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हिन्दी कहानी का उद्भव एवं विकास | हिन्दी कथा संसार में प्रेमचन्द का योगदान | हिन्दी कहानियों का वर्गीकरण

हिन्दी कहानी का उद्भव एवं विकास | हिन्दी कथा संसार में प्रेमचन्द का योगदान | हिन्दी कहानियों का वर्गीकरण

हिन्दी कहानी का उद्भव एवं विकास

कोई भी साहित्यिक विधा अकस्मात् प्रादुर्भूत नहीं होती वरन् शनैः शनैः अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित होती है। अविर्भाव की ही भांति उनके विकास की गति भी धीमी होती है। विकास की अपनी प्रक्रिया में उसे कई स्तरों से गुजरना भी पड़ता है। हिन्दी कहानी उसका अपवाद नहीं। उसके उद्भव एवं विकास की कहानी भी कुछ इसी प्रकार की है।

यो तो भारतवर्ष में बहुत समय पहले से कहानियों का प्रचलन था। बग्वेद,उपनिषदों, पुराणों आदि में कहानियों के रूप मिलते हैं इसके पश्चात् पंचतन्त्र और कथासरित्सागर की लोक- कथाएँ कहानी परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रही। आगे चलकर इन्हीं लघु कथाओं ने प्रेमाख्यानक काव्यों का रूप ले लिया। इतना होने पर भी आज की कहानी उन प्राचीन कहानियों से सर्वथा भिन्न है। आज की कहानी युग की भावनाओं, आदर्शों और रचियों को लेकर आगे बढ़ रही है। उसने पाश्चात्य ‘टेकनिक’ को भी अपना लिया है। जबकि प्राचीन कहानी अलौकिक,अतिभौतिक आदि उपमानों का पुज्ज रहती थी। उन कहानियों का एकमात्र लक्ष्य, उपदेश रहता था। परन्तु आधुनिक कहानी जनतान्त्रिक एवं मनोवैज्ञानिक है।

हिन्दी की पहली कहानी-

सन् 1900 ई. में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन हिन्दी के कहानी साहित्य में एक अपूर्व घटना है।’सरस्वती’ के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी में मौलिक कहानियों का श्रीगणेश हुआ। अंग्रेजी बंगला, जर्मन और फ्रेंच से बहुत सी कहानियाँ अनूदित होकर प्रकाशित हुई। संस्कृत के नाटकों को भी कहानी रूप में परिवर्तित करके प्रस्तुत किया गया। अंग्रेजी से अनुवादित कहानियों में ‘भूतों की हवेली’ अधिक प्रसिद्ध हुई। इन्हीं अनुवादित या रूपान्तरित रचनाओं ने लोगों के मन में कहानी के प्रति आकर्षण उत्पन्न किया तथा भविष्य में आने वाली मौलिक कहानियों की पृष्ठभूमि तैयार किया। सन् 1900 में ‘सरस्वती’ के जून अंक में किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इन्दुमती’ प्रकाशित हुई। जिसे हिन्दी की प्रथम आधुनिक कहानी होने का श्रेय है। इसके पश्चात् 1900 ई. में एक बंग महिला की ‘दुलाई वाली’ कहानी सरस्वती में प्रकाशित हुई। इसी समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय और सन् 1910 ई. में मैथिलीशरण गुप्त की ‘निन्यानवे’ का फेर छपी। इसी समय वृन्दावनलाल वर्मा ने ‘राखीबन्द भाई’ नामक ऐतिहासिक कहानी लिखी। डॉ0 भटनागर ने 1911 में ‘इन्दु’ में प्रकाशित प्रसाद जी की ‘ग्राम कहानी को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी माना है कुछ भी हो इतना तो निर्विवाद है कि भारतेन्दु युग में हिन्दी कहानी साहित्य का केवल प्रारम्भ ही हो सका परन्तु इसके वास्तविक स्वरूप का गठन और मौलिकता वर्तमान काल में ही आयी है।

