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औपचारिक तथा अनौपचारिक संगठन | औपाचारिक संगठन की विशेषतायें | औपचारिक संगठन के स्तर | औपचारिक संगठन की प्रकार्यात्मक व्यवस्था | औपाचारिक संगठन के सिद्धान्त | औपचारिक संगठन के लाभ | औपचारिक संगठन के दोष

औपचारिक तथा अनौपचारिक संगठन | औपाचारिक संगठन की विशेषतायें | औपचारिक संगठन के स्तर | औपचारिक संगठन की प्रकार्यात्मक व्यवस्था | औपाचारिक संगठन के सिद्धान्त | औपचारिक संगठन के लाभ | औपचारिक संगठन के दोष | Formal and informal organizations in Hindi | Characteristics of formal organization in Hindi | Levels of formal organization Functional system of formal organization in Hindi | Principles of formal organization in Hindi | Benefits of formal organization in Hindi | Demerits of formal organization in Hindi

औपचारिक तथा अनौपचारिक संगठन

औद्योगिक संगठन की संरचनात्मक प्रकृति औपचारिक भी हो सकती है और अनौपचारिक भी। संगठन की प्रक्रिया में संरचना के विभिन्न अंग जिस ढंग से परस्पर सम्बन्धित होते हैं उसी के अनुसार संगठन औपचारिक या अनौपचारिक हो जाते हैं जिन संगठनों का निर्माण निश्चित नियमों के आधार पर निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये विचारपूर्वक योजनाबद्ध पद्धति से किया जाता है और जिनके सदस्यों में औपचारिक सम्बन्ध पाये जाते हैं, उन संगठनों को हम औपचारिक संगठन कहते है। इसके विपरीत जो संगठन स्वतः विकसित होते हैं और जिनके सदस्यों में अनौपचारिक सम्बन्ध पाये जाते है उन्हें अनौपचारिक संगठन कहा जाता है। आधुनिक औद्योगिक संगठन में इन दोनों स्वरूपों का महत्व होता है।

औपचारिक संगठन

(Formal Organization)

गिस्बर्ट ने औपचारिक संगठन की व्याख्या करते हुये लिखा है, “उद्योग के औपचारिक संगठन की परिभाषा इसके उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उद्योग के मानवीय तत्त्व के सुविचारित तथा पद्धतिपूर्ण संगठन के रूप में की जा सकती है। बर्नार्ड के शब्दों में दो अथवा अधिक व्यक्तियों की विचारपूर्वक समन्वित क्रियाओं अथवा शक्तियों की व्यवस्था। औपचारिक संगठन है। हरबर्ट साइमन ने औपचारिक संगठन की परिभाषा करते हुये लिखा है, “औपचारिक संगठन में अमूर्त एवम् बहुत कुछ स्थायी नियमों का समावेश होता है जो प्रत्येक सहभागी के व्यवहार को प्रभावित करते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि औपाचारिक संगठन औपचारिक मानवीय सम्बन्धों के आधार पर निर्मित एक संराचनात्मक व्यवस्था है जिसमें निश्चित नियमों, पद्धतियों, नीतियों तथा आर्थिक सम्बन्धों का महत्त्व होता है। यह ऐसा संगठन है जिसमें कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों के अधिकारों और कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या की जाती है मानवीय अन्तर्सम्बन्धी के स्वाभाविक समन्वय के लिये चेतन तथा  सुनिश्चित नियामक तन्त्र का विकास किया जाता है और सम्पूर्ण संरचनात्मक प्रकार्यात्मक व्यवस्था का निर्माण संगठनात्मक उद्देश्यों के आधार किया जाता है। औपचारिक संगठन में मशीनों की क्रिया और मनुष्यों का आचरण का स्थायी और पूर्वकल्पित प्रतिमान विकसित हो जाता है। इस संगठन का संचालन कुछ निश्चित सत्ता केन्द्रों से होता है।

