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हिन्दी गद्य का उद्भव | हिन्दी गद्य का विकास | हिन्दी गद्य के विकास का संक्षिप्त परिचय

हिन्दी गद्य का उद्भव | हिन्दी गद्य का विकास | हिन्दी गद्य के विकास का संक्षिप्त परिचय

सृष्टि परिवर्तनशील है। मानव-जीवन क्षणिक है। यह काल के कुटिल हाथों की कठपुतली मात्र है। अतः समय की गति के साथ ही उसकी मान्यतायें, उसकी प्रवृत्तियाँ और उसके चिन्तन की दिशायें बदलती रहती हैं। काल की इसी गति में उत्थान-पतन की विभीषिकाएं झूलती रहती है। इसी में नवयुग करवटें लेता है, जागरण का दीप जगमगाता है। नई चेतना का संचार होता है एक नई ज्योति प्रसफुटित होती है, एक नये आलोक के दर्शन होते हैं और फिर भैरव का श्रृंङ्गीनाद होता है। दिशाएँ झनझना उठती हैं और बाद में एक नये युग का, नवीन विचारधाराओं का, नयी मान्यताओं का, साहित्य की नयी दिशाओं का जन्म होता है।

  1. हिन्दी गद्य का उद्भव-

इसी प्रकार की क्रान्ति हिन्दी साहित्य जगत् में भी सन् 1900 के लगभग हुई जिसने हिन्दी साहित्य को एक नयी दिशा दी, एक नया राजमार्ग प्रस्तुत किया-जिस पर चलकर हिन्दी साहित्य की पूर्ण अभिवृद्धि हुई नयामार्ग था ‘गद्य’वा, ‘आधुनिक पद्य’ का प्रोज का। यो तो गद्य ग्रन्थ निर्माण कार्य सदासुखलाल, लल्लनलाल, इन्शाअल्ला खाँ तथा सदल मिश्र आदि के समय से ही प्रारम्भ हो गया था परन्तु उस समय तक न तो उनमें भाषा की एकरूपता आ पायी थी और न उसकी रचना का क्रम ही अखण्ड रूप से चल सका था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, सम्वत् 1860 के लगभग हिन्दी गद्य का प्रवर्तन तो हुआ पर उसके साहित्य की अखण्ड परम्परा इस समय में नहीं चली। इधर दो-चार पुस्तके अनगढ़ भाषा में लिखी गई हों पर साहित्य के योग्य स्वच्छ, सुव्यवस्थित भाषा में लिखी कोई पुस्तक सं. 1915 के पूर्व की नहीं मिलती।’

  1. हिन्दी गद्य का विकास-

इससे स्पष्ट है कि हिन्दी गद्य का क्रमबद्ध इतिहास, उन्नीसवीं सदी से ही प्रारम्भ होता है। डॉ. बलवन्त लक्ष्मण कोतमिरे ने हिन्दी गद्य साहित्य के क्रमिक विकास को निम्न छ: कालों में विभक्त किया है जो निम्न है-

1. आदिकाल ईसा की चौदहवीं शती से सन् 1800 ई0 तक
2. आरम्भिक काल सन् 1800 ई.से सन् 1873 ई. तक
3प्रयोग-काल सन् 1873 ई. से सन् 1900 ई. तक
4. निर्माण-काल सन् 1900 ई. से सन् 1920 ई. तक
5. विकास-काल सन् 1920 ई. से सन् 1936 ई. तक
6. विस्तार-काल सन् 1936 ई.से सन् 1950 ई. तक

