हिन्दी

वक्रोक्ति | वक्रोक्ति के भेद | वक्रोक्ति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना

वक्रोक्ति | वक्रोक्ति के भेद | वक्रोक्ति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना

वक्रोक्ति

वक्रोक्ति शब्द का प्रयोग साहित्य और दैनिक व्यवहार में प्राचीन काल से होता आया है, पर इसे अलंकार के रूप में सबसे पहले अलंकारवादी आचार्य भामह ने स्वीकार किया है। दैनिक व्यवहार में इसका संधि-विच्छेद-वक्र + उक्ति था तथा इसका अर्थ उक्ति-वैचित्र्य अथवा कथन- वक्रता माना जाता था। वक्रोक्ति को अलंकार के रूप में सबसे पहले आचार्य भामह ने स्वीकार किया तथा इसे अतिशयोक्ति का पर्याय बताया। तात्पर्य यह है कि भामह ने यह स्वीकार किया कि वक्रोक्ति का ही दूसरा नाम अतिशयोक्ति है। आचार्य भामह ने स्पष्ट शब्दों में वक्रोक्ति को ही  काव्य की आत्मा न कहकर इसे काव्य का जीवनाधायक तत्त्व स्वीकार किया है। वैसे जीवनाधायक का अर्थ भी लगभग आत्मा ही स्वीकार करना है, क्योंकि जीवन का आधान शरीर में आत्मा ही करती है। आत्मा से हीन व्यक्ति के शरीर में जीवन नहीं रहता। भामह अलंकार को काव्य की आत्मा मानते थे। भामह अलंकार सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापक अर्थात् स्थापना करने वाले थे। इन्हें काव्यशास्त्र को नाट्यशास्त्र से पृथक् करने का श्रेय प्राप्त है। इन्होंने ‘काव्यालंकार’ नामक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना करके काव्यशास्त्र का प्रथम ग्रन्थकार होने का गौरव प्राप्त किया। इन्होंने अपने ‘काव्यालंकार’ में अलंकाररहित वनिता के मुख को सुन्दर नहीं माना है-

नकान्तमपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम् ।

(नारी का सुन्दर मुख आभूषणों से रहित होने पर सुशोभित नहीं होता।)

आचार्य भामह ने वक्रोक्ति को सभी अलंकारों का मूल बताया-

सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते।

यत्नाऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना॥

(यह सब वही वक्रोक्ति है। इसके द्वारा अर्थ चमक उठता है। कवि को इस वक्रोक्ति के विषय में यत्न करना चाहिए। इसके बिना कोई अलंकार नहीं होता।)

काव्य-सिद्धान्त के रूप में वक्रोक्ति की स्थापना का श्रेय आचार्य कुन्तक को है। इतना ही नहीं, वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मानने वाले एकमात्र आचार्य कुन्तक ही हैं। उनके परवर्ती अन्य अनेक आचार्यों ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मानने का खण्डन भी किया है। इनमें आचार्य मम्मट और विश्वनाथ कविराज प्रमुख हैं।

वक्रोक्ति के भेद-

आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति के निम्नलिखित छः भेद किये हैं-

(1) वर्ण-विन्यास वक्रता। (2) पदपूर्वार्द्ध वक्रता ।

(3) पदोत्तरार्द्ध वक्रता (4) वाक्य वक्रता।

(5) प्रकरण वक्रता (6) प्रबन्ध वक्रता

वक्रोक्ति के इन भेदों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है—

(1) वर्ण-विन्यास वक्रता-

आचार्य कुन्तक का वर्ण से अभिप्राय व्यंजन से है। इस भेद के अन्तर्गत अनुप्रास, यमक तथा वृत्तियों-परुषा, उपनागरिका एवं ग्राम्या का अन्तर्भाव किया गया है। आचार्य कुन्तक के अनुसार जब एक-दो अथवा बहुत-से वर्ण किसी रचना में थोड़े बहुत अन्तर से बार-बार उपनिबद्ध किये जाते हैं अर्थात् प्रयुक्त होते हैं, तभी वर्ण-विन्यास वक्रता होती है। आचार्य कुन्तक ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जब वर्गों का विन्यास उनके सामान्य प्रयोग की अपेक्षा भिन्न ढंग से अथवा विचित्रता उत्पन्न करने वाले रूप में किया जाये, तभी इस प्रकार की वक्रोक्ति सहृदय के हृदय को द्रवित करने वाली हो सकती है। व्यंजन का सामान्य प्रयोग वर्णविन्यास वक्रता नहीं हो सकता।