औपाचारिक संगठन की विशेषतायें

  1. विचारपूर्वक निर्मित संगठन (Deliberately designed)- औपचारिक संगठन की स्थापना वेतन, प्रयत्न के द्वारा योजनाबद्ध तरीके से विचारपूर्वक की जाती है। यह योजना संगठन के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। औपचारिक संगठन के प्रत्येक सदस्य के कार्य पूर्व निश्चित होते है और विचारपूर्वक एक निश्चित परिणाम को प्राप्त करने के लिये वह कार्य करता है।
  2. निश्चित स्थितियों और कार्य (Definite Positions and functions)- औपचारिक संगठन में प्रत्येक व्यक्ति की पूर्वनिश्चित स्थिति होती है और प्रत्येक स्थिति के साथ संलग्न निश्चित कर्त्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या होती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पद के अनुसार अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है और अपने अधिकारों का प्रयोग करता है।
  3. पदसोपान-क्रम (Hierarchy of positions)- औपचारिक संगठन में विभिन्न पदों पर आसीन व्यक्तियों का क्रमिक स्तरण अथवा पदसोपान-क्रम ऊर्ध्वगामी होता है। ऊपर के पदों पर आसीन व्यक्ति आदेश देते हैं और नीचे के पदों पर कार्य करने वाले लोग उन आदेशों का पालन करते हैं। उद्योग भी एक शासन व्यवस्था है। चैम्बरलेन के अनुसार औपचारिक संगठन सरकार की तरह शक्ति रखते हैं, वे मनुष्यों पर वास्तविक प्रभुसत्ता रखते हैं और समझौते का दमन करने में समर्थ होते हैं।
  4. अवैयक्तिक सम्बन्ध (Impersonal Relations)- औद्योगिक संगठन का औपचारिक तन्त्र कार्य सम्बन्धी को प्रभावित करता है। संगठन स्वयं एक अमूर्त व्यवस्था होती है। यह संगठन भूमिकाओं और कार्य सम्पादन से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित होता है और इन कार्यों को करने वाले मनुष्यों से संगठन का केवल अप्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। व्यक्ति भी एक दूसरे के साथ कार्यों के आधार पर जुड़े रहते हैं। वे परस्पर व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं रखते। एक मिल का मैनेजर अपने क्लर्क से उसके कार्य के आधार पर सम्बन्ध रखता है, रामकुमार नामक उस व्यक्ति से नहीं जो क्लर्क की कुर्सी पर बैठा है। सत्ता भी अमूर्त हो जाती है। कर्मचारी साथ काम करने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा अपनी मशीनी प्रक्रिया के साथ सामन्जस्य करने का प्रयत्न करता है। सम्बन्ध औपचारिक और प्रकार्यात्मक हो जाते हैं।
  5. पूर्व निर्धारित सम्बन्ध (Predesigned Relations)- औपाचारिक संगठन में सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध संगठन के नियमों के अनुसार पूर्वनिश्चित होते हैं, इसका यह अर्थ नहीं है कि इन संगठनों में काम करने वाले व्यक्तियों में व्यक्तिगत, सामाजिक अथवा अनोपचारिक सम्बन्धों का नितान्त अभाव होता है। अनौपचारिक संगठनों के अन्तर्गत अनौपचारिक सम्बन्धों पर आधारित समूहों का विकास हो जाता है, किन्तु ये सम्बन्ध औपचारिक संगठन के अंग या परिणाम नहीं होते।
  6. नियमों का महत्व (Importance of Rules)- प्रकार्यात्मक सम्बन्धों के नियमन और नियन्त्रण के लिये औपाचारिक संगठनों में संगठनात्मक नियमों तथा आचरण संहिताओं का विकास हो जाता है, औद्योगिक प्रक्रिया में विभिन्न पदों और भूमिकाओं में टकराव और विरोध को रोकने के लिये तथा प्रकार्यात्मक एकता के लिये निश्चित प्रणालियों, नियमों नीतियों और आदेश देने तथा प्राप्त करने के लिये एक निश्चित संचार व्यवस्था का निर्माण किया जाता है जिनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्रियाओं को निर्देशित करता है। प्रत्येक व्यक्ति ऊंचे अथवा नीचे पद पर होते हुए भी समानता की दृष्टि से देखा जाता है। मनुष्य आदतों, भावनाओं आदि से प्रभावित होकर परस्पर व्यवहार नहीं करते बल्कि नियमों और वैधानिक व्यवस्थाओं से निर्देशित होकर आचरण करते हैं।
  7. सत्तात्मक सम्प्रेषण (Authoritative Communication) – औपचारिक संगठन में क्रियाओं का संचालन करने के लिये संचार-व्यवस्था का विशेष महत्व होता है प्रकार्यात्मक सम्बन्धों में आदेशों और निर्देशों का सम्प्रेषण आवश्यक है। यह सम्पेषण औपचारिक आज्ञाओं, लिखित प्रपत्रों आदि के माध्यम से होता है। इसका मुख्य उद्देश्य सत्ता पदों पर आसीन लोगों का नियन्त्रण बनाये रखना है। यदि सम्प्रेषण के पीछे सत्ता न हो तो आदेशों का पालन होना कठिन होता है। अतः आदेश ऊपर से नीचे की ओर प्रेषित किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में औद्योगिक संचार की प्रकृति सत्तात्मक है। उद्योगों में कर्मचारियों के दृष्टिकोण को लक्ष्यों और हितों के अनुरूप बनाने की दृष्टि से पत्रिकाओं, प्रपत्रों, गोष्ठियों, विज्ञापनों और शिक्षण-प्रशिक्षण के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
  8. कागजी सम्बन्ध (Paper Relations)- औपचारिक संगठनों में व्यक्ति का स्थान कागज ने ले लिया है। यहाँ व्यक्ति के प्रश्नों का उत्तर व्यक्ति नहीं देता, कागज प्रश्न पूछता है, कागज उत्तर देता है। कागज व्यक्तिगत सम्बन्धों का विकल्प बन गया है। कागज हजारों कर्मचारियों को एक दूसरे से जोड़ता है। विभागों के द्वारा कागजी रिपोर्टों के आधार पर निर्णय लिये जाते हैं ‘लिख कर दीजिए’ का सिद्धान्त औपचारिक संगठनों का मुख्य सिद्धान्त है। कागजी सूचनाओं को गोपनीय रखा जा सकता है। और दबाया भी जा सकता है।
  9. विवेकीकरण का महत्व (Importance of rationalization)- प्रकार्यात्मक विवेकीकरण के द्वारा व्यक्ति की क्रियाओं को संगठनात्मक लक्ष्यों की दिशा में निर्देशित करना औपचारिक संगठन की मुख्य विशेषता है। औपचारिक संगठन विचारपूर्वक निर्मित व्यवस्था है। अतः विवेकीकरण इसका केन्द्रीय तत्व है।
  10. विस्तृत व्यवस्था का अंग (Part of Wider System) – विस्तृत अर्थ में औद्योगिक व्यवस्था भौतिक तथा अभौतिक, दोनों तत्वों के योग का नाम है। इसमें समाज की आर्थिक सामग्री, राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्थायें तथा सामाजिक और नैतिक तथ्य भी सम्मिलित होते हैं। अवैयक्तिकता अमूर्तता और उद्देश्यात्मकता औपचारिक संगठन को लचीला तथा सामन्जस्य करने में समर्थ बना देती है। सत्ता के स्तर सम्प्रेषण की रेखाओं तथा प्रकार्यात्मक सम्बन्ध अधिक वैज्ञानिक हो जाते हैं। इन संगठनों में दुहरी मानवीय व्यवस्थायें क्रियाशील रहती हैं।

