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प्रयोगवाद | प्रयोगवादः उद्भव और विकास | प्रयोगवाद की परिभाषा | प्रयोगवाद का नामकरण | प्रयोगवाद के मूल तत्व | प्रयोगवादी काव्य की प्रवृत्तियाँ

प्रयोगवाद | प्रयोगवादः उद्भव और विकास | प्रयोगवाद की परिभाषा | प्रयोगवाद का नामकरण | प्रयोगवाद के मूल तत्व | प्रयोगवादी काव्य की प्रवृत्तियाँ

प्रयोगवाद (प्रस्तावना)

आधुनिक हिन्दी कविता में सम्प्रति एक नये वाद का स्वर गूंजने लगा है और यह गूंज है प्रयोगवाद की। प्रयोगवादी रचनाओं में आत्मपरक भावनाओं और परपरक विचारों के सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। शैली नूतनता, नूतन प्रतीक, कल्पनाएँ, प्रचलित पद तथा नवीन द्वन्द्वों का सृजन इस काव्य पद्धति की विशेषताएँ हैं।

आविर्भाव के कारण

डॉ. विजयमोहन शर्मा के अनुसार इस वाद का जन्म छायावादी युग की अतिभाव-विभोरता और प्रगतिवादी काव्य की शुष्क बौद्धिकता की प्रतिक्रिया जान पड़ती है। प्रगतिवाद ने हिन्दी-साहित्य को कोई ऐसी चीज प्रदान नहीं की जिसका प्रभाव स्थायी हो सके।’

‘हिन्दी कवि प्रयोगवाद के राजनीतिक बंधनों से मुक्त होने के लिए छटपटा उठा है। इसलिए वह अपने ढंग से नये प्रयोग करना चाहता है और अपने को गौरवान्वित करता है। उसे हृदय-वीणा की झंकार जितनी बासी और बेसुरी मालूम होती है उतनी ही फावड़े की खन खनाहट भी कानों को विदीर्ण करने वाली प्रतीत होने लगती है। श्रीकान्त वर्मा को भी यह मान्यता है कि प्रथम तो छायावाद ने अपने शब्दाडम्बर में बहुत से शब्दों और बिम्बों के गतिशील तत्वों को नष्ट कर दिया था दूसरे प्रगतिवाद ने सामाजिकता के नाम पर विभिन्न भावस्तर एवं शब्द संस्कारों को अभिधत्मक बना दिया था। ऐसी स्थिति में नये भावबोध को व्यक्त करने के लिए न तो शब्दों में सामर्थ्य थी और न परम्परा से मिली हुई शैली में। परिणामस्वरूप उन कवियों को, जो इनसे पृथक थे, सर्वथा नया स्तर और नये माध्यमों का प्रयोग करना पड़ा, ऐसा इसलिए और भी करना पड़ा क्योंकि भावस्तर की नयी अनुभूतियाँ विषय और सन्दर्भ में इन दोनों से सर्वत्र भिन्न थी।’ इस प्रकार श्री वर्मा और श्री शर्मा के अनुसार प्रयोगवाद प्रगतिवाद और छायावाद की प्रक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुआ।

प्रयोगवाद का नामकरण-

प्रयोग शब्द अंग्रेजी के ‘एक्सपेरीमेन्ट’ का पर्याय है। एक विद्वान के अनुसार वर्तमान युग विज्ञान युग है और नयी दृष्टि लेकर आया है जिसका नाम है प्रयोग दृष्टि, और कार्य है बौद्धिक विश्लेषण। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक युक्ति और तर्क द्वारा पदार्थों का विश्लेषण करता है, उसी प्रकार प्रयोगवाद मानव के शरीर और मस्तिष्क तत्व का विश्लेषण करता है। मानसिक भावनाओं का विश्लेषण करने के लिए वह अनेक प्रयोग करता है और उसे कविता में उतारता है। नवीन प्रयोगों के पक्षपाती प्रयोगशील कवि विभिन्न प्रकार से प्रयोग करके कविता का जो मार्ग निश्चित करना चाहते हैं। इस प्रकार से ‘प्रयोगवाद”शब्द नयी कविता के लिए रूढ़ हो गया है।

