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उत्तर भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषक संरचना के प्रमुख लक्षण | बिहार के किसी एक कृषक आन्दोलन की विवेचना | कृषक आन्दोलन के प्रमुख कारण

उत्तर भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषक संरचना के प्रमुख लक्षण | बिहार के किसी एक कृषक आन्दोलन की विवेचना | कृषक आन्दोलन के प्रमुख कारण

उत्तर भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषक संरचना के प्रमुख लक्षण

भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् उभरती हुई कृषक संरचना के निम्नलिखित प्रमुख लक्षण हैं-

  1. भारतीय कृषि रूपान्तरण की स्थिति में है जिसमें अर्द्ध-समान्तवादी व्यवस्था काफी सीमा तक समाप्त हो गई है।
  2. जीवन निर्वाह पर आधारित कृषि व्यवस्था व्यापार एवं बाजार पर आधारित कृषि व्यवस्था में परिवर्तित हो गई है। यह उत्पादन हेतु उन्नत तकनीकी के प्रयोग वाले क्षेत्रों में अधिक हुआ है।
  3. पिछले कुछ दशकों में उद्यमी कृषकों का एक ऐसा वर्ग विकति होता जा रहा है जो अपनी भूमि पर कृषि, किराये पर काम करने वाले श्रमिकों की सहायता से करता था तथा नवीन तकनीकी एवं उन्नत बीजों का प्रयोग करता है। इस वर्ग में अधितर वे परिवार सम्मिलित हैं जो भूतपूर्व अर्द्ध- सामन्तवादी भू-स्वामी, उधार देने वाले साहूकार एवं व्यापारी हैं। इनके द्वारा श्रमिकोंके साथ व्यवहार आज भी जातिगत प्रतिमानों द्वारा प्रभावित है।
  4. यद्यपि आज भी भूमि का केन्द्रीकरण उच्च एवं प्रभु जातियों के परिवारों के आस-पास ही है, फिर भी मध्यम एवं निम्न जातियों के छोटे भू-स्वामियों की संख्या बढ़ती जा रही है।
  5. कृषि श्रमिकों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। कम मजदूरी एवं बेराजगारी के कारण ऐसे अनेक श्रमिक एक गाँव से दूसरे गाँव की ओर तथा गाँवों से नगरों की ओर रोजगार की तलाश में प्रवसन करने लगे हैं। नये स्थानों पर इन श्रमिकों के सम्बन्ध जातीय आधार पर निर्धारित नहीं होते हैं।

स्पष्ट है कि समकालीन भारतीय सामाजिक संरचना में कृषक म्बन्धों के निर्धारण में जाति, वर्ग तथा भू-स्वामित्व का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। स्वतन्त्रता के बाद कृषि श्रमिकों की बढ़ती हुई संख्या एवं बिगड़ती हुई सामाजिक-आर्थिक स्थिति ने उन्हें अपने गाँव छोड़कर ऐसे क्षेत्रों की ओर जाने के लिये विवश कर दिया है जहाँ रोजगार के अवसर अपेक्षाकृत अधिक है।

बिहार के किसी एक कृषक आन्दोलन की विवेचना

बिहार प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार के आंदोलनों के लिए प्रसिद्ध रहा है। बिहार के किसान भी इस दृष्टि से पीछे नहीं रहे। बिहार में किसानों के अनेकों आन्दोलनों में बीसवीं सदी के दूसरे दशक में हुआ। चम्पादन आंदोलन प्रमुख है। यम्पारन आंदोलन की विशेषताओं को निम्नांकित प्रकार से विवेचित किया जा सकता है-

(1) चम्पारन की स्थिति एवं आरम्भ- चम्पारन बिहार के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में स्थित है। इस क्षेत्र में भड़का किसान आंदोलन यद्यपि मूलतः जमींदारी शोषण एवं नील की खेती करने वाले अंग्रेजों के विरुद्ध हुआ था तथापि इसकी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी इसकी विशेष भूमिका रही है। वास्तव में महात्मा गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका से लौटकर आने के पश्चात् भारत में चलाए जा रहे उनके सत्याग्रही आन्दोलनों से ब्रिटिश सत्ता को जो चुनौती पेश की जा रही थी उससे बिहार के असहाय किसानों ने अपने ऊपर हो रहे दोहरे अत्याचारों, जमींदारों एवं ब्रिटिश सरकार द्वारा किए जा रहे, के विरुद्ध उठ खड़े होने का साहस पैदा हुआ और गाँधी जी के नेतृत्व में किसानों ने अमानवीय अत्याचारों का मुकाबला किया।

(2) आंदोलन की कार्यवाही- गांधी जी ने चम्पारन के किसानों को संगठित किया और तिनकथिया पद्धति, जिसके अन्तर्गत किसानों की उपजाऊ भूमि उनसे हड़प ली गई, समाप्त कराने के लिए व्यापक पैमाने पर अहिंसात्मक संघर्ष का बिगुलबजा दिया, प्रारम्भ में सरकार ने गांधी जी को अपने राक्षसी सींग दिखाते हुए आंदोलन से दूर रखने की कोशिक की किन्तु बाद में गांधी जी के सत्य की शक्ति के आगे घुटने टेकते हुए सरकार ने जून 1917 में एक जाँच कमेटी का गठन किया और गांधी जी को भी इसका एक सदस्य बनाया।