(अ) आदिकाल- हिन्दी गद्य साहित्य के इस युग में हिन्दी गद्य के प्राचीन रूप ही इधर-उधर प्राप्त होते हैं। उत्तर भारत में ब्रजभाषा गद्य के प्रचुर उदाहरण मिलते हैं। परन्तु राजस्थान और दक्षिण भारत में हिन्दी गद्य के प्रारम्भिक रूप के दर्शन होते हैं। मैथिली साहित्य में ज्योतिरीश्वर का ‘वर्णरत्नाकर’ ग्रन्थ सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। ब्रजभाषा गद्य का प्राचीनतम रूप 1457 तक ही प्राप्त होता है। सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम कुछ दशकों में बल्लभ सम्प्रदाय के साहित्यिकों ने अपने वर्ग के आचार्यों और महाप्रभुओं के उपदेश और उनका जीवन-चरित्र ब्रजभाषा गद्य में ही प्रस्तुत किया है जो अपने समीचीन रूप में है। इस प्रकार इस युग में ब्रजभाषा गद्य में टीकाओं और अनूदित ग्रन्थों का बाहुल्य रहा। इसी ब्रजभाषा के गद्य के साथ खड़ी बोली गद्य का भी उद्भव इसी युग में हो गया था परन्तु उसके उद्भव के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं। जार्ज पियर्सन आर. डब्ल्यू, फ्रेजर आदि विद्वानों के अनुसार खड़ी बोली गद्य का बहिष्कार लल्लूलाल और सदल मिश्र द्वारा सर्वप्रथम गिलक्राइस्ट की अध्यक्षता में हुआ हैं। परन्तु आचार्य शुक्ल इसे नहीं मानते हैं वे खड़ी बोली गद्य का प्रारम्भ अकबर के समकालीन कवि ‘गंग द्वारा लिखित ‘चन्दछन्द बरनन की महिमा मानते हैं। डॉ. ताराचन्द्र ने इसी मत का समर्थन किया है। उन्होंने ‘दो सौ पुरानी खड़ी बोली के पत्रों के नमूने लेख के अन्तर्गत निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले-(1) हिन्दी उन दिनों राजकीय औरी अन्तरप्रान्तीय व्यवहार की भाषा थी। उसमें पत्र लिखने का ढंग सिखाया जाता था। (2) हिन्दुस्तानी नाम अंग्रेजों का दिया हुआ नहीं है। उसके उर्दू अर्थात् अरबी और फारसी से प्रभावित भाषा होने का बोध होता है। (3) उन दिनों विशुद्ध संस्कृत शैली में लिखे हुए पत्रों अरबी और फारसी के व्यावहारिक शब्द निःसंकोच ग्रहण किये जाते थे। (4) यह कहना की खड़ी बोली लल्लूलाल जी आदि ने अंग्रेजी की प्रेरणा से लिखा था, एकदम गलत है। बहुत पहले से खड़ी बोली में आज की हिन्दी के समान गद्य लिखा जाता था। वह व्यवहार की भाषा थी और विशुद्ध संस्कृत शैली में उसमें पत्र लिखे जाते थे। (विशाल भारत, अप्रैल 1940, पू. 367)

इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजों के प्रभाव से एकदम अलग फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के पहले खड़ी बोली का गद्य प्रचलित था। उदाहरण के लिए पटियाला के रामप्रसाद निरंजनी-कृत ‘योगवशिष्ठ और जन प्रहलाद, नृसिंह तापनि उपनिषद’ को लिया जा सकता है। आगे चलकर सदासुखलाल जी भी इसी परम्परा में आते है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में ‘योग वशिष्ठ’ को ही परिमार्जित खड़ी बोली गद्य की प्रथम पुस्तक कहा है।

इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि अंग्रेजों द्वारा हिन्दी गद्य का आविष्कार मानना एक भ्रान्ति है, एक मिथ्या कल्पना है।

(ब) आरम्भिक काल- यह काल कई दृष्टियो से उल्लेखनीय है। क्योंकि इस काल के प्रारम्भ में ही ईशा अल्ला खाँ की ‘रानी केतकी की कहानी’ रची गई। इसमें गद्य साहित्य में लौकिक श्रृंगारमय परम्परा का सूत्रपात हुआ। यह रचना शैली और भावों के विचार से पूर्ण हैं। इस काल में कई संस्थाओं की स्थापना हुई और जिन्होंने खड़ी बोली गद्य-साहित्य की विकसित किया। ये संस्थाएं निम्नलिखित हैं-