प्रयोगवाद का स्वरूप-

अज्ञेयजी ने नवीन परिस्थितियों के साथ नये प्रकार के रागात्मक सम्बन्धों को प्रयोगवादी कविता का लक्षण माना है और साथ ही शैली के साथ विषय या वस्तु की नवीनता का सम्बन्ध भी प्रयोगशील काव्य से जोड़ा है। उनके अनुसार प्रयोगवादी कविता का लक्ष्य कविता के लक्ष्य से भिन्न नहीं है। वह प्रयोग को साध्य न मानकर साधना मानते हैं क्योंकि उनके विचार से कविता का साध्य व्यक्ति के सत्य का साधारणीकरण कर आनन्द की सृष्टि करना है। प्रयोगवादी कविता के स्वरूप की अवधारणा करते हुए डॉ. शर्मा लिखते हैं कि ‘प्रयोगवाद’ कविता की एक नूतन शैली विशेष है जो कवि द्वारा अनुभूत सत्य को पाठक तक पहुंचाने के लिए विभिन्न प्रयोगों को आत्मसात् करती है। प्रयोगवाद में कवि का ‘वस्तु के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं होता।’ प्रयोगवाद एक वर्ग विशेष का साहित्य है, जिसका तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आदि समस्याओं से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रहता पर जिसमें केवल शैलीगत नवीन प्रयोगों को अधिक महत्व दिया जाता है।’ संक्षेप में प्रयोगवादी कविता का यही स्वरूप है।

प्रयोगवाद के मूल तत्व-

सामान्यतः प्रयोगवाद को छायावाद और प्रगतिवादी की प्रतिक्रिया माना जाता है। प्रयोगवादी काव्य प्रारम्भ से ही नयी वस्तु, भावना और नूतन शिल्प का आकांक्षी था। यहाँ यह ध्यातव्य है कि नयी कविता इस प्रयोगवाद का विकसित रूप है। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने प्रयोगवाद के निम्नांकित चार मूल तत्व माने हैं-

(क) नवीनता- अर्थात् प्रयोगवादी कविता में नवीन विषयों का वर्णन नवीन शैली में किया जाता है।

(ख) मुक्त यथार्थवाद- अब तक जिस अश्लीलता, नग्नता और कामुकता का काव्य में बहिष्कार किया जाता था, उसका चित्रण नयी कविता में पूर्ण सुरुचि के साथ किया जाता है।

(ग) बौद्धिकता- नया कवि भावात्मकता की अपेक्षा बौद्धिकता को अधिक महत्व देता है।

प्रयोगवादः उद्भव और विकास

इसके आविर्भाव के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं। डॉ. नामवर सिंह प्रयोगवाद का आरम्भ सन् 1940 ई. मानते हैं। किन्तु डॉ. देवीशंकर अवस्थी प्रयोगवादी कविता के बीच छायावादोत्तर काव्य पाते हैं। किनतु यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो इस प्रकार की कविता का प्रारम्भ सन् 1943 ई. में अज्ञेय द्वारा प्रकाशित ‘तार सप्तक’ नामक कात्य-संग्रह से होता है। इस प्रकार अज्ञेय ही प्रयोगवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। इस तार सप्तक में गजानन माधव मुक्तिबोध, नेमिचन्द जैन, भारती भूषण, अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और अज्ञेय आदि साथ कवियों को स्थान मिला था।

इसके पश्चात् इस कविता-पद्धति का विकास क्रमशः होता गया। फलतः 1951 में अज्ञेय ने द्वितीय तार सप्तक प्रकाशित कराया। इनमें पहले से भिन्न कवियों को स्थान मिला। इस सप्तक के कवि धर्मवीर भारत, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह, हरिनारयण व्यास, शकुन्तला माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र, नरेशकुमार मेहता थे। प्रयोगवादी कवियों के विकास के लिए अज्ञेय ने ‘प्रतीक पत्रिका का सम्पादन भी किया। इसके अतिरिक्त ‘कल्पना’ ‘पाटल’ ‘अजन्ता’ आदि में भी सुन्दर प्रयोगवादी कविताएँ प्रकाशित हो रही हैं। सन् 1954 ई. में डॉ. जगदीश गुप्त और डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के सम्पादन में प्रयोगवादी कविताओं का अर्द्धवार्षिक संग्रह नयी कविता के नाम से प्रकाशित हुआ। सन् 1957 ई0 में अज्ञेय के सम्पादकत्त्व में तीसरा ‘तार सप्तक’ प्रकाशित हुआ। जिसमें नयी कविता को पर्याप्त बल मिला। सम्प्रति अजितकुमार, सतीष चौबे, दुष्यन्त कुमार सूर्यप्रताप सिंह, राजेन्द्र यादव आदि प्रयोगवादी काव्य संवर्धन में लगे हुए हैं।

प्रयोगवादी काव्य की प्रवृत्तियाँ

हिन्दी साहित्य के विभिन्न वादों के समान ही इस वाद की भी अपनी कुछ निजी प्रवृत्तियाँ हैं। समीक्षकों के अनुसार इस वाद की कुछ प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-

(अ) घोर वैयक्तिक- नयी प्रयोगवादी कविता का मूल उद्देश्य वैयक्तिक मान्यताओं, अनुभूतियों एवं विचारों की अभिव्यक्ति करना है। यह कविता लोकमंगल की भावना से विमुख है अर्थात् पूर्णतः समाज निरपेक्ष होकर केवल निजी अनुभूतियों तक ही सीमित है। उदाहरण के लिए श्री राजेन्द्र किशोर की निम्नपंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