इस प्रकार औपचारिक संगठन केवल मानवीय संकलन मात्र नहीं होता संगठन के सदस्यों में आन्तरिक अनौपचारिकता भी हो सकती है। औपचारिक संगठनों के अन्तर्गत अनौपचारिक संगठन भी होते हैं। औपचारिक संगठन की प्रकृति पर प्रकाश डालते हुये मिलर तथा फार्म ने कहा है, “कार्यशाला और विशेषतया इसका औपचारिक संगठन अनेक कोष्ठों के द्वारा निर्मित और प्रत्येक कोष्ठ तक पहुंचने वाले स्त्रायु व्यवस्था के द्वारा समन्वित सावयव की भाँति होता है। यह स्त्रायु व्यवस्था प्रबन्ध-संगठन होता है।”

औपचारिक संगठन के स्तर

(Levels of Organization)

विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये औपचारिक संगठन को विभिन्न स्तरों में विभाजित किया जाता है। किसी भी औद्योगिक संगठन में कर्मचारियों अथवा श्रमिकों के साथ-साथ कुछ अधिकारी भी काम करते हैं। पद-सोपान क्रम में कर्मचारियों का स्तर अधिकारियों की अपेक्षा निम्न समझा जाता है। कार्य के बदले जो पुरस्कार (वेतन, सुविधायें आदि) व्यक्तियों को प्राप्त होते हैं उनकी अधिकता अथवा न्यूनता ही प्रायः स्तर को ऊँचा या नीचा बना देती है। स्वयं अधिकारियों में भी पदों का संस्तरण होता है। औद्योगिक संगठन के इस ऊर्ध्वागामी स्तरण को चार भागों में बाँटा जा सकता है- उच्च अधिकारी वर्ग, मध्य अधिकारी वर्ग तथा कनिष्ठ अधिकारी वर्ग।

