समाज शास्‍त्र

कार्य का अर्थ | समाज में कार्य का स्थान | कार्य के प्रति परम्परागत दृष्टिकोण | कार्य के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण

कार्य का अर्थ | समाज में कार्य का स्थान | कार्य के प्रति परम्परागत दृष्टिकोण | कार्य के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण | Meaning of work in Hindi | Place of work in society in Hindi | Traditional approach towards work in Hindi | Modern approach towards work in Hindi

कार्य

कोई भी समाज अपने सदस्यों को कुछ ऐसी क्रियायें करने की प्रेरणा देता है जिनका लक्ष्य उन वस्तुओं की प्राप्ति होता है जो उनके भौतिक अस्तित्व की रक्षा करती है। यह क्रियायें प्रायः शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से समर्थ जनसंख्या के हिस्से में आती है। बालक विशिष्ट स्त्रियों, बृद्ध तथा समाज के कुछ अन्य विशिष्ट भाग इन क्रियायें से प्रायः मुक्त होते हैं। साधारण अर्थ में कार्य वह क्रिया है जो जीविकोपार्जन के लिये की जाती है। चाहे आदिम और असभ्य समझे जाने वाले समाज हो अथवा आधुनिक समाज हो, सभी में मनुष्यों को अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये तथा सामाजिक हित के लिये कुछ कार्य करने पड़ते है। कार्य ही जीवन है। कार्य पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ न करने वाला मनुष्य पृथ्वी पर भार समझा जाता है। अतः कार्य समाजशास्त्र के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय है। उद्योग आधुनिक युग में जीविकोपार्जन का मुख्य साधन बन गया है और औद्योगिक कार्य आधुनिक समाजों में कार्य का महत्वपूर्ण स्वरूप है। अतः औद्योगिक समाजशास्त्र में कार्य का अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गया है।

कार्य का अर्थ

(Meaning of Work)

कार्य एक व्यापक अवधारणा है। ऑक्सफोर्ड शब्दकोष में कार्य कोक “किसी उद्देश्य के लिये शक्ति का व्यय, परिश्रम, प्रयत्न का प्रयोग” कहा गया है। अर्थशास्त्रियों ने कार्य को उत्पादन के अर्थ में लिया है। स्लोन तथा अरचर के अनुसार कार्य उत्पादन के बड़े कारकों में से एक (है) जिसमें शारीरिक और मानसिक परिश्रम शामिल होता है जिसके लिये मजदूरी, वेतन अथवा व्यवसायिक फीस प्राप्त होती है। रेमण्ड फर्थ के विचार से कार्य “आमदनी करने वाली क्रिया” (Income producing activity) भी है और “ऐसी उद्देश्यपूर्ण क्रिया भी जिसमें आनन्द और अवकाश का कुछ बलिदान शक्ति व्यय की जाती है।” जीवित रहने के लिये किसी न किसी प्रकार का श्रम करना पड़ता है। यह श्रम विचारपूर्वक और चेतन मन से किया जाता है, यद्यपि इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को थकावट होती है।

कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि प्रत्येक कार्य ऐसा नहीं होता जिसमें बहुत प्रयत्न करना पड़े या जिसमें आनन्द न आये। यह भी आवश्यक नहीं कि प्रत्येक कार्य से आमदनी हो। गिस्बर्ट ने कार्य के एक महत्ववपूर्ण तत्व की ओर संकेत किया है। कार्य एक सृजनात्मक क्रिया है जो किसी वस्तु पर विषय पर केन्द्रित होती है। जब कोई व्यक्ति अपने क्रिया के द्वारा कुर्सी या बर्तन बनाता है तो उसकी यह क्रिया कार्य है। चाहे यह क्रिया आनन्ददायक हो या कष्टदायक और चाहे इसमें शक्ति खर्च होती हो अथवा नहीं, यदि किसी किया का अन्तिम उद्देश्य किसी वस्तु का निर्माण है या किसी विषय पर केन्द्रित है, तो यह क्रिया कहीं जायेगी। इसका अर्थ है कि कार्य वह क्रिया है जो स्वयं कर्त्ता की ओर उन्मेषित (oriented) न होकर विषय (object) की ओर उन्मेषित होगी।