विकास

कहानी शास्त्र के विकास की दृष्टि से वर्तमान काल को तीन खण्डों में विभक्त कर सकते हैं-

(क) प्रथम उत्थान काल- 1911 ई. ‘इन्दु’ में प्रसाद जी की ‘ग्राम’ कहानी के बाद हिन्दी में मौलिक कहानियों का लेखन और प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। प्रसाद जी ने सामाजिक, धार्मिक ऐतिहासिक और राजनैतिक कहानियाँ लिखीं। छाया, आँधी, बिसाती, मधुर, पुरस्कार आदि प्रसाद जी की कहानियाँ हैं। इस काल के अन्य कहानीकारों में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, जी0 पी0 श्रीवास्तव, कौशिक, ज्वालदत्त शर्मा, राधिकारमण सिंह और रायकृष्ण दास आदि हैं ताई कौशिक जी की, राधिकारमण सिंह की ‘कानों में कंगना’, गुलेरी जी की ‘उसने कहा था’ इस काल की प्रतिनिधि कहानियाँ हैं। इस काल में आदर्शवादी और यथार्थवादी कहानियाँ लिखी गयी। गुलेरी जी के कहानी के सम्बन्ध में शुक्ल जी ने लिखा है ‘इसमें यथार्थवाद के बीच सुरुनि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यन्त निपुणता के साथ सम्पुटित है।- इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं। पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।’

(ख) द्वितीय उत्थान काल-प्रेमचन्द्र के आगमन से कहानी साहित्य के द्वितीय उत्थान का प्रारम्भ होता है। इनके आगमन से बिलासी, रहस्याताक, तिलस्मी कहानियों का प्रकाशन बन्द हो गया। मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं पर कहानियाँ लिखी जाने लगी। प्रेमचन्द ने मनोवैज्ञानिक आधार पर सामाजिक जीवन की समस्याओं को अपनी कहानियों में प्रथम बार व्यक्त किया। उनकी कहानियों में धनी, गरीबो, कृषकों, मजदूरी और दलितों की समस्याओं का चित्रण है।

इस काल के अन्य कहानीकारों में 10 सुदर्शन, इलाचन्द जोशी, चण्डी प्रसाद हृदयेश, चतुरसेन शाखी, जैनेन्द्र कुमार, आ, भगवती प्रसाद वाजपेयी आदि हैं। ठप जी एक क्रान्तिकारी कहानीकार थे। उनकी कहानियाँ यथार्थ की पृष्ठभूमि पर आधारित होकर सामाजिक जीवन से ओतप्रोत हैं।

(ग) तृतीय उत्थान काल- कहानी साहित्य को उत्थान की दृष्टि से यह युग अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी युग में गाँधीवादी, माक्र्सवादी और प्रगतिवादी कहानियाँ लिखी गयीं। इनके अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, जन-उत्थान, लोककल्याण और सेक्स की समस्याओं को लेकर कहानियाँ लिखी जा रही हैं।

आज का युग सामाजिक जागृति एवं जनचेतना का युग है। अतः नये विचार, नयी भावनाएँ और नयी आकांक्षाएँ दिन प्रतिदिन जन्म लेती जा रही हैं। परिणामस्वरूप आज का कहानी साहित्य बहुरंगी होता जा रहा है। यही कारण है कि नये कहानीकार नयी नयी शैलियाँ और नये-नये शिल्प लेकर हमारे सामने आ रहे हैं।

इस युग कहानीकारों में भगवतीचरण वर्मा, अशेय, यशपाल, निराला, बेढव बनारसी, अश्क, शम्भूनाथ सिंह, नर्मदाप्रसाद खरे, उषादेवी मिश्रा, कमला चौधरी, हेमवती देवी, सत्यवती मलिक, महादेवी वर्मा, तेजरानी पाठक आदि हैं।

