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रिचर्डस का सम्प्रेषण सिद्धान्त | प्रेषणीयता का अर्थ है | अनुभूति की सम्प्रेषणीयता | सम्प्रेषण की दशा | सम्प्रेषण के तत्त्व | सम्प्रेषण में बाधक तत्त्व

रिचर्डस का सम्प्रेषण सिद्धान्त | प्रेषणीयता का अर्थ है | अनुभूति की सम्प्रेषणीयता | सम्प्रेषण की दशा | सम्प्रेषण के तत्त्व | सम्प्रेषण में बाधक तत्त्व

रिचर्डस का सम्प्रेषण सिद्धान्त

रिचर्ड्स के मतानुसार काव्य के दो मूलाधार हैं- मूल्य पक्ष और सम्प्रेषण पक्ष ‘The two pillars upon which a theory of criticism must rest are an account of value and an account of communication.’ दोनों की उपस्थिति में ही उत्कृष्ट काव्य जन्म लेता है। इनमें से वे सम्प्रेषण की क्षमता को जन्मजात मानते हैं।

प्रेषणीयता का अर्थ है–

पाठक के मन में समान अवस्था की उत्पत्ति। किसी विशेष परिस्थिति में भिन्नभिन्न मानव-मन जब एक जैसा अनुभव करते हैं अथवा समान भाव-दशा को उपलब्ध होते हैं, तब यह अनुभव अथवा समान भाव-दशा प्रेषणीयता कहलाती है अर्थात् किसी कलाकृति में प्रस्तुत सर्जक की अनुभूतियाँ जब अन्यान्य पाठक के मन में (कृति के अनुशीलन पर) मूर्त रूप ग्रहण करती हैं और पाठक उसी भाव-दशा को प्राप्त होता है, जिसको कि रचनाकार हुआ था, तब अनुभूति की यह क्रिया प्रेषणीयता कहलाती है। रिचर्ड्स के अनुसार यदि कृति के अनुशीलन पर पाठक उसी भाव-दशा को उपलब्ध नहीं होता, जिसको कि सर्जक हुआ था, तो उस कृति में भाव- दशा अथवा अनुभूतियाँ का सन्निवेश नहीं माना जा सकता। इस प्रकार कहा जा सकता है कि रिचर्ड्स सर्जक की अनुभूतियों को भावक द्वारा अनुभूत करना ही प्रेषणीयता मानते हैं। उनके  अनुसार कुछ विशेष परिस्थितियों में विभिन्न मस्तिष्क प्रायः एक जैसा अनुभव ग्रहण करते हैं। Under certain conditions, separate minds have closely similar experience.’

अनुभूति की सम्प्रेषणीयता-

प्रत्येक अनुभूति सम्प्रेषण चाहती है क्योंकि मानव एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक जीवन में वह सदा से अपने अनुभवों को दूसरों के प्रति सम्प्रेषित करने और दूसरों के अनुभवों को जानने के लिए प्रवृत्त रहा है। आई० ए० रिचर्ड्स के अनुसार प्रत्येक अनुभूति इस तथ्य के प्रति सजग होती है कि अन्ततः उसे सम्प्रेषणीय बनना है— ‘An experience has to be formed, no doubt before it is communicated, but it takes the form it does largely because it may have to be communicated.’

सम्प्रेषण की दशा-

सम्प्रेषण की दशा का विवेचन करते हुए रिचर्ड्स ने कहा है-

Communication we shall say, takes place when one mind so acts upon its. environment that another mind is influenced and in the other mind an experience occurs which is like the experience in the first mind and is caused in part by that experience.’ अर्थात्-‘सम्प्रेषण तव संभव होता है, जबकि एक, मस्तिष्क अपने पर्यावरण में इस तरह गतिशील होता है कि दूसरा मस्तिष्क उससे प्रभावित होता है और इस दूसरे मस्तिष्क में भी प्रथम मस्तिष्क की ही तरह की भावदशा उत्पन्न होती है। यह भावदशा कुछ सीमा तक प्रथम मस्तिष्क की भावदशा द्वारा ही प्रेरित और जागृत होती है।’