आचार्य कुन्तक ने वर्णविन्यास वक्रता के तीन भेद किये हैं-

(क) वर्णान्त अर्थात् ङ, ञ, ण, न, म का स्पर्श व्यंजनों अथवा वर्णों का अर्थात् क से लेकर म तक के वर्षों से योग ।

(ख) तलनादयः-त, ल, न आदि व्यंजनों का द्वित्व के रूप में बार-बार प्रयोग किया जाना ।

(ग) र व्यंजन का बार-बार प्रयोग।

इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-

(क) शङ्का न हो किसी की मेरी विजय सदा हो।

दण्डित करूं सभी को, सब पर मेरी दया हो।

‘शङ्का’ में ड् का क से योग है तथा दण्डित में ण् का ङ से योग है।

(ख) तल्लीन ध्यान में हूँ, सत्ता दिखी तुम्हारी।

अर्द्धनिशा है, सभी सुप्त हैं, सन्नाटा फैला सब ओर

तल्लीन में ल वर्ण का, सत्ता में त वर्ण का और सन्नाटा में न वर्ण का द्वित्व है।

(ग) कर चरण उरोजों की देखी प्रभा न ऐसी।

प्रेयसि तुम्हारे तन में पर्याप्त लखी जैसी।

यहाँ र व्यंजन का बार-बार प्रयोग है।

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के अनुसार वर्णविन्यास वक्रता के ये भेद परुषा आदि वृत्तियों तथा माधुर्य आदि गुणों का बक्रोक्ति में समन्वय करने की दृष्टि से किये गये हैं। इसमें सभी प्रकार के अनुप्रासों, वृत्तियों, यमकों आदि का अन्तर्भाव वक्रोक्ति में किया गया है। आचार्य कुन्तक ने वर्ण- विन्यास वक्रता के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध भी प्रस्तुत किये गये हैं। जैसे वर्ण विन्यास सदा प्रस्तुत विषय के अनुसार होना चाहिए। अत्यधिक चेष्टा करना अथवा असुन्दर रूप में वर्गों का प्रयोग करना अनुचित है। वर्ण विन्यास में नवीन सौन्दर्य होना चाहिए। इसमें प्रसाद गुण और श्रुति- सुखदता का होना भी आवश्यक है। इस प्रकार आचार्य कुन्तक ने वर्णविन्यास वक्रता को उसी सीमा तक स्वीकार किया है, जहाँ तक काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि हो सके।

(2) पदपूर्वार्द्ध वक्रता-

शब्द अथवा पद के आरम्भ में उत्पन्न वक्रता पदपूर्वार्द्ध वक्रता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मूल धातु से उत्पन्न वक्रता को ही पदपूर्वार्द्ध वक्रता कहते हैं। आचार्य कुन्तक ने इसके आठ भेद किये हैं-

(क) रूढिवैचित्र्य वक्रता- कवि अपनी प्रतिभा के द्वारा किसी शब्द या पद के रूढ अथवा वाच्य अर्थ को इस रूप में बदल देता है कि उक्ति सुन्दर बन जाती है, वहाँ रूढिवैचित्र्य वक्रता   है, जैसे-

सीताहरण न तात जनि, कहेउ पिता सन जाय।

जो मैं राम तो कुल सहित, कहहि दशानन आय।

यहाँ पर राम शब्द रूढिवैचित्र्य वक्रता का उदाहरण है।

(ख) पर्याय वक्रता- जहाँ किसी शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्दों में किसी का प्रयोग होने के कारण उक्ति में वक्रता का समावेश हो, वहाँ पर्याय वक्रता होती है, जैसे-

अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी।

आँचल में है दूध और आँखों में पानी।

यहाँ अवला’ के स्थान पर नारी, प्रमदा आदि स्त्री के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग वह सौन्दर्य उत्पन्न नहीं कर सकता था जो अपेक्षित था।

(ग) उपचार वक्रता- इसके विषय में डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने लिखा है-

‘उपचार शब्द का अर्थ है—अत्यन्त विभिन्न पदार्थों में अत्यन्त सादृश्य के कारण उत्पन्न होने बाली समानता अथवा एकता। जैसे मुखरूपी चन्द्र । जहाँ भेद होते हुए भी अभेद का अनुभव हो, ऐसी वक्रता को ही उपचार कहते हैं। अमूर्त पर मूर्त का आरोप, अचेतन पर चेतन का आरोप तथा रूपकादि अलंकार इसी के अन्तर्गत आते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत है –