संक्षेप में कार्य का सम्बन्ध जीविका प्राप्त करने से है। घर पर बिना कुछ वेतन लिये काम मे व्यस्त गृहणी भी परोक्ष रूप में उस कार्य से जीविका के साधन प्राप्त करती है। अतः कार्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जीविका प्राप्त करने के लिए की जाने वाली क्रिया कही जा सकती है। कार्य व्यक्ति की क्रिया है किन्तु वह सामाजिक है क्योंकि वह समाज में रहकर होता है। बौर्ने तथा हेनरी ने कार्य की परिभाषा करते हुए लिखा है, “हम उस मानवीय प्रयत्न को कार्य कहते हैं जो उपयोगी वस्तुओं की उत्पति करता है, अर्थात    वह प्रयत्न जो किसी सेवा कार्य में लगाया जाता है, श्रम की उत्पत्ति मानवता की सेवा जिसका लक्ष्य है, प्रयत्न जो अपने मूल में व्यक्तिगत है, किन्तु अपने लक्ष्यों का में सामाजिक हैं”

समाज में कार्य का स्थान

(Place of work in Society)

कार्य मुनष्योकं की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्रियाओं में से एक है। यदि भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति को मनुष्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य कहा जा सकता है तो कार्य उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रिया है क्योंकि कार्य के द्वारा ही मनुष्य अपनी जीविका निर्वाह के साधन जुटाता है। प्रत्येक समाज का अस्तित्व मनुष्य की उत्पादन क्रिया अर्थात् कार्य पर निर्भर होता है। आदिम समाजों में भी मानवीय कार्य का समबन्ध समाज से होता है और आधुनिक समजों से तो समस्त उत्पादन क्रिया में समाज योगदान अथवा हस्तक्षेप करता है। आज का जटिल समाज कार्य संचालित (Work-directed) समाज कहा जा सकता है। कार्य वास्तव में आर्थिक क्रिया है, और वर्तमान समाज आर्थिक समाज है। अतः कार्य समाज का आधार है। समाज ही कार्य का उद्गम है और कार्य का परिणाम भी समाज है।

कार्य अथवा श्रम के द्वारा मनुष्य छोटे-छोटे तथा बड़े-बड़े समूह के साथ संबंधित हो जाता है। कुछ लोग उसके साथ कार्य करते हैं और कुछ उसके कार्य पर नजर रखते हैं, उसका निरीक्षण और मूल्यांकन करते है। उद्योगो, दफ्तरों तथा अन्य व्यवसायिक केन्द्रों में कार्य करने वाले लोग परस्पर संगठित होकर अपने सामाजिक स्वार्थों के लिए संघ बना लेते हैं। इन संघों का निर्माण कार्य के कारण ही होता है। कार्य करने वाले लोगों के संगठनों को देखकर प्रबन्धक और मालिकों के भी संगठन बन जाते हैं। श्रमिकों अथवा कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों और मालिकों में कार्य के आधार पर जिन सम्बन्धों की स्थापना होती है, वे समाज के अन्य पक्षों को भी प्रभावित करते है। इस संबंधों में सन्तुलन और व्यवस्था रखने के लिए राज्यसत्ता की क्रियाशील हो जाती हैं और सार्वजनिक जीवन के साथ कार्य अनिवार्य रूप से जुड़ जाता है।

कार्य का महत्त्व प्रत्येक युग तथा प्रत्येक समाज में रहा है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य ने आरम्भ से ही प्रकृति पर नियन्त्रण करने का प्रयत्न किया है। विभिन्न स्थानों पर परिस्थितियों के अनुसार मनुष्यों ने अपनी भोजन, वस्त्र तथा अथवा इत्यादि की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के किसी न किसी प्रकार का कार्य किया है। मनुष्यों ने अपने उत्पादन पर और अन्य लोगों पर नियन्त्रण रखने के लिए भी तथा मानसिक सन्तोष के लिये भी कार्य किया है। मनुष्य का सामाजिक अस्तित्व उसके कार्य पर ही आधारित रहा है।