  1. उच्च अधिकारी वर्ग (Top Officials) – उच्च अधिकारी वर्ग जिसे मूरे (W.E. Moore) ने सर्वोच्च प्रबन्धक (Top Management) कहा है, उन अधिकारियों का नाम है जिनके हाथ में उद्योग को संचालित और निर्देशित करने की सत्ता होती है। औद्योगिक संस्था के भागीदार और उनके द्वारा निर्वाचित या मनोनीत संचालक मण्डल (Board of Directors), इस मंडल का अध्ययन महाप्रबन्धक या प्रबन्ध निर्देशक (Managing Director), विभागीय प्रबन्धक इत्यादि को इस वर्ग में शामिल किया जाता है। मूरे के शब्दों में ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसके हाथ में सामान्य प्रकार की अथवा समायोजन सम्बन्धी पर्याप्त सत्ता होती है उच्च अधिकारी वर्ग में शामिल किया जा सकता है।
  2. मध्यम अधिकारी वर्ग (Middle Management)- इस वर्ग में वे व्यक्ति हैं जिनकी स्थिति और अधिकार उच्च अधिकारी वर्ग से कम होते हैं किन्तु जो निम्न अधिकारियों से ऊंचे पदों पर नियुक्त होते हैं। इनका काम केवल यह नहीं होता कि वे उच्च अधिकारियों के आदेशों-निर्देशों को आगे प्रेषित कर दें, बल्कि इनसे यह भी आशा की जाती है कि वे उच्च अधिकारियों के द्वारा लिये गये निर्णयों और उनके द्वारा निर्मित योजनाओं को अपने अधीन काम करने वाले लोगों के समक्ष स्पष्ट करें और उनके बारे में पूरी जानकारी दे। मध्यम वर्ग के अधिकांश अधिकारी विशेषज्ञ तथा प्रविधिकुशल व्यक्ति होते हैं। गिस्बर्ट लिखता है, “अपने ज्ञान, अनुभव और सत्ता के द्वारा वे उद्योग के लक्ष्यों को उसी प्रकार पूर्णता के निकट ले जाते हैं जिस प्रकार एक स्वस्थ वृक्ष की शाखायों उसके फल के शक्तिवर्धक और पौष्टिक मूल्य के विकास और वृद्धि में योगदान करती है।
  3. कनिष्ठ अधिकारी वर्ग (Junior Exeuctives)- प्रायः मध्यम वर्ग के अधिकारियों को कनिष्ठ अधिकारी कह दिया जाता है। वास्तव में इस वर्ग में निम्न श्रेणी के परिनिरीक्षकों और देख- भाल करने वाले कर्मचारियों को शामिल किया जाता है जो मध्यम वर्ग के अधिकारियों के सहायकों या। प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले अधिकारियों के रूप में कार्य करते हैं।
  4. कर्मचारी तथा श्रमिक वर्ग (Workers)- औद्योगिक संगठन के अन्तिम स्तर पर हम कार्यालयों में काम करने वाले क्लकों तथा अन्य श्वेत वसन कर्मचारियों को और श्रमिक वर्ग शामिल कर सकते हैं। यह वर्ग संगठन के उच्चाधिकारियों के द्वारा सम्प्रेषित तथा निर्धारित कार्यों का सम्पादन करता है।

औपचारिक संगठन की प्रकार्यात्मक व्यवस्था

(Functional System of Formal Organization)

औपचारिक संगठन में प्रकार्यात्मकता का विशेष का महत्त्व होता है। संगठन के विभिन्न अंग उसके उद्देश्यों की पूर्ति की दृष्टि से प्रकार्यात्मक योगदान करते हैं आधुनिक उद्योग में उत्पादन के विस्तार और विक्रय में प्रतियोगिता ने श्रम का अधिक विभाजन कर दिया है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के निरन्तर विकास ने आधुनिक औद्योगिक संगठन को प्रकार्यात्मक दृष्टि से बहुत जटिल बना दिया है। उत्पादन के लिये कच्चे माल, मशीनों और कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। इनकी व्यवस्था से सम्बन्धित कार्य, उत्पादन की प्रक्रिया से समबन्धित कार्य, उत्पादन के विक्रय की व्यवस्था इत्यादि से सम्बन्धित अनेकों कार्यों के समायोजन के लिए एक जटिल प्राकार्यात्मक व्यवस्था का विकास हो जाता है। इस जटिल औद्योगिक प्रक्रिया के विकास ने औपचारिक औद्योगिक संगठनों में निम्नलिखित तीन प्रकार्यात्मक व्यवस्थाओं का विकास किया है।

