव सम्बन्ध होने पर निष्पत्ति का अर्थ उपचिति होगा। इस प्रकार रत्यादि स्थायी भावों का विभावों अर्थात् आलम्बन और उद्दीपन के साथ जन्म-जनक भाव सम्बन्ध होने पर रस की उत्पत्ति होती है।

भट्टलोलक के मत की आलोचना- भट्टलोल्लट के मत की आलोचना करते हुए श्री शंकुक ने लिखा है—’भट्टलोल्लट ने मुख्य से अनुकार्य राम में और गौण रूप से अनुकर्ता नट में रस की उत्पत्ति, प्रतीति और पुष्टि मानते हैं। इस प्रकार सामाजिकों के हृदय में रस की उत्पत्ति कैसे होगी? इसी प्रकार अनुकर्ता नट में भी रसानुभूति कैसे होगी? तीसरे अनुकार्य कल्पित होते  हैं, जिनका अस्तित्व प्रामाणिक नहीं है, फिर उनमें रसानुभूति कैसे सम्भव है? चौथे हास्य रस के छः भेद होते हैं। ये भेद आश्रयगत हैं। रस की दोनों में परिणित मान लेने पर सहृदय में ये भेद सम्भव नहीं हैं। पांचवां यदि स्थायी के तारतम्य में रस-भेद मान भी लें तो काम की दस अवस्थाओं में असंख्य रूप मानने पड़ेंगे। करुण रस के आरम्भ में शोक तीव्र होता है, परन्तु बाद में मन्द होता जाता है। इसी प्रकार रौद्र, वीर, श्रृंगार रसों में भी क्रोध, उत्साह, रति आदि का भी ह्रास देखा जाता है।

श्री शंकुक का अनुमितिवाद- श्री शंकुक नैयायिक थे। नैयायिक अनुमान प्रमाण में विश्वास करते हैं। उनके मत को आचार्य मम्मट ने इस रूप में प्रस्तुत किया है-

राम एवायम् अयमेव राम इति, न रामोऽयमित्योत्तरकालिके बोधे रामोऽयमिति रामः स्याद् वा न वायमिति, रामसदृशोऽमिति च सम्यङ् मिथ्या संशय सादृश्य प्रतीतिभ्यो विलक्षणया चित्रतुरंगन्यायेन रामोऽमिति प्रतिपत्या ग्राह्ये रो।

सेयं ममागेषु सुधा रसच्छटा सुपुरकर्पूर शलालिका दृशोः,

मनोरथ श्रीर्मनसः शरीरिणी प्राणेश्वरी लोचन गोचरं गता।

देवदहमद्य तया चपलायतनेत्रया वियुक्तश्च,

अविरलं विलौल, जलदः कालः समुपागतश्चायम्॥

इत्याद काव्यानुसन्धानच्छिक्षा निवर्तित स्वकार्य प्रकटनेन च नरेनेव प्रकाशितैः कारण कार्य सहकारिभिः कृत्रिमैरपि तथाऽनभिमन्य मानैर्विभावादि शब्द व्यपद्देशैः ‘संयोगात’, गगम्य- गम भावयपात् अनुभीयमानोऽपि वस्तु सौन्दर्यवलाद्रसनीयत्वेनान्यथानुमीयमान विलक्षणः स्थायित्वेन सम्भाव्यमानो रत्यादि वस्तभा सन्नापि सामाजिकानां वासनया चर्यमाणो रस इति श्रीशंकुकः ।

(यह राम ही है’, या यह ही राम है’ इस प्रकार की यह राम नहीं है, इस प्रकार उत्तरकाल में बाधा होने पर ‘यह राम है’ इस प्रकार, यह राम है अथवा नहीं, इस प्रकार की, ‘यह राम के समान है’, इस प्रकार की सम्यक् प्रतीति, मिथ्या प्रतीति, संशय प्रतीति तथा सादृश्य प्रतीति के कारण विलक्षण ‘चित्रतुरंगन्याय’ से ‘यह राम है’, इस प्रकार की प्रतीति होने से ग्राह्य नट में—

‘यह मेरे अंगों में अमृत की छटा, आँखों के सुन्दर कपूर की शलाका और मेरे मन की शरीरधारिणी मनोरथश्री यह प्राणेश्वरी अब दृष्टिगोचर हुई।

‘दैववश, आज मैं उस चंचल दीर्घ नेत्रों वाली से वियुक्त हुआ और घने चारों ओर छाये हुए बादलों से युक्त यह समय आ गया है।’ इत्यादि काव्यों के अनुसन्धान के बल से तथा शिक्षा और अभ्यास से नट के द्वारा ही प्रकाशित होने वाले, कृत्रिम होने पर भी वैसा न समझे जाने वाले विभावादि शब्द से व्यवहार के विषय में होने वाले कारण, कार्य और सहकारी भावों के साथ संयोग, गम्य-गमक भाव सम्बन्ध से अनुमीयमान होकर भी वस्तु के सौन्दर्य के कारण आस्वाद योग्य होने से अनुमान के विषयों के कारण विलक्षण स्थायी भाव रूप में ज्ञान का विषय रति आदि भाव वहाँ नट में न रहने पर भी सामाजिकों की वासना के द्वारा आस्वाद किया जाता हुआ होकर रस कहलाता है । यह श्री शंकुक का मत है।)

