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हिन्दी आलोचना का उद्भव | हिन्दी आलोचना का आरम्भ और विकास | हिन्दी आलोचना का क्रमिक विकास

हिन्दी आलोचना का उद्भव | हिन्दी आलोचना का आरम्भ और विकास | हिन्दी आलोचना का क्रमिक विकास

हिन्दी आलोचना का उद्भव

आरम्भ में आलोचना का स्वरूप साधुवाद अथवा निन्दा के रूप में प्रकट की गयी।  उक्ति का रूप ही रहा होगा। इसी प्रशंसा-निन्दात्मक उक्ति-रूप आरंभिक आलोचना का विकास कालान्तर में उक्ति रूप समीक्षा के रूप में हुआ।

साहित्य विकास के साथ विविध समीक्षा प्रणालियों तथा समीक्षामानों का विकास हुआ। हमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य में सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक समीक्षा की एक दीर्घ परम्परा मिलती है। पर हिन्दी साहित्य में आलोचना का समुचित विकास आधुनिक काल में ही हुआ।

भारत का प्राचीन साहित्य समृद्ध है। जहाँ तक हिन्दी आलोचना का प्रश्न है इसके बीज भक्ति एवं रीतिकाल में उपलब्ध होते हैं, किन्तु इसका विकास भारतेन्दु काल से ही सम्भव हो सका है। समालोचना के विकास को निम्नांकित सोपानों के अंतर्गत रखकर देखा जा सकता है-

  1. भारतेन्दु-युग
  2. द्विवेदी युग
  3. आचार्य शुक्ल युग
  4. शुक्लोत्तर युग

1. भारतेन्दु-युग-

आधुनिक युग के आरम्भ अर्थात् भारतेन्दु के उदय के साथ हिन्दी साहित्य चेतना पर पाश्चात्य प्रभाव पड़ने लगा था। उन्नीसवीं शती ईस्वी में अंग्रेजी साहित्य जिन- जिन जीवन-मूल्यों को स्वीकार करके पर्याप्त प्रगति कर चुका था, धीरे-धीरे हिन्दी का साहित्यकार उनसे परिचित होने लगा। वैज्ञानिक अनुसंधान, औद्योगिक क्रान्ति, राष्ट्रीय एकता, जनतांत्रिक जीवन-व्यवस्था, विचार-स्वातन्त्र्य, जीवन के प्रति बौद्धिक एवं उपयोगितावादी दृष्टिकोण आदि नवीन मान्यताओं से हिन्दी का साहित्यकार परिचित, प्रेरित एवं प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप हमारे परम्परागत साहित्य संस्कार बदलने लगे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इस जागरण युग की साहित्य चेतना के अरुणोदय बनकर आये। उन्होंने जीवन और साहित्य के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाया। उन्हें परंपरागत संस्कृत समीक्षाशास्त्र में युगानुकूल परिवर्तन करने का संकोच न हुआ।

  1. द्विवेदी युग-

इस युग तक आते-आते हिन्दी साहित्यकारों का मानसिक क्षितिज विस्तृत हो गया था। हिन्दी आलोचना के इतिहास का एक नया पृष्ठ खुला। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लाला सीताराम बी०ए० द्वारा अनूदित नाटकों के भाव तथा भाषा सम्बन्धी दोषों का उद्घाटन करने वाली ‘हिन्दी कालीदास की आलोचना’ नामक पुस्तक लिखी। अनुवादों की आलोचना होने के कारण भाषा-सम्बन्धी त्रुटियों और मूलभाव के विपर्यय के अतिरिक्त अन्य बातों का समावेश इस ग्रन्थ में नहीं हुआ। इसके अन्तर्गत द्विवेदी जी ने कुछ संस्कृत कवियों की विशेषता परिचायक समीक्षाएँ भी प्रस्तुत की। इन ग्रन्थों में विक्रमांक देव चरित चर्चा और नैषध चरित चर्चा विशेष रूप में उल्लेखनीय है। द्विवेदी जी की इन सेवाओं की समीक्षा करते हुये आचार्य शुक्ल ने लिखा है- ‘यद्यपि द्विवेदी जी ने हिन्दी के बड़े कवियों को लेकर गंभीर साहित्य-समीक्षा का स्थायी साहित्य नहीं प्रस्तुत किया, पर नयी निकली पुस्तकों की आदि की खरी आलोचना करके हिन्दी साहित्य क्रा बड़ा भारी उपकार किया। यदि द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित, व्याकरण विरुद्ध और ऊट-पटाँग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती।’

सन् 1899 ई० में नागरी प्रचारिणी पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इसके प्रकाशन के साथ हिन्दी आलोचना के इतिहास में अभूतपूर्व परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ। सन् 1899 ई० में गंगा प्रसाद अग्निहोत्री का समालोचना शीर्षक निवन्ध पत्रिका में निकला। डॉ० वार्ष्णेय ने गुण-दोष विवेचन  प्रणाली से भिन्न समालोचना सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाली परम्परा का सूत्रपात इसी निबन्ध से माना है। इस वर्ष रत्नाकार जी का Essay on Criticism का पद्यानुवाद, समालोचना-दर्शन और अंबिकादत्त व्यास का पद्य काव्य मीमांसा ग्रन्थ की प्रकाशित होकर आया। सन् 1897 ई० में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा हिन्दी के प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों पुष्ट परम्परा का सूत्रपात हुआ।

  1. आचार्य शुक्ल युग अथवा हिन्दी समीक्षा और आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल-