  1. सत्ता व्यवस्था अथवा रेखा संगठन (Authority Ssytem of line organization) – औद्योगिक संगठन में काम करने वाले विभिन्न व्यक्तियों तथा समूहों के कार्य निर्देशित और नियन्त्रित करने के लिए तथा उद्योग के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उनको समायोजित करने के लिये कुछ सत्तापदों का निर्माण करना आवश्यक होता है ताकि औद्योगिक क्रिया के परिणामों के लिए विशिष्ट व्यक्तियों की जिम्मेदारी ठहराया जा सके। इन उत्तरदायी पदों के साथ निश्चित अधिकार जुड़े रहते हैं जिनके आधार पर इन पदों पर नियुक्त व्यक्ति अपने अधीनस्थ व्यक्तियों के कार्यों का निरीक्षण और नियन्त्रण कर सकते है। इसी को सत्ता व्यवस्था कहा जाता है। इस व्यवस्था के आधार पर जो संरचनात्मक व्यवस्था विकसित होती हैं, उसी को रेखा संगठन कहते हैं।
  2. विभागीय व्यवस्था या प्रकार्यात्मक विभाजन (Departmental system of functional Division)- उद्योग की विभिन्न क्रियाओं को उनकी समानता अथवा पारस्परिक पूरकता के आधार पर विभिन्न क्रियाओं में बाँट देना विभागीय व्यवस्था कहलाती है। इसी को प्रकार्यात्मक विभाजन कहा जा सकता है। उत्पादन तथा कार्यकुशलता में वृद्धि करने के उद्देश्य से इस व्यवस्था का विकास किया जाता है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पूर्ण उद्योग को कुछ विभागों तथा उपविभागों में विभाजित कर दिया जाता है।

यह विभागीकरण प्रकार्यों के आधार पर भी किया जा सकता है। जैसे क्रय सम्बन्धी समस्त प्रकार्यों को क्रय विभाग में समायोजित कर देना या धन के लेन-देन से सम्बन्धित प्रकार्यों को वित्त विभाग में समायोजित करना। उत्पादन की वस्तुओं के आधार पर भी विभाग बनोय जा सकते हैं, जैसे ट्रक विभाग, बस विभाग, टैक्सी वा कार विभाग इत्यादि।

  1. विशेषज्ञ व्यवस्था या स्टाफ संगठन (Specialists system of staff organization)- रेखा संगठन से सम्बन्धित व्यक्ति चाहे वे उद्योग के मालिक, संचालक और प्रबन्धक हो अथवा अन्य स्तरों के कर्मचारी और परिनिरीक्षक, यह जानते है कि आधुनिक उत्पादन पद्धतियाँ और प्रकार्यात्मक कुशलता उद्योग के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। वे नवीन पद्धतियाँ और क्षमतायें वैज्ञानिक शिक्षा, प्रविधि ज्ञान और प्रशिक्षण अर्थशास्त्र तथा सामाजिक विज्ञानों और कानन आदि के ज्ञान के आधार पर अर्जित की जा सकती है। इस प्रकार की क्षमताओं और योग्यताओं से युक्त विशेषज्ञों की सेवायें भी उद्योग से प्राप्त की जाती है। इन विशेषज्ञों के समूह को ही ‘स्टाफ संगठन’ (Staff Organization) कहा जाता है। रेखा संगठन और स्टाफ संगठन के महत्व पर प्रकाश डालते हुये गिस्बर्ट लिखता है, “ये विशेषज्ञ के पहिये हैं जिन पर उद्योग चलता है जबकि रेखा (संगठन) इसे चालक शक्ति प्रदान करती है।”

औपाचारिक संगठन के सिद्धान्त

(Principles of Formal Organization)