झींगुर के स्वर का प्रखर तीर,

केवल प्रशान्ति को रहा चीर।

यहाँ तीर’ और ‘चीर’ उपचार वक्रता के उदाहरण हैं, क्योंकि झींगुर का स्वर मूलतः मित्र होता हुआ भी यहाँ चीरने वाले तीर से अभिन्न प्रतीत हो रहा है।

(घ) विशेषण वक्रता- विशेषण वक्रता वहाँ होती है, जहाँ विशेषणों की विचित्रता काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने में समर्थ हो सके, जैसे-

कौन तुम परिहतवसना म्लानमना भू पतिता-सी।

यहाँ विधवा के परिहतवसना और म्लानमना विशेषण चमत्कारजनक हैं।

(ङ) संवृत्ति वक्रता- जहां सर्वनाम आदि के द्वारा वस्तु अथवा कथ्य का संवरण अथवा गोपन किया जाये, वहाँ उत्पन्न होने वाला चमत्कार संवृत्ति वक्रता कहलाती है, जैसे-

वैसे तो हैं दुनिया में, सुखनवर बहुत अच्छे।

कहते हैं कि गालिब का है, अन्दाजेबयां और।

यहाँ पर ‘और’ शब्द का सर्वनाम के रूप में तथा ‘अन्य’ के अर्थ में प्रयोग करके प्रसिद्ध शायर गालिब ने अपने वर्णन वैचित्र्य का संवरण किया है।

(च) वृत्ति वक्रता- आचार्य कुन्तक का वृत्ति से अभिप्राय व्याकरण के समास, तद्धित नियमों से है। इनके कारण उत्पन्न होने वाला चमत्कार, वृत्ति वक्रता होता है। जैसे-

चिरजीवो जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।

को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर॥

यहाँ पर ‘वृषभानुजा’ में दो प्रकार के समास होने के कारण चमत्कार उत्पन्न हुआ। वृषभानु की जा अर्थात् पुत्री राधा और वृषभ अर्थात् बैल की अनुजा अर्थात् बहन — गाय ।

(छ) लिंगवैचित्र्य वक्रता – लिंग परिवर्तन के कारण उत्पन्न होने वाले चमत्कार में लिंगवैचित्र्य वक्रता होती है। जैसे प्रसादजी की ‘कामायनी’ में मनु का श्रद्धा के प्रति यह कथन-

कौन हो तुम वसन्त के दूत! विरस पतझड़ में अति सुकुमार।

घन तिमिर में चपला की रेख, तपन में शीतल मन्द बयार।

श्रद्धा के नारी होने के कारण उसके लिए स्त्रीलिंग वाले शब्दों का प्रयोग होना चाहिए, पर प्रसादजी ने श्रद्धा की मादकता रेखांकित करते हुए उसके लिए ‘वसन्त के दूत’ पुल्लिग सम्बोधन का प्रयोग किया है।

(ज) क्रियावैचित्र्य वक्रता- जहाँ किया की विचित्रता चमत्कार अथवा सौन्दर्य उत्पन्न करने में समर्थ हो, वहाँ क्रियावैचित्र्य वक्रता होती है, जैसे-

पारावार पूरन अपार पर ब्रह्मरासि,

जसुदा के कौरे एक बार ही कुरै परी।

यहाँ ब्रजभाषा की कुरै परी’ क्रिया के द्वारा चमत्कार उत्पन्न हुआ है।

(3) पदपरार्द्ध वक्रता-

इस वक्रता का सम्बन्ध पद या शब्द के बाद वाले भाग से है। शब्द के बाद वाले भाग अर्थात् उत्तरार्द्ध का रूप प्रत्यय भी हो सकता है।

पिउसन कहेउ सँदेसड़ा, हे भौंरा हे काग।

उहि धनि बिरहै जरि मुई, तेहि का धुआँ हम लाग॥

यहाँ सँदेसड़ा’ शब्द का बाद वाला अंश, ‘ड्रा’ चमत्कार उत्पन्न करता है। सन्देश का तद्भव  संदेश होता है। नागमती पक्षी के प्रति यह भाव व्यक्त करना चाहती है कि मेरा सन्देश साधारण नहीं है। इसी के लिए जायसी ने उसके सन्देश को ‘संदेश’ न कहकर ‘संदेसङ्गा’ कहा है।

