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हिन्दी निबन्ध का उद्भव | हिन्दी निबन्ध का विकास | भारतेन्दु युगीन काव्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी निबन्ध के उद्भव एवं विकास पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, हजारी प्रअथव द्विवेदी तथा रामचन्द्र शुक्ल के योगदान

हिन्दी निबन्ध का उद्भव | हिन्दी निबन्ध का विकास | भारतेन्दु युगीन काव्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी निबन्ध के उद्भव एवं विकास पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, हजारी प्रअथव द्विवेदी तथा रामचन्द्र शुक्ल के योगदान

हिन्दी निबन्ध का उद्भव एवं विकास

आधुनिक काव्य का आरम्भ 1857 के असफल विद्रोह के बाद होता है। इस समय अंग्रेजों का निरंकुश शासन भारतीय जनता के लिए एक विकट समस्या बना हुआ था। यद्यपि राजनैतिक दासता ने भारतीय पीड़ित जनता के मानस पटल से रीतिकालीन विलासिता के अन्धकार को हटा दिया था। उसमें अपने देश व समाज के लिए नयी स्फूर्ति पैदा हो गयी थी, पर दासता की जंजीरें सहज ही टूटने वाली न थीं। सुधारकों के प्रयत्न पूर्णतया सफल नहीं हो पाते थे। 1857 के सिपाही विद्रोह ने यद्यपि जन-मानस में देशभक्ति, स्वदेश-भाषा, भक्ति और समाज सुधार के प्रति निष्ठा अवश्य उत्पन्न कर दी थी, पर साधनविहीन जनता अधिक सफलता के साथ कुछ करने में असमर्थ थी अतएव इस समय हिन्दी भाषा के हितैषियों ने इस समय की परिस्थितियों और अपनी दशा की ओर देखते हुए राजभक्ति के साथ-साथ देश-भक्ति व भाषा-भक्ति का स्वर बुलन्द किया और उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार घोषित किया।

इस संघर्षमय वातावरण में सर्वप्रथम भारतेन्दु जी ने राजभक्ति के आवरण में देशभक्ति व भाषा-प्रेम की वह ज्वाला प्रकट की जिसके सामने अंग्रेजी शासन की मलिन मनोवृत्ति न टिक सकी। इस ज्वाला से प्रभावित भारतीय जनता एवं भारतीय कवि एक साथ देश-भक्ति एवं देश-भाषा की ओर बढ़ने लगे। इसी बीच आर्य समाज जैसे सुधारवादी आन्दोलन व प्रचार भी उठ खड़े हुए। इससे हिन्दी भाषा को बड़ा प्रोत्साहन मिला और वह धीरे-धीरे आगे बढ़ चली।

यदि हम सूक्ष्मता से देखें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि भारतेन्दु युग वास्तव में द्विविधा और असन्तोष का युग था। इसमें जहाँ एक ओर राजनैतिक दासता से जनता में असन्तोष था और वह जल्दी से जल्दी इस दासता की बेड़ियों को काटकर स्वतन्त्र हो जाना चाहती थी, वहाँ दूसरी ओर साहित्यिक दासता के प्रति भी नारी असन्तोष था। भारतीय जनता इस संघर्ष एवं पराधीनता के युग में अब रीतिकाल के कवियों द्वारा प्रस्तुत नारी के अन्तः स्थल चित्रण तथा उनकी विविध चेष्टाओं के उद्दीपन दृश्य नहीं देखना चाहती थीं और और न यह ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली में ‘अली कली ही सो वंध्यो’ का आलाप ही सुनना चाहती थी। कवि समाज भी अब उत्रिद्रित हो चुका था, उसकी मादकता की खुमारी उतर चुकी थी, वह अब रीतिकाल की रीतिनीति का अन्धानुकरण नहीं करना चाहता था, अपितु वह चाहता था कि विदेशियों के उस शिशिर राज्य को जिसने भारतोद्यात को हतश्री बना रखा था, अपने कोकिल गीतों में छिन्न-भिन्न कर एक नया बासन्तिक रम्य प्रफुल्लित समाज स्थापित करे। इन्हीं द्विविध असन्तोषों ने हिन्दी कविता को एक सर्वधा नवीन दिशा में मोड़ दिया।’

