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डॉ० नगेन्द्र | डॉ० नगेन्द्र की समीक्षात्मक दृष्टि | डॉ० नगेन्द्र की समीक्षा सम्बन्धी मान्यता

डॉ० नगेन्द्र | डॉ० नगेन्द्र की समीक्षात्मक दृष्टि | डॉ० नगेन्द्र की समीक्षा सम्बन्धी मान्यता

डॉ० नगेन्द्र

डॉ० नगेन्द्र के साहित्यिक व्यक्तित्व का पाण्डित्य हमें अनेक रूपों में देखने को मिलता है— कवि, निबन्धकार एवं आलोचक के रूप में उनके व्यक्तित्व की प्रतिभा सम्पन्नता उनकी रचनाओं के माध्यम से स्वयं स्पष्ट होती है।

आरम्भ में वे एक कवि थे, अतः कवि-सुलभ भावुकता एवं रसज्ञता के कारण उनकी आलोचनाएँ सरस बन गई हैं। डॉ. नगेन्द्र के साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश 1937 ई. में ‘वनमाला’ नामक रचना के प्रकाशित होने से हुआ, तब से लेकर वर्तमान तक उनका रचना कार्य अनवरत रूप में चल रहा है। ‘सुमित्रानन्दन पन्त‘, ‘साकेत एक अध्ययन’, आधुनिक हिन्दी नाटक’, ‘विचार और विश्लेषण’ तथा ‘नई समीक्षा : नये सन्दर्भ’ उनकी प्रमुख समीक्षात्मक कृतियाँ हैं। डॉ. नगेन्द्र की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता है कि इन्होंने अत्यधिक लिखा है, महत्त्वपूर्ण लिखा है तथा अच्छा लिखा है। डॉ. कुमार विमल ने इसका कारण उनके साहित्यिक व्यक्तित्व तथा पाण्डित्य का मेल बताया है- ‘शास्त्र विष्णात् आचार्यत्व तथा कवित्व की सहस्थिति ने डॉ. नगेन्द्र की आलोचना शैली को एक अप्रतिम दीप्ति से मण्डित कर दिया है।’

छायावाद-

डॉ. नगेन्द्र को सर्वप्रथम छायावादी आलोचक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त हुई। छायावादी काव्य का विस्मय-बोध, प्रेम-भावना तथा सौन्दर्य-चेतना उन्हें आकर्षक लगी थी। छायावादी कविता उन्हें जिस वायवी स्वप्नलोक में ले गई थी, उसके परिणामस्वरूप ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ पुस्तक की रचना की गई। इस पुस्तक में शास्त्रीयता न होकर मात्र ताजगी एवं सादगी है।  इसके पश्चात् ‘साकेत एक अध्ययन’ में उनकी शास्त्रीय रुचि स्पष्ट हुई। आमागी कृतियों में उनका पाण्डित्य पूरित स्वरूप तथा उनकी रसवादी दृष्टि पुष्ट एवं स्पष्ट रूप में उजागर हो गई।

डॉ. नगेन्द्र की समीक्षा पद्धति की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता – भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र का समन्वय है। उन्होंने इन दोनों को एक-दूसरे के प्रतिकूल न मानकर पूरक माना। भारतीय व्यवस्था में काव्यानुभूति का सूक्ष्म विवेचन है तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र में कवि की मनःस्थिति तथा काव्य के सृजन में प्रेरणा प्रदान करने वाले सामाजिक प्रभावों का विश्लेषण है। इसी कारण उन्होंने ‘विचार और विश्लेषण’ में लिखा है—’इस प्रकार ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर सहायक अथवा पूरक हैं। इनके तुलनात्मक अध्ययन की सबसे बड़ी उपयोगिता यह हो सकती है कि इनका समन्वय करके एक पूर्णतर काव्यशास्त्र का निर्माण किया जाये जिसमें सृष्टा एवं भोक्ता के पक्षों का व्यापक विवेचन हो ।’