(3) आंदोलन का परिणाम- गांधी जी के प्रयासों से एवं उनकी बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर आखिर ब्रिटिश्श सरकार ने तिनकथिया को समाप्त कर दिया और तत्कालीन लगान वृद्धि को भी समाप्त कर दिया। साथ ही नील की खेती कराने वाले अंग्रेज व्यापारियों पर भी कुछ हद तक लगाम कसी गई।

(4) आंदोलन का महत्त्व-चम्पारन के किसान आंदोलन ने न केल किसानों की ताकत का विदेशी शासकों को अहसास कराया तरन् इस आंदोलन की सफलता से गांधी जी के पैर भी भारत की आजादी के आंदोलन में जम गए। साथ ही यह भी सुनिश्चित हो गया कि अंग्रेजों की सत्ता का सत्याग्रह के माध्यम से चुनौती दी जाती सकती हैं

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बिहार का चम्पारन आन्दोलन एक ओर जहाँ भारतीय किसानों के आन्दोलन में अपना विशिष्ट स्थान रखता है वही इसका भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन भी अत्यधिक महत्त्व है।

कृषक आन्दोलन के प्रमुख कारण

भारत के अंग्रेजी शासन काल में अनेक आंदोलन हुए उन्हीं में कृषक आंदोलन प्रमुख थे। वास्तव में, अंग्रेजी भारत में विदेशी शासक थे जिनका एकमात्र उद्देश्य अपने समाज में फैली भौतिकवादिता की हवस के खोखलेपन को भारत की सम्पदा को लूट खसोटकर भरने का प्रयास करना और भारतीयों का अपमान कर यूरोपिय इहलौकिक संस्कृति से उपजी अपनी मनौवैज्ञानिक- सामाजिक अशांति को झूठी संतुष्टि प्रदान करना था। ब्रिटिश शासन काल में कोई भी भारतीय संतुष्ट नहीं था। विशेषतः कृषकों की स्थिति अत्यधिक दयनीय थी और अंग्रेजों की उपस्थिति एवं उनके काले-कानून भारतीय ग्राम देवताओं को आर्थिक सामाजिक स्तर पर अधिकाधिक विचलित किए हुए थै ऐसे में ब्रिटिश कालीन युग में भारतीय समाज में अनेक कृषक आंदोलन हुए जिसमें किसानों ने हिंसा और अहिंसा दोनों का भी सदुपयोग किया। भारत में कृषक आंदोलनों के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं-

(1) लगान की ऊँची दर- भारत एक कृषि प्रधान राष्ट्र रहा है ऐसे में अंग्रेज कृषकों के श्रम एवं उपज के अधिकतम दोहन से ही अपनी अमानवीय पूंजी का निर्माण कर सकते थे चालाक अंग्रेजों ने ऐसा किया भी और कृषकों को लगान की ऊँची दर से बंधुवा मजदूर बना दिया। गरीब किन्तु स्वाभिमानी भारतीय कृषक इस अमानवीयता के विरुद्ध अनेक स्थानों पर आंदेलित हो गए।

(2) कृषकों को भू-अधिकार से वंचित करना- अंग्रेजों ने न केवल लगान का बोझ किसानों के सिर रखा वरन् इससे भी एक हाथ आगे जमींदारी एवं महलवाड़ी जैसी लगान वसूल व्यवस्था के माध्यम से खेती करने वाले किसानों को उनके भू-अधिकारों से वंचित करने के प्रपंच रच दिए। भूमि किसान की माँ है और माँ से इस प्रकारअलग होना उसे बर्दाश्त नहीं हुआ। इसकी परिणिति उम्र कृषक आंदोलनों में हुई।

(3) अंग्रेजी के पिठुओं का शोषण- अंग्रेजों के साथ-साथ अंग्रेजों के बेदुम के चाटुकारों जैसे जमींदारों और महानी ने किसानों की बेबसी का फायदा उठाना शुरू कर दिया। जमीदारों ने जहाँलगानमें देरी पर किसानों के बच्चों तक के मुँह से भोजन खींच लिया यही सूदखोरों महाजनों ने ऊँची ब्याज की दरों एवं बहीखाते में हेराफेरी से किसानों का सर्वस्य हड़प लिया। इन शोषण ने भी किसानों को अपने हलों की फाल निकाल कर तांडव करने का मजबूर किया।

(4) अंग्रेजी लाभ के लिए नगदी फसलों की खेती- परम्परागत रूप से भारत के किसान अन्नदाता रहे हैं और उसन अपने और दूसरों के पेट भरने के लिए भरने के लिए अन्न की खेती में ही रुचि दिखाई है। किन्तु अंग्रेजों ने किसानों को इंग्लैण्ड में चली रही मिलों के लिए कपास, नील, चाय, रबर आदि कच्चेमाले की आपूर्ति का साधन बनाने का प्रयास प्रत्येक स्तर से लिया। इसके लिए उन्होंने न केवल काले कानून बनाए वरन् खेत-खेत इस प्रक्रिया में कुछ की आत्मा स्वतंत्र हो गई और कुछबच गए उन्होंने अंग्रेजों को नरक का द्वार दिखाने की सौगंध खा ली।

कृषक आन्दोलन के प्रमुख कारणों की उपरोक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि कृषक ब्रिटिशकाल में अपने शोषण के विरुद्ध गोलबंद एवं आन्दोलित हुए थे। बाद में कृषकों के इन्हीं स्वाभिमानी आंदोलन से प्रेरणा पाकर भारत में स्वतंत्रता संग्राम की लम्बी लड़ाई पड़ी गई।

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Pankaja Singh

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