प्राचीन समाजों में कार्य मनुष्य की अन्य सामाजिक गतिविधियों के साथ समन्वित रहा है। यह कोई पृथक विशिष्ट क्रिया नहीं है। अतः वहाँ श्रम स्वयं सााजिक क्रिया का ही अंग है। भोजन प्राप्त करने में ही आदिम लोगों की सम्पूर्ण शक्ति लग जाती है। वहाँ कार्य केवल आर्थिक क्रिया नहीं है। यह धर्म से भी जुड़ी है और जीवन के अन्य पक्षों से भी सम्पूर्ण समूह कार्य में सलंग्न होता है। आदिम समाज में व्यक्तिगत कार्य का महत्व नहीं होता। कार्य एक सामाजिक अथवा सामूहिक क्रिया हैं केवल आयु तथा लिंग के आधार पर ही श्रम विभाजन का सरल रूप इन समाजों की कार्य प्रणाली में मिलता है।

आधुनिक समाज जटिल और विशेषीकृत समाज है। कार्य आधुनिक मनुष्य के जीवन का आधार है। आधुनिक समाज में कार्य का महत्व बढ़ गया है। व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसके कार्य के आधार पर निश्चित होती है। उसकी सुख-सुविधाएँ और कष्ट अथवा निराशायें कार्य के परिणाम होते हैं। आधुनिक समाज में ‘कार्य’ ही पूजा है’ का विचार प्रबल हो गया है और प्रत्येक मनुष्य सबसे पहले कार्य के लिये प्रयत्न करता है। समाज के आदर्श और मूल्य विभिन्न कार्यों को उत्तम, मध्यम अथवा निम्न बनाते हैं आज हर व्यक्ति अपने कार्य के सहारे जीता है। कार्य समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है। कार्य समाज की सुरक्षा और शान्ति तथा व्यवस्था के लिए भी महत्त्वपूर्ण है और कार्य समाज की सार्थकता के लिए भी आवश्यक है।

मनुष्य जो कार्य करता है, उसका प्रभाव उसके व्यक्तित्व के विकास पर भी पड़ता है। व्यक्ति जिस प्रकार की कार्य प्रणाली से जीविका कमाता है वह उसके पारिवारिक जीवन पर भी प्रभाव डालता है। काम करने की शक्ति और क्षमता कार्य की परिस्थितियाँ इत्यादि भी मनुष्य के व्यक्तित्व को तथा सामाजिक जीवन को प्रभावित करती हैं। कार्य की प्रकृति उद्योग में तथा उद्योग के बाहर एक विशेष प्रकार के वातवरण की उत्पत्ति करती है। एक खान उद्योग में धूल धुआँ और खतेर का वातावरण रहता है जिसमें सभी मजदूर और अधिकारी भी स्वस्थ वातावरण और दुर्घटना की आशंकाओं के बीच कार्य करते हैं। अधिक या कर्मचारी का बाहरी जीवन उनकी आमदनी से प्रभावित होता है। उसका खान-पान उसका रहन-सहन, बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा मनुष्य की आय के अनुसार निश्चित होते है। आय का आधार कार्य है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कार्य ही मनुष्य के भौतिक जीवन-स्तर और सामाजिक स्थिति को निर्धारित करता है। जिस क्षेत्र में उद्योग स्थापित हो जाता है, वहाँ के लोगों के सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन हो जाता है।