यशपाल, रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, अमृतराय और विष्णु प्रभाकर आदि की कहानियों पर मार्क्सवादी प्रभाव हैं। भगवती चरण वर्मा, सियारामशरण गुप्त आदि की कहानियाँ विचार प्रधान हैं। नवेदित पीढ़ी के कहानीकारों में मोहन राकेश मारकण्डेय, मनू भण्डारी, रमेश बख्शी आदि प्रमुख हैं। आजकल मोपासाँ, टालस्टाल, पर्ल वक, गोर्की आदि विदेशी कहानीकार हमारे कहानी साहित्य की अभिवृद्धि कर रहे है। आज हमारा साहित्य इतना समृद्ध है कि वह किसी भाषा के कहानी साहित्य से टक्कर लेने में सक्षम हैं।

हिन्दी कहानियों का वर्गीकरण-

‘आधुनिक कहानी’ साहित्य का दिन-प्रतिदिन विकास हो रहा है। उनके रूप, विषय और प्रतिपाद्य तत्वों में अविराम वैचित्र्य सामने आ रहा है। ऐसी स्थिति में कहानियों का कोई भी वर्गीकरण अन्तिम नहीं माना जा सकता है। फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए विद्वानों ने उसके कई वर्ग किये है। विद्वानों ने प्रथमतः शैली के आधार पर कहानी के छः भेद किये हैं जो निम्नलिखित हैं-

(क) ऐतिहासिक शैली पर आधारित कहानियाँ (ख) आत्मकथात्मक कहानियाँ (ग) डायरी शैली में लिखी कहानियाँ (घ) मनोविश्लेषण कहानियाँ (ङ) अन्योक्ति शैली पर आधारित कहानियाँ (च) कथोपकथन प्रणाली पर आधारित कहानियाँ।

(क) ऐतिहासिक शैली पर आधारित कहानियाँ- इसमें घटनाओं और पान का चित्रण कहानीकार अन्य पुरुष के रूप में करता है। इनका वर्णन भूतकालिक रूप में बनकर आता है जैसे प्रेमचन्द की कहानी ‘आत्माराम’।

(ख) आत्मकथात्मक कहानियाँ-इसमें पात्र बारी-बारी से आप बीती सुनाते हैं। इस शैली की लिखी कहानियों में पाठक का पात्र से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित होता है। जैसे सुदर्शन की ‘कवि की स्त्री’ जैनेन्द्र की ‘जान्हवी’ और कौशिक की ‘प्रतिमा’।

(ग) डायरी शैली में लिखी कहानियाँ- इसमें कहानीकार स्वयं पात्र का रूप धारण करता है। कहानी में ‘मैं’ ही पात्र होता है। वह स्वयं अपने रहस्य का पात-प्रतिघात का, आन्तरिक भावों का रहस्योद्घाटन करता है। उनकी कहानी का एकमात्र आधार प्रत्येक दिन की लिखी डायरी के कुछ अंश ही होते हैं जैसे चन्द्रगुप्त विद्यालंकर की ‘एक सपाह’ नामक कहानी।

(घ) मनोविश्लेषणात्मक कहानियाँ- इसमें पात्र का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। जैसे-जैनेन्द्रकुमार की कहानी ‘पत्नी’।

(ङ) अन्योक्ति शैली में लिखी कहानियाँ- इसमें व्यंग्य और कुतूहल की सम्भावना अधिक रहती है। इसमें मानवेतर उपादानों को प्रतीकात्मक रूप में ग्रहण किया जाता है। जैसे कमलाकान्त वर्मा की कहानी ‘पगडण्डी’।

(च) कथोपकथन पर आधारित कहानियाँ- इसमें वार्तालाप के द्वारा विषय का प्रतिपादन किया जाता है। चतुरसेन की ‘जीजा’ नामक कहानी इसका सुन्दर उदाहरण है।

निष्कर्ष :

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी कहानी अविराम विकास के मार्ग पर अग्रसर होती जा रही है। ‘प्रणयिनी परिणय’ से लेकर उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ तक का हिन्दी- कहानी का इतिहास साक्षी है। इसके इस विकासोन्मुख रूप को देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दी कहानी का भविष्य बड़ा ही उज्जवल है।

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Pankaja Singh

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