निष्कर्षतः इन्हीं प्रवृत्तियों और परिस्थितियों ने आधुनिक काव्य को जन्म दिया है। इसे मुख्यतया प्रथम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं- (1) भारतेन्दु युग, (2) द्विवेदी युग, (3) वर्तमान युग।

भारतेन्दु युगीन काव्य प्रवृत्तियाँ

इस युग में जहाँ एक ओर भारतीय नेताओं ने और सुधारकों ने विदेशियों के शोषण से उत्पन्न भूख, बेकारी और दरिद्रता एवं दासता को जो कि सुरसा की भाँति मुँह फाड़े हुए सबको हो निगल जाना चाहती थीं मिटाने के लिए बीड़ा उठाया और दूसरी ओर स्वनामधन्य भारतेन्दु जी ने रीतिकालीन विकृत श्रृंगार के बेमेल राग को जो कि आज के जन-जीवन के लिए असझ हो रहा था और जिसने साहित्य को जन-जीवन से दूर कर राजमहलों की परिधि में सीमित कर दिया था, भुलाकर कविता व जनता का टूटा हुआ नाता तोड़ने का बीड़ा उठाया। इन द्विविध प्रयत्नों ने भारत में एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी, उसकी एक नया जीवन प्रदान किया, उसके लक्ष्य को एक नयी दिशा दिखलायी और हिन्दी कविता को नयी साज-सज्जा के परिधान में प्रस्तुत किया।

(1) खड़ी बोली को ब्रजभाषा के समकक्ष लाना- भारतेन्दु जी ने भाषा व विषय दोनों की दृष्टि से हिन्दी कविता को नवीन मार्ग प्रदर्शित किया। कविता में जन-जागरण के स्फूर्तिदायक भाव भरे और सबसे बड़ा स्तुत्य कार्य यह किया कि खड़ी बोली को ब्रजभाषा के समकक्ष ला खड़ा किया। विषय की दृष्टि से, इस काल के कवियों ने भारतेन्दु जी से प्रोत्साहन प्राप्त कर नायिका भेद और अलंकारों के स्थानों पर देश-प्रेम , समाज-सुधार, भाषा-प्रेम आदि सामयिक विषयों को अपने काव्य का आधार बनाया।

(2) नवीनता का समावेश- भाषा और छनद की दृष्टि से यद्यपि इस काल की कविता भी ब्रजभाषा की कोमलकान्त पदावली का मोह संचरण न कर सकी थी। पर विषय की दृष्टि से उसमें अवश्य नवीनता आ गयी थी भारतेन्दु जी तथा तत्कालीन भारतेन्दु मण्डल के कवि व लेखक उसके स्थान पर खड़ी बोली को खड़ा करने का प्रयास कर रहे थे।

(3) राष्ट्रीय चेतना का विकास- काव्यगत सामाजिक रूढ़ियों व सामाजिक कुरीतियों जन- मानस की मलिन मनोवृत्तियों व राजनीतिक दासता का विरोध करते हुए तत्कालीन कवियों ने सर्वत्र राष्ट्रीय चेतना भरने का स्तुत्य प्रयास किया।

(4) देश-प्रेम, भाषा-प्रेम तथा समाज-सुधार की ओर प्रवृत्त होना- इस युग में कविता रसाप्लावित, नखशिख वर्णन, अलंकारों के भद्दे-प्रर्दशन, राजप्रसाद के भूखे कवियों के कृत्रिम गीतों के सीमित क्षेत्र से निकाल कर देश-प्रेम, भाषा-प्रेम, समाज-सुधार आदि के विस्तृत एवं उन्मुक्त क्षेत्र  में प्रवाहित होने लगी।

(5) जन-जीवन से सम्बन्ध- भारतेन्दु युग के कवि व लेखक राजश्रय के अधीन न थे, वे स्वतन्त्र उन्मुक्त वातावरण में विचरण करने वाले तथा जन-जीवन से अटूट सम्पर्क रखने वाले जन- जीवन की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने वाले थे। इस संघर्षमय युग में सुधारवादी दृष्टिवादी काव्य-रचना करने पर भी इनके हास्य एवं विनोद तथा मधुर व्यंग का भी पुट था।