डॉ. नगेन्द्र की समीक्षा शैली नन्ददुलारे बाजपेयी की तुलना में शुक्ल जी के अत्यधिक समीप है। शुक्ल जी की आलोचना पद्धति में जो त्रुटियाँ थीं, उनको डॉ. नगेन्द्र ने कुशलतापूर्वक समाप्त किया। शुक्ल ने अभिव्यंजनावाद को ‘चक्रोक्तिवाद का विलायती उत्थान’ मानकर स्वयं को उससे दूर रखा। छायावाद एवं रहस्यवाद के प्रति भी वे स्वयं को अधिक सहिष्णु नहीं बना सके। उन्होंने साहित्य का लोकधर्म से गहन सम्बन्ध मानते हुए व्यष्टि तक की अवहेलना की है। डॉ. नगेन्द्र ने स्वयं को इन दोषों से दूर रखकर छायावाद को साहित्यिक आधार पर प्रतिष्ठित करके उसके सम्बन्ध में शुक्ल जी द्वारा स्थापित भ्रामक धारणा को समाप्त किया । क्रोचे के अभिव्यंजनावाद के सम्बन्ध में भी शुक्ल जी का दृष्टिकोण अत्यधिक कठोर था। भारतीयता के प्रति अपार आग्रह के कारण वे पश्चिम को सरलता से आत्मसात् नहीं कर सके। डॉ. नगेन्द्र में इस प्रकार के किसी भी आग्रह का अभाव है।

  1. कामायनी का महाकाव्यत्व-

डॉ. नगेन्द्र के महाकाव्यत्व की विवेचना भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही दृष्टिकोणों के समन्वय के आधार पर प्रस्तुत करते हुए उसे महाकाव्य के समस्त लक्षणों से परिपूर्ण स्वीकार किया है-

‘कामायनी का महाकाव्य संदिग्ध नहीं है। परम्परा का पूर्णतया पालन करना प्रसाद के स्वभाव के प्रतिकूल था, अतः कामायनी में भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र दोनों में से किसी एक के भी लक्षणों के पूर्णतया पालन की खोज करना निरर्थक होगा। फिर भी महाकाव्य के प्रायः सभी महत्त्व कामायनी में स्पष्ट रूप से विद्यमान हैं—मात्र एक ही त्रुटि है; वह है कार्य-व्यापार का अभाव जिसके परिणामस्वरूप कथा में वांछित भौतिक विस्तार की कमी रही, क्योंकि कामायनी का वस्तु-विकास बहिर्मुख न होकर अन्तर्मुख है। उसमें मन के जीवन विकास के माध्यम से मानव- चेतना के विकास की कथा को प्रस्तुत किया गया है। अतः साधारणीकरण के लिए यहाँ कवि द्वारा रूपक की भावमय पद्धति का उपयोग किया गया है। परिणामस्वरूप मनु भावन-चेतना के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं।’

  1. साधारणीकरण-

साधारणीकरण पर अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। यहाँ मात्र मौलिक चिन्तन के कुछ प्रमुख बिन्दुओं को ही वर्णित किया जा रहा है-

(क) साधारणीकरण किसका ?-डॉ. नगेन्द्र कवि की अनुभूति का ही साधारणीकरण मानते हैं—’साधारणीकरण कबि की स्वयं की अनुभूति का होता है, इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई व्यक्ति अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति इस प्रकार कर सकता है कि वह समस्त हृदयों में  समान अनुभूति जागृत कर सके तो पारिभाषिक शब्दावली में कहा जा सकता है कि उसमें साधारणीकरण की सामर्थ्यता विद्यमान है।’

उन्होंने अनेक तर्कों के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि-‘काव्य-प्रसंग अथवा रस के सभी अंगों का साधारणीकरण स्वीकारने की अपेक्षा कवि भावना के साधारणीकरण को स्वीकारना मनोविज्ञान के अधिक सापेक्ष है।’

(ख) साधारणीकरण की सम्भावना- साधारणीकरण की सम्भावना के सन्दर्भ में भारतीय एवं पाश्चात्य अनेक विद्वानों के तर्कों की समीक्षा करते हुए वे कहते हैं-