बीसवीं सदी जटिल समस्याओं ने

मुझे उत्पन्न किया

अकाल भृत्यों के परिवार में

मेरा लालन-पालन किया

शत्-शत् वैयक्तिक पारिवारिक सामाजिक

ग्रन्थियों से मेरा निर्माण हुआ।

(ब) अति यथार्थ चित्रण- प्रयोगवादी कविता में यथार्थ चित्रण की प्रधानता है। इस प्रकार की कविता में यत्र-तत्र दूषित मनोवृत्तियों का चित्रण भी अपने चरमोत्कर्ष में मिलता है। इसका मूल कारण यह है कि प्रयोगवादी कवि अपनी आन्तरिक कुण्ठाओं एवं दमित वासनाओं को प्रकाशन करना चाहता है। इस प्रकार की कविता से यौन सम्बन्धी प्रतीक अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इस प्रसंग में अज्ञेय की निम्न पंक्तियाँ दर्शनीय हैं-

घिर आये नभ उमड़ आये मेघ काले

भूमि के कम्पित उरोजों पर झुका

विशद स्वाँसा रहित चिन्तातुर

छा गया इन्द्र का नली वक्ष

(ग) निराशावाद- इस वाद की पंक्तियों की दृष्टि प्रायः वर्तमान तक सीमित रहती हैं इसलिए इस वाद के कवियों को निराशावादी या क्षणवादी कहा जाता है। बानगी के तौर पर मुद्रारक्षस की पंक्तियाँ ली जा सकती हैं-

आओ हम उस अतीत को भूलें

और आज की अपनी रग-रग के अन्तर को छू लें।

छू लें इसी क्षण क्योंकि

कल वे नहीं रहे

क्योंकि हम कल भी नहीं रहेंगे

(घ) विद्रोह का प्राधान्य-प्रयोगवादी कवि की कविता में प्रायः विद्रोह की भावना ही मुखरित हुई है। इस वाद कवियों ने रुढ़ियों एवं परम्पराओं का, धर्म एवं समाज के नियमों का तिरस्कार किया है। इतना ही नहीं उन्होंने प्राचीन साहित्यिक मान्यताओं को झुठलाया हैं। इस प्रकार इन कवियों ने एक ओर तो आततायी सामाजिक परिवेश को ठुकराया है तो दूसरी ओर नियतिनियन्ता को भी चुनौती दी है।

ठहर-ठहर आततायी जरा सुन ले।

मेरे कुछ वीर्य की पुकार आज सुन जा॥

इसी प्रकार धार्मिक कृत्यों एवं भगवान् की सत्ता को ललकारते हुए श्री भारत भूषण अग्रवाल लिखते हैं-

मैं छोड़कर पूजा

क्योंकि पूजा है पराजय का विनत स्वीकार

बाँधकर मुट्ठी तुझे ललकारता हूं

सुन रही है तू?

मैं खड़ा तुमको यहाँ ललकारता हूँ।

निष्कर्ष :

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रयोगवाद कविता, सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं से बहुत दूर है। राजनीतिक उत्तरदायित्व की गरिमा भी इसमें नहीं मिलती थी। इस वाद के कवियों ने व्यावहारिक तथ्यों का गला घोंट दिया। इतना ही नहीं नैतिकता एवं सैद्धान्तिकता को भी तिलांजलि दे दी। इस प्रकार कविता में जहाँ एक ओर वैयक्तिकता की प्रधानता है वहाँ दूसरी ओर बौद्धिकता का नंगा नाच देखने को मिलता है। इस प्रकार की कविता की भावव्यंजना अत्यधिक विरल है और साथ ही इसमें क्रियाशीलता का अभाव है। इसका जीवन के प्रति कोई रचनात्मक दृष्टिकोण भी नहीं है। अतः सुमित्रानन्दन पन्त के शब्दों में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार प्रगतिवादी काव्यधारा मार्क्सवाद और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नाम पर अनेक प्रकार से सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक कुतर्कों में कसकर एक कुरूप सामूहिकता की ओर बढ़ी, उसी प्रकार प्रयोगवाद की निर्झरिणी कल-कल, छल-छल करती हुई फ्रायडवाद से प्रभावित होकर स्वप्निल, फेनिल, स्वर संगीतहीन भावनाओं की लहरियों से मुखरत, उपचेतन, अवचेतन की रुद-कुद्ध ग्रन्थियों को मुक्त करती हुई, दमित कुण्ठित आकांक्षाओं को वाणी देती हुई लोकचेतना के स्रोत में नदी के द्वीप की तरह प्रकट हो पृथक, अस्तित्व पर अड़ गयी। अपनी रागात्मक विकृतियों के कारण निम्न स्तर पर इसकी सौन्दर्य भावना केचुओं, मेढकों के उपमान के रूप में सरीसूप के जगत से अनुप्राणित होने लगी।

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Pankaja Singh

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