(6) प्रकृति का आलम्बन के रूप में प्रयोग- कविजन जब प्रकृति के उद्दीपन रूप की मोह मदिरा त्यागकर उसका आलम्बन के रूप में भव्य रूप खड़ा करने के लिए उत्सुक दीख पड़ने लगे थे। उन्होंने राजप्रासादों की कृत्रिमता से हट कर उसके चतुर्दिक फैले हुए अद्भुत रूप का सूक्ष्म निरीक्षण करना आरम्भ कर दिया था।

(7) विभिन्न नवीन तत्वों का समावेश- कात्य-परम्परा यद्यपि अब भी अपनी भक्तिकालीन एवं रीतिकालीन रीति-नीति के परिधान को सर्वथा उतार कर न रख सकी थी। तथापि उसमें धीरे-धीरे अन्य-तत्वों का उत्तरोत्तर समावेश होता जा रहा था।

(8) अतीत गौरव की सुन्दर झाँकी- वर्तमान को अनुप्राणित करने के लिए तथा स्फूर्ति प्राप्त करने के लिए उसकी रचनाओं में अतीत गौरव की सुन्दर झाँकी भी प्रस्तुत की गयी थी। भाषा में ओज एवं स्फूर्ति तथा सजीवता लाने के लिए इनकी रचनाओं में विविध प्रकार के सामाजिक विषयों का समावेश किया गया था। मुहावरों व लोकोक्तियों का खुलकर प्रयोग किया गया था।

निष्कर्ष :

वस्तुतः भारतेन्दु युग नवीन और प्राचीन काव्यों के बीच श्रृंखला बनकर प्रस्तुत हुआ ऐसा होना स्वाभाविक भी था। प्राचीनता से एकदम मुक्ति मिलना कठिन भी था, साथ ही, उसमें कुछ ग्रामीण बातें भी थीं, जिससे कि उसे छोड़ा भी न जा सकता था।

हिन्दी-काव्य क्षेत्र में द्विवेदी जी ने क्रान्तिकारी-

परिवर्तन उपस्थित किया। भाषा की पूर्ण परिष्कृत एवं परिमार्जित कर काव्य के नये-नये सामयिक विषयों का समावेश किया और खड़ी बोली की खड़खड़ाहट दूर कर उसे सुव्यवस्थित कर काव्योपयोगी बनाया।

द्विवेदी जी को हिन्दी स्तुत्य है-

उन्होंने खड़ी बोली को काव्य भाषा के सिंहासन पर समासीन करने के लिए सरस्वती पत्रिका का सम्पादन किया। अतः खड़ी बोली का काव्य भाषा बनाना, भाषा-संस्कार और व्याकरण नियन्त्रण, द्विवेदी काल की मुख्य विशेषताएँ मानी जाती हैं। भाषा संस्कार की दृष्टि से ही उन्होंने कितने निबन्ध लिखे, आलोचनाएँ की, अपवाद और विरोध भी सहा पर अपने संकल्प पर डटे रहे और भाषा का संस्कार करके छोड़ा।

साहित्यिक उपलब्धियाँ-

द्विवेदी जी ने अनेक लेखक व कवि उत्पन्न किये। भारत के राष्ट्रकवि स्वनाम धन्य श्री गुप्त जी द्विवेदी जी के परम भक्त और अनुयायी थे। उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त कर उन्होंने हिन्दी साहित्य खड़ी बोली के अनेक काव्य भेद किये, श्री उपाध्याय जी, रामनरेश त्रिपाठी, श्यामनारायण पाण्डेय, ठाकुर गोपालशरण सिंह, अनूप शर्मा, रामचरित उपाध्याय, गुरुभक्त सिंह आदि द्विवेदी युग के प्रमुख कवि हैं। उन्होंने अनेक प्रबन्धकाव्य प्रस्तुत किये, जिससे हिन्दी खड़ी बोली का भण्डार भर गया। इस काव्य के प्रसिद्ध काव्य-प्रिय प्रवास, वैदेही वनवास, जयद्रथ बध, पंचवटी सिद्धार्थ, साकेत, यशोधरा, रामचरित, चिन्तामणि, पथिक, हल्दी घायी और नूरजहाँ आदि हैं जो खड़ी बोली की अनुपम निधि हैं।