अपने विकास क्रम में मनुष्य ने अपनी सम्प्रेषण प्रक्रिया के लिए अनेक साधन उपलब्ध कर लिए, कला जिनमें से सर्वोत्कृष्ट माध्यम है। (Art is the supreme form of the communicative activity) सम्प्रेषण का यह कार्य कलाकृति में भावात्मक सम्बन्ध स्थापन, उचित बिम्बों का प्रयोग, उनकी विशिष्ट व्यवस्थित योजना तथा भाषा के विशिष्ट प्रयोग द्वारा सम्पन्न होता है।

सम्प्रेषण की सामग्री चाहे जो भी हो, यदि पाठक रचनाकार की भाव-दशा में पहुँच जाता है तो सम्प्रेषण की क्रिया सफल मानी जाती है। रिचर्ड्स की मान्यता है कि भावों का सम्प्रेषण अधिक सफलतापूर्वक सम्भव है। उनके लिए एक सामान्य भावभूमि सवाधिक उपयोगी है। अर्थात् ऐसे अनुभव जिनसे श्रोता या पाठक पूर्व परिचित हैं, ऐसी स्थितियाँ जो उसके सामने कभी न कभी आ चुकी हैं, ऐसे अनुभव जो उसके मनोलोक के विषय कभी बन चुके हों। ऐसी सामान्य भावभूमि साधारणीकरण या सम्प्रेषण के लिए उपयुक्त है, क्योंकि उचित सादृश्य के अभाव में सम्प्रेषण, असम्भव है- ‘Without such similarities communication is impossible.’

सम्प्रेषण स्वतः क्रियाशील –

रिचर्ड्स कलाकार को सम्प्रेषक मानते हैं। किसी भी कलाकार की कला का सम्प्रेषण पक्ष उसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। अच्छे कलाकार में सम्प्रेषण स्वतः क्रियाशील रहता है। जो कलाकार ज्ञात रूप से, अलग से, काव्य-सृजन के क्षण में सम्प्रेषण के प्रति सजग रहता है, वह कभी भी महान रचना को जन्म नहीं दे पाता। अलग से सजग रहने पर प्रायः रचना में कृत्रिमता आ जाती है, वह कभी भी उत्कृष्ट कोटि की नहीं सिद्ध हो सकती-

“The artists and poets who can be suspected of close separate attention to the communicative expected to fall into a subordinate rank.”

अतः रिचर्ड्स के अनुसार रचना को उचित रूप प्रदान करने में सम्प्रेषण स्वयं ही क्रियाशील रहता है, क्योंकि रचना को ‘उचित’ रूप प्रदान करने के प्रति कलाकार अवश्य ही सजग रहता है। यह एक ऐसी वृत्ति है, जो सभी कलाकारों में पायी जाती है। इस ‘उचित’ में सम्प्रेषण अपने आप  क्रियाशील हो उठता है, क्रियाशील रहता है। अतः अलग से सजग न रहने पर भी सम्प्रेषण ‘उचित’ के समावेश के कारण स्वयं ही मौजूद रहता है।

‘The very process of gitting the work ‘right’ has itself, so far as the artist is normal immense communicative consequences.”

सम्प्रेषण की कसौटी-

सम्प्रेषण की पहली और आखिरी कसौटी है-कवि और पाठक की अनुभूति की एकतानता। कवि और पाठक की अनुभूति या अनुभूतियों में एकतानता ला पाना ही सम्प्रेषण का मूलाधार है। (Close natural correspondence between the poet’s impulses and possible impulses of his readers) यही सम्प्रेषण का सर्वोत्तम रूप है अन्य कोई रूप उससे बढ़ कर नहीं हो सकता।

सम्प्रेषण के तत्त्व

रिचर्ड्स ने ‘काव्यगत अनुभवों की ग्राह्यता’ पुस्तक में सम्प्रेषण के तत्त्वों की ओर भी संकेत किया है-