‘भाषा का भावमय प्रयोग साधारणीकरण का आधार है। भाषा का भावमय प्रयोग प्रस्तुतकर्ता की स्वयं की भाव-शक्ति पर आधारित रहता है, तथा मानव सुलभ सहानुभूति प्रयोक्ता के भावों की संवेदन शक्ति का मूल है।’

भाव-शक्ति का सभी में किसी न किसी मात्रा में समावेश रहता है, इसी कारण सभी में साधारणीकरण को भी थोड़ी-बहुत सामर्थ्यता होती है, अन्यथा जीवन की स्थिति असम्भव है। लेकिन साधारणीकरण की विशेष शक्ति का समावेश उसी व्यक्ति में निहित रहता है जिसकी भाव- शक्ति में विशेष समृद्धता हो, जिसकी अनुभूतियाँ विशेष रूप से सजग हों। इसी प्रकार का व्यक्ति का भावमय प्रयोग कर सकता है, अर्थात् अपने समृद्ध भावों के द्वारा वह उनके प्रतीकों को सरलतापूर्वक ऐसी शक्ति प्रदान कर सकता है, जो दूसरों के हृदयों में भी समान भाव जागृत कर सकें। ऐसा ही व्यक्ति कवि हैं।

  1. रस सम्बन्धी विस्तृत व मनोवैज्ञानिक विवेचन-

रस के सम्बन्ध में डॉ. नगेन्द्र ने अत्यधिक विस्तृत एवं मनोवैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया। इसी कारण कुछ लोगों ने उन्हें भ्रमबश फ्रायडवादी आलोचक कहा है। इसमें संशय नहीं कि फ्रायड के मनोविज्ञान का उन पर असर है। किन्तु वह स्वयं साध्य न होकर रसबाद के साधन के रूप में सामने आया है। ‘साकेत’ में गुप्त जी ने जिस एकान्त, निष्ठा और मनोयोग से उसकी विरह-व्यथा का चित्रण किया है, ‘साकेत एक अध्ययन’ में उसी तन्मयता एवं मनोयोग से डॉ. नगेन्द्र ने उस व्यथा के सूत्र पकड़े हैं। राम, सीता, लक्ष्मण के वन जाते समय उर्मिला एक शब्द भी नहीं बोलती। उसका मौन उसकी कातरता तथा दयनीयता को प्रकट करता है। डॉ. नगेन्द्र ने अपनी मनोवैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि द्वारा इस स्थिति की संवेदनीयता की सही पकड़ की है—’यदि वह स्वयं ही उक्त भावनाओं के शब्दों में व्यक्त करती, तो वे ईर्ष्या का रूप धारण कर लेती। इसी कारण कवि ने राम-सीता के द्वारा उनकी और संकेत कराया है।’

  1. रस सिद्धान्त-

डॉ. नगेन्द्र की रसवादी दृष्टि का विशेष पल्लवन उनके ‘रस सिद्धान्त’ नामक ग्रन्थ में हुआ है। वे स्वयं स्वीकारते हैं कि रस-सिद्धान्त उनके लिए कोई ‘शास्त्रविनोद’ नहीं है, वल्कि ‘साधु काव्य निषेवण से निर्मित अन्तः संस्कारों की सहज संवृत्ति है।’ आनन्दवर्धन, भट्टनायक, अभिनवगुप्त आचार्यों ने जिस रस सिद्धान्त को विकसित किया था, उसका पुनर्विकास डॉ. नगेन्द्र ने अपने सूक्ष्म चिन्तन तथा गहन अध्ययन के द्वारा किया है। इस सिद्धान्त की शक्तिमयता पर उनका इतना अखण्ड विश्वास है कि वे इसके आधार पर प्रत्येक देश तथा प्रत्येक काल के साहित्य का मूल्यांकन किए जा सकने की बात कहते हैं। डॉ. नगेन्द्र की रसवादी धारणा की मुख्य रूप से दो विशेषताएँ हैं-