समाज-सुधारवादी दृष्टिकोण विशेष रूप से अपनाया गया-

काव्य के विषय के रूप में इन्हीं समाज सुधार सम्बन्धी तथा नीतिपरक विषयों का आधिक्य रहा। इस युग के कवियों में विधवा- विवाह, बाल-विवाह, दहेज, दीन-दुखियों की दशा का कारुणिक एवं मार्मिक चित्रण , भारत महिमा, स्वाधीनता, समाज की कुरीतियों आदि के विषय में ही अधिक रचनाएं की। गुप्त जी की भारत-भारती इस युग का प्रतीक है।

द्विवेदी युग के काव्य में इतिवृत्तात्मकता की प्रधानता-

और साथ ही नैतिकता की कठोर कारा, फलतः काव्य क्षेत्र में इस कठोर नियन्त्रण में, नीरसता आ गयी थी। कविजन् कुछ-कुछ उपदेशपरक भी बन गये थे। कविता में तुकबन्दी का आधिक्य था। सरलता और माधुर्य एवं कल्पना का प्रवाह कम था।

द्विवेदी युग में भाषा के रूप में भी परिवर्तन हुआ-

साथ ही अलंकारादि की प्रवृत्ति की दशा भी बदली। काव्य-भाषा के रूप में खड़ी बोली का प्रचलन हुआ, अलंकारादि का नियमित; सीमित सहज प्रयोग हुआ। भाषा-शुद्धता पर विशेष बल दिया गया। द्विवेदी जी का आग्रह था कि संस्कृतगर्भित भाषा का प्रयोग किया जाय। उनके निबन्धों की भाषा भी संस्कृत गर्भित भाषा होती थी। इनके अनुयायी श्री हरिऔध जी ने ‘प्रिय-प्रवास’ काव्य-संस्कृत गर्भित भाषा में ही नहीं अपितु संस्कृत छन्दों में लिख डाला।

हिन्दी-कविता के वर्तमान रूप का बीजारोपण द्विवेदी युग में ही गुप्त जी आदि प्रमुख कवियों द्वारा हो चुका था पर इसका विकास प्रसाद जी की अलौकिक कवित्व-शक्ति और अप्रतिम प्रतिभा के द्वारा हुआ। अतएव आधुनिक युग को प्रसाद युग कहते हैं।

द्विवेदी युग में नैतिकता के संकीर्ण दृष्टिकोण के फलस्वरूप काव्य क्षेत्र से ‘प्रेम‘ आदि कोमल भावनाओं का बहिष्कार, सा हो गया था। यद्यपि यह बात कुछ कवियों को उस समय खटकती थी, पर द्विवेदी के सबल-व्यक्तिव के आगे किसी को कहने का या उसके विरुद्ध काव्य की दिशा मोडऋने का साहस न था। पर प्रसाद जैसे प्रतिभा सम्पन्न कवि के निए यह बन्धन असा हो गया, अतः उन्होंने द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रियास्वरूप छायावाद की नींव डाली। पन्त, निराला, महादेवी वर्मा आदि से उन्हे अपने मार्ग में पूर्ण सहयोग मिला, फलतः इस युग का काव्य नैतिकता के बन्धनों को तोड़कर स्वछन्द गति से छायावाद की दिशा में मुड़ गया। इस छायावाद ने काव्यक्षेत्र में युगान्तर उपस्थित कर दिया। प्रकृति का मानवीकरण किया गया और उसको मानव-जीवन की चिरसंगिनी के रूप में देखा गया। उषा, छाया, वन, पर्वत, नदी, मेघ, समुद्र आदि प्राकृतिक उपकरणों एवं नाना दृश्यों और व्यापारों का आश्रय लेते हुए सूक्ष्म अनुभूतियों की व्यंजना की जाने लगी। इसी युग में कविन्द्र रवीन्द्र की गीतांजलि से प्रभावित हो कवियों का ध्यान रहस्यवाद की ओर भी गया। जीव और ब्रह्म से ऐक्य लाभ की व्याकुलता आदि की सुन्दर अभिव्यजंना की जाने लगी। अनन्त प्रकृति के भीतर परमात्मा की सत्ता की कल्पना की गयी, अब तक के काव्य की स्थूलता व इतिवृत्तात्मकता लुप्त हो गयी और हिन्दी कविता एक सर्वथा परिधान में प्रकट हुई।

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Pankaja Singh

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