इसी समय जबकि आलोचना अपनी शैशवावस्था में थी आचार्य पण्डित रामचन्द्र शुक्ल जैसे कुशल आलोचक का प्रादुर्भाव हुआ। आचार्य शुक्ल के आगमन से इस क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये। उन्होंने गुण-दोष के आधार पर निर्णय प्रस्तुत करने वाली प्रणाली के स्थान पर कवि विशेष के प्रादुर्भाव काल की समाजिक परिस्थितियों, उससे पूर्व युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों एवं उनकी आंतरिक मनोवृत्तियों के प्रकाश में काव्य-कृतियों की समीक्षा का श्री गणेश किया। यही पाश्चात्य प्रणाली संप्रति व्याख्यात्मक आलोचना के नाम से प्रसिद्ध है।

आचार्य शुक्ल निर्णयात्मक एवं व्याख्यात्मक दोनों आलोचना पद्धतियों को लेकर चलने वाली तथा कवि के आभ्यान्तर तथा बाह्य दोनों ही पक्षों का सुन्दर परिचय देने वाली आलोचना को ही उत्कृष्ट मानते थे। किसी कवि की समीक्षा के नाम पर उसकी रचना से सर्वथा असंबद्ध चित्रमय कल्पना और भावुकता सजावट देखकर उन्हें बड़ी ग्लानि होती थी। इस सम्बन्ध में उनका यह मत था कि किसी कवि की आलोचना कोई इसलिये पढ़ने बैठता है कि उस कवि से लक्ष्य को ठीक-ठीक हृदयंगम करने में सहायता मिले, इसलिये नहीं कि आलोचना की भावभंगिमा और सजीले पद-विन्यास द्वारा अपना मनोरंजन करें।

  1. शुक्लोत्तर हिन्दी समीक्षा एवं समीक्षक-

वर्तमानकाल में हिन्दी आलोचना का बहु- विधि विकास हुआ है। अनेक प्रकार के आलोचना प्रणालियों का प्रयोग हमारे आलोचकों ने किया है। निम्नांकित पंक्तियों में आलोचना की इन्हीं विविध पद्धतियों की विवेचना प्रस्तुत है—

सैद्धान्तिक समीक्षा-

सैद्धान्तिक समीक्षा काव्य-सिद्धान्तों के निर्माण से सम्बन्ध रखती है। हिन्दी में इसका प्रचलन यद्यपि रीतिकालीन के लक्षण ग्रन्थों से हो गया था और भिखारीदास, आचार्य केशवदास देव आदि कतिपय रीतिकालीन कवि आचार्यों ने इस क्षेत्र में कुछ स्तुत्य प्रयास भी किया, पर प्रतिभा और मौलिकता उस प्रयास में बहुत कम दिखाई दी। बीसवीं सदी से ही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि विद्वानों ने हिन्दी की सैद्धान्तिक समीक्षा को समृद्ध किया। शुक्ल जी की देन सर्वाधिक है। शुक्लोत्तर युग में सैद्धान्तिक समीक्षा का और विकास हुआ। हमारे अनेक शोधकर्ता, विद्वानों और आचार्यों ने इस क्षेत्र में संपूर्ण कार्य किया है। बाबू श्याम सुन्दर दास का साहित्यालोचन, शुक्ल जी के सैद्धान्तिक निबन्ध तथा रस मीसांसा, डॉ० नगेन्द्र का रससिद्धान्त, रीति काव्य की भूमिका, आदि विद्वानों के सैद्धान्तिक निबन्ध और काव्यशास्त्र से सम्बन्धित अनेक शोधग्रन्थ हिन्दी की सैद्धान्तिक समीक्षा की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं, जिनमें सिद्धान्तों के मौलिक निर्माण, परम्परागत प्रान्तियों के निराकरण आदि के उत्कृष्ट प्रयास हुये हैं।

व्यावहारिक समीक्षा के विविध रूप-

(1) सूक्ति-रूप समीक्षा- यह लोक समीक्षा का रूप है। सहृदय सामाजिक जब किसी कवि अथवा रचना के विषय में अपनी दो टूक समीक्षा किसी एक सूक्ति काव्य अथवा छन्द में प्रकट  करता है। तो आलोचना का यह रूप निर्मित होता है। जैसे संस्कृत की एक प्रसिद्ध उक्ति है- ‘उपमा कालिदासस्य ।

(2) तुलनात्मक समीक्षा-मिश्रवन्धु, पद्म सिंह शर्मा, कृष्णबिहारी मिश्र एवं अनेक विद्वान एवं शोधकर्ता ।

(3) ऐतिहासिक समीक्षा- इसके अंतर्गत शिव सिंह सेंगर, मिश्रबंधु, आचार्य शुक्ल, डॉ० रामकुमार वर्मा, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांस्कृत्यायन, डॉ० लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ० राजपति दीक्षित आदि अनेक समीक्षक आते हैं।

(4) मनोवैज्ञानिक समीक्षा- डॉ० नगेन्द्र, डॉ० माताप्रसाद गुप्त, डॉ० देवराज उपाध्याय, इलाचन्द्र जोशी आदि मुख्य हैं।

(5) समाजशास्त्री अथवा मार्क्सवादी आलोचना- समाजवादी समीक्षकों में डॉ० रामविलास शर्मा, डॉ. प्रकाश चन्द्र गुप्त, शिवदान सिंह चौहान आदि के नाम लिये जा सकते हैं।

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Pankaja Singh

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