(1) रस सिद्धान्त की व्याख्या में मनोविज्ञान को अपेक्षित महत्त्व प्रदान करना।

(2) संश्लिष्ट काव्यशास्त्र का उन्नयन, जिसमें एक ओर हिन्दी तथा अहिन्दी भारतीय भाषाओं के काव्यशास्त्र के तुलनात्मक अध्ययन को समाविष्ट किया गया है तो दूसरी ओर पाश्चात्य काव्यशास्त्र का भी पूर्ण उपयोग किया गया है। इसकी अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए वे ‘रस सिद्धान्त’ में कहते हैं- ‘वर्तमान साहित्य जगत् में पाश्चात्य आलोचना के मान-प्रतिमान इतने अधिक रम गए हैं कि आज का साहित्य-मनीषी उन्हीं के माध्यम से चिन्तन एवं मूल्यांकन करता है। अतः प्राचीन काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों की यथावत् अवतारणा की अपेक्षा उनका कई आलोचना पद्धति से विचार विवेचन करना आवश्यक हो गया है।’

  1. अभिव्यक्ति की निश्छलता-

डॉ. नगेन्द्र ने अभिव्यक्ति की निश्छलता को साहित्य का सर्वप्रथम एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लक्षण बताया है। कविता की महानता के लिए वे कवि के व्यक्तित्व का महान होना अनिवार्य मानते हैं। अभिव्यक्ति की निश्छलता उनकी आलोचना पद्धति का एक विशिष्ट गुण भी हैं। उनमें अपनी बात कहने में कहीं दराव नहीं है। गहन तीक्ष्ण एवं स्पष्ट विश्लेषण उनकी आलोचना पद्धति के विशिष्ट गुण हैं। उनका समीक्षा चिन्तन जितना सूक्ष्म एवं कोमल है उनकी भाषा भी उतनी ही स्वच्छ एवं परिमार्जित है। आरम्भ में वे कवि थे, इसलिए उनकी समीक्षा में भी यत्र-तत्र अभिव्यंजना का वैभव प्राप्त हो जाता है।

भाषा की चित्रोपम एवं आलंकारिक शैली के दर्शन निम्नांकित उदाहरण में स्पष्ट होते हैं-

(क) ‘गहरे काले अन्धेरे में उन्मादिनी रानी उल्का के समान चमक रही है।’

(ख) ‘शान्त, गम्भीर सागर जो अपनी आकुल तरंगों को दबाकर धूप में मुस्करा उठा है या फिर गहन आकाश जो झंझा और विद्युत को हृदय में समाकर चाँदनी की हँसी हँस रहा है, ऐसा ही कुछ प्रसाद का व्यक्तित्व था।’

(ग) ‘इस प्रकार के चलचित्र क्षणभर फुलझड़ी की भाँति चमककर पीछे एक रेखा-सी छोड़ जाते हैं।’

उपसंहार-

डॉ. नगेन्द्र की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक समीक्षा का पर्यावलोकन यह प्रमाणित करता है कि सैद्धान्तिक समालोचना के क्षेत्र में उनका कार्य अत्यधिक विस्तृत एवं प्रौढ़ है। लेकिन व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में शुक्ल जी ने साहित्यकार तथा उनकी कृतियों का जैसा सूक्ष्म मूल्यांकन किया है, वैसा आज तक अन्य कोई आलोचक नहीं कर सका है। व्यावहारिक समीक्षा का दूसरा रूप काव्य-धाराओं का अध्ययन है तथा इस दिशा में डॉ. नगेन्द्र अग्रणी बन गये हैं। निष्कर्षतः डॉ. कुमार विमल के शब्दों में यह कहा जा सकता है कि- ‘ज्ञान-विस्तार एवं युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप हिन्दी साहित्य में जिस नवीन संश्लिष्ट काव्यशास्त्र की उत्पत्ति हुई है, उसे विकास देने वाले मनीषियों की श्रृंखला में आचार्य शुक्ल के बाद डॉ. नगेन्द्र ही द्वितीय गौरव- शिखर हैं।’

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Pankaja Singh

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