कार्य मनुष्य के दैनिक कार्यों को मनोरजंन को और सामाजिक कार्यों में भागीदारी को भी प्रभावित करता है। एक डाक्टर को अनेक आवश्यक कार्य छोड़कर भी कार्य पर जाना पड़ता है। लेखक को एक बार अपने मित्र के आग्रह पर पंजाब के एक नगर में रात्रि 7 बजे से 10 बजे तक वाले सिनेमा ‘शो’ में जाना पड़ा। मित्र उस नगर के सरकारी अस्पताल में डॉक्टर थे और लेखक उनका मेहमान था। बहुत दिलचस्प पिक्चर थी। मध्यान्तर के पश्चात् बहुत दत्तचिन्त होकर दोनों स्क्रीन पर दृष्टि जमाए हुए थे कि उसी समय सिनेमा का मैनेजर बॉक्स में आया और डाक्टर साहब को सूचना दी कि एक मरीज बहुत गम्भीर स्थिति में अस्पताल आया है और आपको तरुन्त अस्पताल बुलाया है। डाक्टर विवश उन्होंने लेखक से बैठे रहने का आग्रह किया और आश्वासन दिया कि ‘शो’ समाप्त होने से पूर्व ही उसे लेने आएँगे, किन्तु परिस्थिति ने लेखक को उनके साथ वापस चलने को मजबूर कर दिया। यह सब डाक्टर के विशिष्ट कार्य के कारण ही हुआ।

कार्य के प्रति परम्परागत दृष्टिकोण

(Traditional approach to work)

श्रम अथवा कार्य के प्रति भी समाजों में समान दृष्टिकोण नहीं होता। आदिम समाजों में कार्य को आयु तथा लिंग के संदर्भ में समझा जाता है। स्त्री-पुरुषों में कार्य का विभाजन होता है और बालक, युवा और वृद्ध व्यक्तियों में भी कार्य का विभाजन रहता है। इस कार्य विभाजन में रूचि का प्रश्न नहीं होता, बल्कि सामूहिक जीवन में प्रचलित मान्यताएँ तथा शारीरिक और बौद्धिक क्षमाओं की कल्पना ही इस लैंगिक तथा आयुगत श्रम विभाजन का आधार होता है। कार्यों का पारस्परिक आदान-प्रदान नातेदारी तथा गोत्र सम्बन्धों के आधार पर होती है। आदिम समाओं में कार्य को अन्य सामाजिक क्रियाओं से पृथक नहीं समझा जाता। पूरे (Moore) ने प्रारम्भिक समाजों में कार्य के प्रति दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुये लिखा है, “स्वयं उत्पादन क्रिया के साथ रागात्मक, जादुई अथवा धार्मिक तत्त्व जुड़े रहने संभावित होते हैं, परिभाषित रूप में नातेदारी के तत्व जुड़े रहते हैं और शक्ति तथा उत्तरदायित्व का वितरण भी जुड़ा रहना आवश्यक है।

नवजागरण काल (Renaissance) – में कार्य के प्रति दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन हुआ। इस काल में कार्य को एक रचनात्मक क्रिया या सृजनात्मक प्रयत्न के रूप में प्रतिष्ठा दी गई और कार्य को दुख-दर्द और अनावश्यक की अपेक्षा मनुष्य को आनन्द देने वाली क्रिया के रूप में मान्यता दी गई। कार्य के प्रति इस दृष्टिकोण का विकास आधुनिक विचार का आधार है। किन्तु यह दृष्टिकोण भी इस आधार पर परम्परावादी था क्योंकि इसमें भी आध्यात्मिक आधार महत्वपूर्ण था। प्रोटेस्टेन्ट के प्रणेताओं ने किसी अंश तक कार्य को लौकिक आधार पर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया। किन्तु उन्होंने भी कार्य को ईश्वरीय इच्छा से जोड़कर यह घोषित किया कि ईश्वर का यह आदेश है कि प्रत्येक मनुष्य इस संसार में उन्नति करे अधिकाधिक सुख के साधन जुटाये। इस उद्देश्य की पूर्ति कार्य के द्वारा ही की जा सकती है। निष्ठपूर्वक करने से ही मोक्ष प्राप्त होता है। महान धर्म सुधारक लूथर ने कार्य को ही पूजा बताया। उसने आलस्य अथवा निष्क्रियता को पाप कहा और कार्य को जीवन की कुंजी बताया। प्रोटेस्टेन्ट धर्म के द्वारा कार्य को इतनी प्रतिष्ठा मिलने से ही आधुनिक उद्योग के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।