  1. जागरूकता- कलाकार में जागरूक निरीक्षण शक्ति का होना भी अपेक्षित है। इसके आधार पर ही कवि भाव, संवेग-विशेष या स्थिति विशेष का सही एवं पूर्ण बोध करने में समर्थ हो सकेगा, जिनका चित्रण सहज में साधारणीकृत हो उठेगा।
  2. सामान्यता- उसमें साधारण का भी गुण अपेक्षित है। उसके अनुभव अन्य व्यक्तियों के अनुभव के मेल में प्रस्तुत होकर ही सम्प्रेषणीय हो सकते हैं। रिचर्ड्स कलाकार के साधारण होने पर विशेष बल देता है अन्यथा उसकी महती एवं मूल्यवान वस्तु का सम्प्रेषित होना कठिन हो जायेगा, क्योंकि औसत स्तर से ऊपर या कम होने से ग्राहक उसे ग्रहण नहीं कर पायेगा।
  3. एकरसता- रिचर्ड्स के अनुसार कलाकृति की प्रतिक्रिया एकरस होनी चाहिए। ‘What communication requires is responses which are uniform, sufficiently varied and capable of being set off by stimuli which are physically manageable.’
  4. प्रबुद्ध पाठक या समीक्षक-सम्प्रेषणीयता की परीक्षा तभी सम्भव है जब पाठक जागरूक और रचना को सम्यक रीति से पढ़ने वाले हों। (If he knows how to read poetry.)
  5. ग्राह्यता- सम्प्रेषणीयता की स्थिति के लिए कलाकार को व्यापक अनुभव होना अपेक्षित है। यह स्थिति उसमें तभी आ सकती है जब उसमें उत्कृष्ट कोटि की ग्राह्य शक्ति हो। ग्राह्यता का अर्थ है-ताजा अनुभवों को समेटना। रिचर्ड्स के अनुसार ग्राह्यता का अर्थ पुनरावृत्ति न होकर स्वतन्त्र अनुभवों को समेटना है।
  6. धारणीकरण की क्षमता- यह क्षमता ही कलाकारों को ऐसी शक्ति प्रदान करती है जिसमें वह अपनी अनुभूति को पाठक तक सहजता से पहुँचा देता है।
  7. कल्पनाशीलता- सामान्य अनुभव तथा विशिष्ट अनुभव तभी उत्कृष्ट कोटि की साधारणीकृत स्थिति में आते हैं जब उन्हें उचित सादृश्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। इसमें कल्पना की सहायक होती है।
  8. कला-घटकों का संजोयन-रिचर्ड्स मानता है कि भावों को कला के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है, अतः भाषा-शैली, छन्द, बिम्ब, सादृश्य, संगति, लय-तान आदि की उचित संगति या संयोजन सम्प्रेषणीयता में पर्याप्त सहायक होता है।

क्रोचे ने सम्प्रेषण को अनिवार्य न मानकर उसे. एक व्यावहारिक तथ्य माना है, जबकि  रिचर्ड्स उसे कला से बहिर्गत न मानकर कला का एक धर्म मानते हैं। उनके अनुसार, Aesthetic Experience की सफलता सम्प्रेषण पर ही. आश्रित है। कलाकार की सफलता की कसौटी भी यही है कि वह जो कहना चाहता था वह दूसरों तक सम्प्रेषित हो सका है या नहीं। सम्प्रेषणीयता से पृथक् रहकर कला का उद्देश्य सार्थक नहीं हो सकता।

सम्प्रेषण में बाधक तत्त्व

रिचर्ड्स ने उन तत्त्वों की ओर भी संकेत किया है जो इस प्रक्रिया में बाधक हैं-

  1. जब किसी मूल्यहीन अनुभूति का सम्प्रेषण होता है अथवा कोई मूल्यहीन अनुभूति सम्प्रेषण को प्राप्त होती है, तो ऐसी अभिव्यक्ति दोषपूर्ण ही मानी जा सकती है।
  2. जब किसी मूल्यवान अनुभूति का सम्प्रेषण दोषपूर्ण होता है तो यह स्थिति भी रिचर्ड्स के अनुसार दोषपूर्ण ही मानी जायगी।

ये दोनों ही स्थितियाँ काव्यानन्द में बाधक हो सकती हैं। ये चमत्कार उत्पन्न करने में तो सहायक हो सकती हैं पर रसात्मकता लाने में बाधक ही होंगी।

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Pankaja Singh

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