संगठन के शास्त्रीय सिद्धान्त का महत्व सभी ने स्वीकार किया है। संगठन की व्यवस्था और सफल चालन के लिये जिन विद्वानों ने महत्वपूर्ण नियमो या सिद्धान्तों की व्याख्या की है उनमें फेयोल, फ्लोरेन्स, टेलर, बर्नार्ड, आर्थिक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। हेनरी फयोल (Henri Fayol) ने औद्योगिक संगठन के 14 सिद्धान्तों का उल्लेख किया जो अप्रलिखित हैं, (1) कार्य विभाजन (2) सत्ता और उत्तरदायित्व (3) अनुशासन (4) आदेश की एकता (5) दिशा की एकता (6) सामान्य हित के समझ वैयक्तिक हित की अधीनता (7) कर्मचारियों का पारिश्रमिक (8) केन्द्रीकरण (9) सोपान श्रृंखला (10) व्यवस्था (11) न्यायसंगी (12) कर्मचारियों के कार्यकाल का स्थायित्व (13) नेतृत्व या पहल (initiative) तथा (14) चातुर्य ।

कून्ज तथा डोनेल (Koontz and Donnell) ने अच्छे औपचारिक संगठन के निम्नलिखित सिद्धान्तों की व्याख्या की है जिन्हें अधिकांशता समान्यता प्राप्त हुई है।

  1. उद्देश्यों की एकता का सिद्धान्त- किसी उद्योग के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये यह आवश्यकता है कि औपचारिक संगठन की निरन्तरता बनी रहे संगठन की निरन्तरता इन उद्देश्यों के प्रति आवश्यकता का विकास करती है और उद्देश्यों में एकता स्थापित करती है।
  2. कार्य कुशलता का सिद्धान्त- संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये यह आवश्यक है कि गतिविधियों और परिश्रम के निश्चित परिणाम निकलते रहें। यह तभी संभव है जब न्यूनतम लागत पर आपेक्षित कार्यों का सम्पादन होता रहे। इसके लिये कार्यकुशलता एक महत्वपूर्ण आवश्यकता बन जाती है।
  3. प्रबन्ध सिद्धान्त का विसतार (Span of Management Principles) – कोई व्यक्ति अपने अधीन कार्य करने वाले लोगों की एक सीमित संख्या का ही ठीक प्रकार से नियन्त्रित या निर्देशित कर सकता है। सामान्य कार्य करने वाले व्यक्तियों को प्रबन्ध की परिधि या विस्तार अधिक हो सकता है जबकि विशिष्ट प्रकार्यों में लगे व्यक्तियों के प्रबन्ध का विस्तार अपेक्षाकृत कम होता है। इसका अर्थ है कि कार्य की प्रकृति कर्मचारियों का प्रकार और कार्य सम्बन्धों की जटिलता आदि तत्त्व प्रबन्ध के विस्तार और सीमा को निर्धारित करते हैं।
  4. सोपान क्रम सिद्धान्त (Scalar Principle)- किसी भी औद्योगिक संगठन के सफल संचालन के लिये यह आवश्यक है कि कोई सर्वोच्च सत्ता पदारूढ़ हो जहाँ से संगठन में काम करने वाले विभिन्न अधीनस्थ व्यक्तियों को शक्ति तथा निर्देश प्राप्त होते रहें यह सत्ता-सोपान क्रम निश्चित और निरन्तर होता है तो सम्प्रेषण की प्रक्रिया और कार्यों का सम्पादन व्यवस्थित रूप से चले रहते हैं।
  5. उत्तरदायित्व का सिद्धान्त (Principle of responsibility)- यद्यपि ऊपर के अधिकारी कार्यों का सम्पादन करने के लिये अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को सत्ता हस्तान्तरित अथवा अध्यर्पित (delegate) कर देते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वे कार्य के परिणामों की ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। निम्न पदों पर कार्य करने वाले व्यक्तियों के कार्यों के लिये भी उनके अधिकारी उत्तरदायी होते हैं। कून्ज तथा डोनेल के शब्दों में, “प्राप्त अध्यर्पित सत्ता के कारण अधीनस्थ व्यक्ति का अपने ज्येष्ठ अधिकारी के प्रति उत्तरदायित्व भी पूर्ण होता है और कोई उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थ व्यक्तियों के अधिकृत कार्यों की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।
  6. सत्ता तथा उत्तरदायित्व की समता का सिद्धान्त (Principle of parity of authority and responsibility)-अधीनस्थ कर्मचारियों के अधिकृत कार्यों के लिये ज्येष्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी उतनी ही होनी चाहिये जितनी अधिकृत सत्ता की होती है। दूसरे शब्दों में अधिकृत सत्ता और जिम्मेदारी की मात्रा में समानता होनी चाहिए।
  7. आदेश की एकता का सिद्धान्त (Principle unity of command)- आदेश की एकता का तात्पर्य यह है कि एक अधीनस्थ कर्मचारी केवल एक ही अधिकारी के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये और उसे आदेश भी एक ही अधिकारी से प्राप्त होने चाहिए। यदि अनेक अधिकारी एक ही व्यक्ति को आदेश देने लगेंगे तो उत्तरदायित्व बँट जायेगा और अस्पष्ट हो जायेगा।
  8. सत्ता स्तर का सिद्धान्त (Authority level principle)- प्रत्येक संगठन में ऐसा स्तर निर्धारित होना चाहिये जहाँ निर्णय लिये जा सकें। यदि कुछ ऐसी समस्यायें हों, जिनके विषय में निर्धारित स्तर पर निर्णय न लिए जा सकते हो तो केवल उन्हीं को उच्च स्तर पर प्रेषित करना चाहिये। इस सिद्धान्त को हम विकेन्द्रीकरण (decentralization) का सिद्धान्त भी कह सकते हैं जिसका तात्पर्य यह है कि हर छोटे मामले को उत्ताधिकारपूर्ण सत्ता-पद तक नहीं भेजना चाहिये जिन मामलों का निपटारा निम्न स्तर पर हो सकता है उनके लिये उच्च स्तर के अधिकारियों को नहीं उलझाना चाहिये और उच्च अधिकारियों को भी ऐसे मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।