जाति व्यवस्था में कार्य को जन्म के साथ संयुक्त कर दिया गया जिसके परिणाम स्वरूप किसी व्यक्ति के लिये अपने पैतृक परम्परागत कार्य को बदलना असम्भव हो गया। अब कार्य को ईश्वर की पूजा नहीं बल्कि ईश्वर की देन कहा गया। कार्य के बलात (forced) विभाजन को धर्म के आधार पर वैधता प्रदान की गई। कार्यों के प्रति पवित्रता और अपवित्रता का दृष्टिकोण विकसित हो गया ओर उसी के अनुरूप जातियाँ भी पवित्र और अपवित्र हो गई। कार्य को सामाजिक स्थिति का एकमात्र आधार बना दिया गया। सहस्त्रों वर्ष की इस परम्परागत व्यवस्था ने श्रम करने वाले लोगो को निम्न वर्ग के रूप में खड़ा कर दिया। कार्य को श्रमिक अपने ऊपर थोपी गई मजबूरी समझने लगा समाज भी कार्य को हीन समझने लगा और श्रम कार्यहीनता का मापदण्ड बन गया संक्षेप में कार्य के प्रति पाश्चात्य जगत में भी तथा भारतवर्ष में भी परम्परागत दृष्टिकोण उपेक्षा कर रहा है। कार्य एक बोझिल और त्याज्य क्रिया समझी जाती रही है।

कार्य के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण

(Modern Approach to work)

औद्योगिक क्रान्ति के उपरान्त कार्य के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदल गया है उत्पादन की नवीन पद्धतियों के विकास के फलस्वरूप सम्पूर्ण सामाजिक संरचना ही कार्य पर आधारित हो गई। कार्य का समाज के केन्द्रीय स्थान हो गया। यह सत्य है कि आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के प्रारम्भ में कार्य को एक कठोर और अनचाही क्रिया समझा गया, किन्तु धीरे-धीरे इस दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया और कार्य का महत्व बढ़ गया। आजकल व्यक्ति को केवल सीमित घंटों के लिये ही दैनिक कार्य करना पड़ता है। कार्य को व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक माना जाता है। कार्य के प्रति परम्परागत दृष्टिकोण बदल गया है, और अब कार्य धार्मिक कर्त्तव्य के रूप में नहीं वरन् व्यक्तिगत तथा सामाजिक प्रगति में सहायक तत्त्व के रूप में समझा जाता है।

आधुनिक युग में कार्य के आधार पर नवीन सामाजिक नैतिकता का विकास हुआ है। आधुनिक समाज में जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन बढ़ गये हैं। यन्त्रीकरण और स्वचलन (automation) आदि के कारण श्रमिकों को कम समय काम करना पड़ता है और उन्हें शारीरिक श्रम भी कम करना पड़ता है। व्यक्तिगत कार्य के स्थान पर संगठित या सामूहिक कार्य का आदर्श विकसित हो गया है, और इसी के साथ आधुनिक मनुष्य संगठन मनुष्य (Organization man) हो गया है। व्यक्तिगत नैतिकता के स्थान पर सामाजिक संगठनात्मक नैतिकता का उदय हुआ है जिसके फलस्वरूप समूह कार्य का स्रोत बन गया है और विज्ञान की उपयोगिता में विश्वास जाग्रत हुआ है।

इस नवीन सामाजिक नैतिकता और संगठनात्मक दृष्टिकोण ने कार्य के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण को जन्म दिया है जिस उत्पादक- उन्मेष (Productive Orientation) कहा गया है। सामाजिक प्रगति और मानवीय सुख की वृद्धि के लिये कार्य की आवश्यकता का विचार प्रबल हो रहा है। मनुष्य अपने सुख के लिये, समाज के सुख के लिये कार्य को महत्व देता है। कार्य भौतिक उत्पादन का आधार है। उत्पादन मनुष्य के लिये हैं। अतः कार्य का अन्तिम उद्देश्य मनुष्य है, उसकी सृजनात्मकता का विकास है। मानव जीवन के महत्व का प्रदर्शन है।

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Pankaja Singh

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