  1. फोर्ट विलियम कालेज- इसकी स्थापना लार्ड वेलेजली ने कलकत्ते में की थी। इसकी स्थापना राजनीतिक व शासन सम्बन्धी सुधारों को सामने रखकर की थी। हिन्दी गद्य के निर्माण में इसका भी योगदान रहा है। सम्वत् 1860 में यहां के प्राध्यापक डॉ0 जान बौर्थविक गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य की पुस्तकें तैयार करने की व्यवस्था की। इसी कालेज के लल्लूलाल जी ने प्रेम सागर’, ‘सिंहासन बत्तीसी’ ‘सभा विलास’ आदि नयी पुस्तकें लिखी और सदल मिश्र ने ‘नाचिकेतोपाख्यान’ लिखा। ‘प्रेमसागर’ और ‘नाचिकेतोपाख्यान’ का हिन्दी गद्य के विकास में उल्लेखनीय स्थान है। इस प्रकार हिन्दी गद्य को विकसित करने का श्रेय श्री. ईशा अल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र को है।
  2. ईसाई मिशनरियाँ- इन मिशनरियों द्वारा भी हिन्दी गद्य का विकास हुआ। यद्यपि इन मिशनरियों का उद्देश्य था अपने धर्म का प्रसार करना। इसी के लिए उन्होंने पुस्तकें प्रकाशित की जो गद्य के विकास में सहायक हुई। उन्होंने प्रचारार्थ बाइबिल का अनुवाद कराया, पाठय-पुस्तकें लिखवाई’ और अन्य प्रचार साहित्य भी खड़ी बोली गद्य में तैयार किया। इन अनुवादों में उन्होंने मुन्शी सदासुखलाल और लल्लूलाल की भाषा को ही प्रश्रय दिया ताकि सामान्य जनता इसे सरलता से समझ सके।
  3. ब्रह्म समाज और आर्य समाज- ईसाई प्रचारक बहुत दिनों तक अपना कार्य न कर सके। इनके विरोध में कुछ समाज सुधार आन्दोलन का जन्म हुआ। इन आन्दोलनों से ब्रह्म समाज और आर्य समाज ने हिन्दी गद्य को सबसे बड़ा बल दिया। ब्रह्म समाज के प्रवर्तक राजाराम मोहनराय थे और आर्य समाज के महर्षि दयानन्द। इन लोगों के प्रचार का माध्यम हिन्दी थी। यहां तक कि आर्य समाज के ग्रन्थों की रचना भी हिन्दी में हुई। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, संस्कार विधि तथा वेदांग प्रकाश उनके ग्रन्थ हैं। राजाराम मोहन राय ने बंगाली होते हुए भी हिन्दी का समर्थन किया और 1881 में ‘बंगदूत’ पत्र निकाला। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी को आर्यभाषा घोषित किया और धर्म-प्रचार के साथ हिन्दी का भी प्रचार किया।
  4. शिक्षा संस्थाओं का योग- सन् 1813 में भारतवासियों को शिक्षा देने की योजना बनायी गयी। इसके परिणामस्वरूप देश में शिक्षा-संस्थाओं और बुक सोसाइटियों की स्थापना हुई। पाठ्य- पुस्तकों की रचना हुई जिनसे भाषा में प्रौढ़ता आयी। उसमें निखार आया। 1823 में आगरा कालेज की स्थापना हुई। बुक सोसाइटियों में कलकत्ता बुक सोसाइटी और आगरा बुक सोसायटी प्रमुख हैं।
  5. पत्रों का योग- खड़ी बोली गद्य के विकास में समाचार पत्रों ने भी अधिक योगदान दिया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के तृतीय, चतुर्थ और पंचम दशकों में कई समाचार-पत्रों का प्रकाशन हुआ। उदाहरण के लिए पं. युगल किशोर का ‘उदन्त मार्तण्ड’ जो 30 मई 1826 को प्रकाशित हुआ था, यह हिन्दी का प्रथम पत्र था। इसके पश्चात् सन् 1829 में राजाराममोहन राय का ‘बंगदूत’ सन् 1834 में ‘प्रजामित्र’, सन् 1844 में ‘बनारस अखबार’, सन् 1854 में तारामोहन सेन द्वारा प्रकाशित ‘सुधाकर’, सन् 1854 में समाचार सुधा वर्णन सन् 1855 में प्रजा हितैषी सन् 1856 में ‘बुद्धि प्रकाश’ आदि पत्र प्रकाशित हुए। इन पत्रों की भाषा खड़ी बोली गद्य ही थी। इन पत्रों में सुधाकर और ‘बुद्धि प्रकाश प्रमुख थे। इसकी भाषा ठेठ, पौढ़ और परिमार्जित रहती थी। इन पत्रों ने हिन्दी गद्य के प्रचार और प्रसार में बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया।

‘ऐसी शुद्धि चाहने वालों को हम इस बात पर यकीन दिला सकते है कि जब तक कचहरियों में फारसी हरफ जारी हैं इस देश में संस्कृत शब्दों को जारी करने की कोशिश बेकार होगी।’ इसी कारण उन्होंने उर्दू, अरबी फारसी मिश्रित ‘खास पसन्द’ ‘भाषा का समर्थन किया।

राजा लक्ष्मण सिंह ने इसका विरोध किया। उन्होंने ठेठ, सरल और संस्कृत के रससिद्ध शब्दों से युक्त भाषा का प्रचार किया। उसकी रचनाओं में एक भी अरबी-फारसी का शब्द नहीं आया है। हिन्दी-उर्दू के इसी विरोध के कारण भी नवीनचन्द राय ने पंजाब में ‘ज्ञान प्रदायनी’ पत्रिका निकाली और पं. श्रद्धाराय फिल्लौरी ने घूम-घूमकर हिन्दी का प्रचार किया। फ्रेडरिक बिल्काट नामक अंग्रेज ने भी इसी समय पर हिन्दी की सेवा की और समर्थन किया।