श्री शंकुक के मत की आलोचना- श्री शंकुक के मत में सहृदय और नट में जो विभाव आदि हैं, वे कृत्रिम हैं। कृत्रिम विभाव आदि के आधार पर रस की अनुभूति नहीं हो सकतीं । श्री शंकुक ने रस की अनुभूति का आधार अनुमान माना है। अनुमान के द्वारा होने वाला ज्ञान परोक्ष  होता है, प्रत्यक्ष नहीं। प्रत्यक्ष ज्ञान से जो चमत्कारपूर्ण रसानुभूति होती है, वह अनुमान के द्वारा नहीं हो सकती, क्योंकि अन्य में विद्यमान आनन्द का अनुमान अन्य में कदापि नहीं हो सकता। दूसरे इस अनुमान में कुछ कृत्रिम है। कृत्रिम साधन से अनुमान सम्भव नहीं है।

भट्टनायक का मुक्तिवाद- भट्टनायक सांख्य दर्शन में विश्वास करने वाले आचार्य थे। उनका मत आचार्य मम्मट ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

‘न ताटस्थ्येन नात्मगतत्वेन रसः प्रतीयते, नोत्पद्यते, नाभिव्यज्यते, अपितु काव्ये नाट्ये चाभिधातो द्वितीयेन विभावादि साधारणीकरणात्मना भावाकत्व व्यापारेण भाव्यमानः स्थायी सत्चोद्रेक प्रकाशानन्दमयसंविद् विश्रान्ति सतत्वेन भोगेनभुज्यते, इति भट्टनायकः ।’

(न तटस्थ रूप से और न आत्मगत रूप से रस की प्रतीति होती है, न उत्पत्ति होती है और न अभिव्यक्ति होती है, अपितु काव्य और नाटक में अभिधा शक्ति से भिन्न विभाव आदि के साधारणीकरण रूप ‘भावकत्व’ नाशक व्यापार से साधारण बना हआ स्थायी भाव सत्व के उद्रेक से प्रकाश और आनन्दमय ज्ञान के शान्त स्वरूप वाला अर्थात् वे आन्तरसम्पर्क शून्य भोग के द्वारा भोगा जाता है । तात्पर्य यह है कि भोजकत्व व्यापार के द्वारा अनुभाव किया जाता है । यह भट्टनायक का मत है।)

भट्टनायक के मत की आलोचना- स्थायी भाव वासना के रूप में होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति में अपने आप साधारणीकृत रहता है, अतः अलग से साधारणीकृत व्यापार की क्या आवश्यकता है। इसी प्रकार भट्टनायक की मुक्ति भी रस की प्रतीति से अलग नहीं है । सत्य गुण के उद्रेक से चेतना जब आनन्द के रूप में व्यक्त हो जाती है, तब रस प्रतीति कहलाती है। वही रस मुक्ति प्रतीति है। इस प्रकार भट्टनायक का भावकत्व और भोजकत्व व्यापार व्यंजना और रसास्वाद से भिन्न है।

अभिनवगुप्त का अभिव्यक्तिवाद- आचार्य अभिनवगुप्त का मत अभिव्यक्तिवाद के नाम से प्रसिद्ध है। इसे अलंकारवादी मत कहा जाता है। आचार्य अभिनवगप्त के मत में भरतमनि के रस सत्र में आये ‘संयोग’ शब्द का अर्थ व्यंग्य-व्यंजक भाव सम्बन्ध, तथा ‘निष्पत्ति’ का अर्थ ‘अभिव्यक्ति है। उनके मत के अनुसार विभाव आदि के साथ व्यंग्य-व्यंजक भाव सम्बन्ध के द्वारा रति आदि स्थायी भाव रस के रूप में अभिव्यक्त होता है।

आचार्य अभिनवगुप्त ने भट्टनायक के द्वारा प्रस्तुत मुक्तिबाद से प्रेरणा लेकर अपने अभिव्यक्तिवाद की स्थापना की तथा ‘साधारणीकरण’ शब्द का प्रयोग करके राम आदि अनुकार्य से रस के सामाजिक अथवा दर्शक, पाठक आदि तक पहुँचने की समस्या का समाधान किया। अभिनवगुप्त ने भट्टनायक के भावकत्व और भोजकत्व व्यापारों की व्यर्थता बताते हुए साधारणीकरण से ही रसानुभूति को सिद्ध किया है। इस प्रकार आचार्य अभिनवगुप्त ने कोई विशेष प्रयत्न न करके भट्टनायक के सिद्धान्त या मत का परिष्कार मात्र किया है।

आचार्य मम्मट को आचार्य अभिनवगुप्त का अभिव्यक्तिवाद का सिद्धान्त स्वीकार है। रस की अनुभूति अभिधा और लक्षणा शब्द शक्तियों से न होकर व्यंजना शक्ति से होती है। व्यंजना शक्ति ही ध्वनि है । मम्मट ध्वनिवादी आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने ध्वनि काव्य को ही उत्तम काव्य माना है।

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Pankaja Singh

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