(4) वाक्य वक्रता-

जहाँ वक्रता का आधार पूरा वाक्य होता है, वहाँ यह बक्रता मानी गयी है। ‘व्यक्ति विवेक’ के रचयिता आचार्य कुन्तक ने इसका जो लक्षण किया है, उसका अनुवाद इस प्रकार है-

‘वस्तु का उत्कर्षयुक्त, स्वभाव से सुन्दर रूप में केवल सुन्दर शब्दों द्वारा वर्णन अर्थ या वस्तु की वक्रता बनती है।”

(5) प्रकरण वक्रता-

इसका तात्पर्य प्रसंग सम्बन्धी वक्रता से है। आचार्य कुन्तक ने इसके भी अनेक भेद किये हैं, पर उनमें से निम्नलिखित भेद प्रमुख हैं–

(क) भावपूर्ण स्थिति की उद्भावना- जैसे-

बूझत स्याम कवन ते गोरी।

कहाँ रहति, काकी है बेटी, देखी नाहिं कबहुँ ब्रज खोरी।

काहे को हम ब्रज तन आवति खेलति रहति आपनी पोरी।

सुनति रहति सवननि नन्दढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी।

तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलहु संग मिलि जोरी।

सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुलइ राधिका भोरी।।

यहाँ कृष्ण और राधा के संबाद से सूर ने भावपूर्ण स्थिति का निर्माण किया है।

(ख) पूर्व प्रचलित प्रसंग में संशोधन- जैसे रामचरितमानस का ‘परशुराम-लक्ष्मण संवाद’। वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह घटना उस समय की है, जब राम की बारात जनकपुरी से चलकर अयोध्या के समीप पहुंचने वाली थी। तुलसीदास ने इसे सीता के स्वयंवर स्थल पर प्रस्तुत करके नवीन घटना की कल्पना की, जिससे राम का प्रताप देश-देश से आये राजाओं के सम्मुख स्पष्ट हो सके।

(ग) प्रसंग की मौलिकता- जैसे महाकवि कालिदास ने दुष्यन्त के चरित्र को धीरोदात्त बनाने के लिए दुर्वासा के शाप, दुष्यन्त द्वारा शकुन्तला को अपने नाम से अंकित मुद्रिका देना एवं उसका अवतार तीर्थ में गिर जाना-इन मौलिक प्रसंगों की कल्पना की है।

(घ) रोचक प्रसंगों का विस्तृत वर्णन- जैसे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने महाकाव्य ‘साकेत’ के प्रथम सर्ग के आरम्भ में उर्मिला और लक्ष्मण के संवाद के प्रसंग का रोचक वर्णन किया है।

(6) प्रबन्ध वक्रता-

प्रबंध शब्द का तात्पर्य विशाल कथानक पर आधारित साहित्यिक रचना से है। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने इसके विषय में स्पष्ट किया है-

‘इसके अन्तर्गत प्रबधकाव्य, महाकाव्य, नाटक (उपन्यास) आदि का सौन्दर्य आता है। इसके भी छः भेद बताये गये हैं-

(1) मूल रस-परिवर्तन- पौराणिक या ऐतिहासिक आख्यान को इस प्रकार प्रस्तुत करना जिससे कि उसका मूल भाव और रस परिवर्तित हो जाये।

(2) नायक के चरित्र में संशोधन।

(3) कथा के मध्य में किसी ऐसे कार्य की अवतारणा करना जो प्रधान कार्य की सिद्धि में योग दे।

(4) नायक द्वारा मुख्य फल के साथ-साथ अनेक फलों का प्राप्ति।

(5) प्रबन्ध का नामकरण प्रधान कथा या घटना का सूचक

(6) एक ही मूल कथा पर आश्रित प्रबन्धों का वैचित्र्य वैविध्य ।’

इनके उदाहरण विस्तार भाव से डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने नहीं दिये हैं। इसके अनेक भेदों के उदाहरण ‘रामचरितमानस’ और ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक में प्राप्त हो सकते हैं। कालिदास ने ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के नायक दुष्यन्त के लम्पट चरित्र को धीरोदात्त बनाया है। अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में इन्द्र-सारथि मातलि के आने और दुष्यन्त को स्वर्ग में ले जाने की घटना की कल्पना मध्य में की गयी है। इससे स्वर्ग से लौटते समय महर्षि मरीचि के आश्रम में दुष्यन्त को पत्नी शकुन्तला और पुत्र सर्वदमन प्राप्त हुआ। वाल्मीकि की रामायण और व्यासजी की महाभारत के आधार पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!