(स) प्रयोग काल- यह काल साहित्य विधाओं के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि इसी काल में भारतेन्दु बाबू की मैगजीन, साहित्य की विभिन्न विधाओं का सूत्रपात करती हुई प्रकाश में आयी थी। इसके मुखपृष्ठ पर स्पष्ट शब्दों में लिखा था-

“Harish Chandra’s Mazazine a monthly journal published in connection with the kavivivachan Sudha containing articles on literary, scientific, political and religious subject, antiquities reviews dramas, history novels, political, relations gossips, humours and Wit.”.

इससे स्पष्ट है कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र इस पत्रिका के माध्यम से साहित्य की विभित्र विधाओं का प्रचलन करना चाहते थे। उन्होंने सर्वप्रथम साहित्य के इन विभिन्न रूपों पर लेखनी उठाई अतः उन्हें हिन्दी गद्य का जन्मदाता कहा जा सकता है। उन्होंने समय के अनुसार हिन्दी और उर्दू के माध्यम के रूप को अपनाया। इसलिए इनकी भाषा में अरबी, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग हुआ है। पर वे शब्द इतने प्रचलित हैं कि इनका प्रयोग खटकता नहीं। इन्होंने संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों का भी प्रयोग किया है। दोनों शैलियों के सामंजस्य से उनकी भाषा में व्यावहारिकता, सजीवता, सरलता और नवीनता आ गयी है। इस प्रकार उन्होंने एक नवीन युग की रचना की और साहित्यिकों का एक मण्डल तैयार किया। इस मण्डल में गद्यकारों की उपमा अधिक थी। परन्तु उनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-(1) पं. बालकृष्ण भट्ट (2) पं. प्रतापनारायण मित्र, (3) पं. बद्री नारायण चौधरी, (4) ठाकुर जगमोहन सिंह (5) श्रीनिवासदास, (6) पं. श्री रामभट्ट (7) राधाचरण गोस्वामी, (8) राधाकृष्ण दास, (9) किशोरीलाल गोस्वामी, (10) केशवराम भट्ट, (11) कार्तिक प्रसाद खत्री, (12) अम्बिकादत्त व्यास, (13) गोविन्दनारायण मिश्र, (14) पं. बालमुकुन्द गुप्त आदि।

(द) निर्माण काल- यद्यपि अब तक खड़ी बोली गद्य के निर्माण की अखण्ड धारा प्रवाहित हो चुकी थी, फिर भी इसमें व्याकरण सम्बन्धी अनेक त्रुटियाँ थीं। अब तक विरामचिन्हों का समुचित प्रयोग न हो सका। इससे सुधार अपेक्षित था। इस कार्य को श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के माध्यम से किया। वे 1903 में इसके सम्पादक नियुक्त हुए थे। इन्होंने इसके माध्यम से भाषा की अस्थिरता, विराम चिन्हों के प्रयोग और पैराबद्ध करने की आवश्यकता पर बल दिया। अश्लील शब्दों के प्रयोगों का विरोध किया और साथ ही साथ भाषा को सरस, सरल और स्पष्ट बनाने पर जोर दिया। उन्होंने भाषा को व्याकरण सम्मत बनाकर उसमें एकरूपता लाने का प्रयास किया। उसका आदर्श उपस्थित किया। उन्होंने अनेक लेखकों तथा कवियों का पथ-प्रदर्शन भी कियां अतः निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस काल में खड़ी बोली गद्य का स्वरूप स्थिर हुआ और व्याकरण के शुद्ध प्रयोगों, विरामचिन्हों के उचित व्यवहार व विभिन्न शैलियों के प्रादुर्भाव से हिन्दी गद्य का एक मानदण्ड स्थापित हो सका। इस युग के प्रमुख कवि निम्नलिखित हैं- (1) श्री जयशंकर प्रसाद (2) पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, (3) प्रेमचन्द, (4) चतुरसेन शास्त्री , (5) मिश्रबन्धु, (6) डॉ0 श्यामसुन्दर दास, (7) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल; (8) पद्मसिंह शर्मा, (9) कृष्णबिहारी मिश्र (10) अध्यापक पूर्णसिंह, (11) देवकीनन्दन खत्री, (12) हरिऔध, (13) माधवराव सप्रे, (14) पं. माधव प्रसाद मिश्र आदि।

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Pankaja Singh

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