औपचारिक संगठन के लाभ

(Merits of Formal Organization)

  1. औपचारिक संगठन में प्रत्येक अधिकारी था कर्मचारी के अधिकारों कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों की स्पष्ट व्याख्या होती है। अतः अतिक्रमण और टकराव की संभावनायें कम हो जाती है।
  2. सुनियोजित व्यवस्था के कारण अनौपचारिक संगठन में उद्देश्यों की प्राप्ति सरल हो जाती है।
  3. आपैचारिक संगठन में अवैयक्तिक सम्बन्ध होते हैं जिनके कारण सभी अधिकारी और कर्मचारी निष्पक्ष व्यवहार करते हैं। पक्षपात की संभावना कम हो जाता है।
  4. उत्तरदायित्व निर्धारित करना सरल होता है, अतः कोई व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी और गलती दूसरे के ऊपर नहीं थोप सकता और न अपने कार्य की उपेक्षा करता है।
  5. कार्य विभाजन और विशेषीकरण का महत्व होने से औपचारिक संगठन में कार्यकुशलता और उत्पादन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है।
  6. साधनों का विवेकपूर्ण उपयोग, उद्देश्यों तथा कार्यों का तर्कसंगत निर्धारण और पद-सोपान क्रम के अनुसार आदेशात्मक व्यवस्था के कारण संगठन का नियंत्रण और प्रबन्ध सरल हो जाता है।
  7. औपचारिक संगठन में अपेक्षाकृत अधिक स्थायित्व और निरन्तरता होते हैं।

औपचारिक संगठन के दोष (Demerits)‌

  1. औपचारिकता औपचारिक संगठन का केन्द्रीय तत्त्व होने के कारण इसमें काम करने वाले सभी व्यक्ति यंत्रवत् कार्य करते हैं। उनकी नेतृत्व शक्ति या पहल करने की क्षमता नष्ट हो जाती है और मानवीय तत्व का महत्व नहीं रहता।
  2. नौकरशाही औपचारिक संगठन का महत्वपूर्ण पक्ष बन जाता है जिसके कारण इस संगठन में लाल फीताशाही तथा नौकरशाही के अन्य दोष उत्पन्न हो जाते हैं।
  3. औपचारिक संगठन में सत्ता और अधिकार का दुरुपयोग होने लगता है।
  4. आपैचारिक संगठन में काम करने वाले व्यक्ति निश्चित नियमों में इस प्रकार बंध कर काम करने लगते हैं कि सहानुभूति आदि की सहज मानवीय भावनाओं का कोई प्रभाव उन पर नहीं होता और उनके व्यवहार में प्रायः रूखापन आ जाता है। वे सामाजिक जीवन के अन्य पक्षों में भी औपचारिक हो जाते हैं।
समाजशास्त्र / Sociology – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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