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रीति कवियों का वर्गीकरण | रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ | रीति मुक्त कवियों में घनानंद का स्थान | रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ | रीतिमुक्त कवि के रूप में घनानंद का स्थान

रीति कवियों का वर्गीकरण | रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ | रीति मुक्त कवियों में घनानंद का स्थान | रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ | रीतिमुक्त कवि के रूप में घनानंद का स्थान

रीति कवियों का वर्गीकरण-

हिंदी के रीतिकाव्य-कवियों को सामान्यतया दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- रीति कवि तथा रीति मुक्त या स्वच्छंद कवि।

रीति कवियों के दो वर्ग किए जाते हैं, यथा-

(1) रीतिग्रंथकार कवि या रीतिसिद्ध कवि या लक्षणबद्ध कवि- वे कवि जिन्होंने शास्त्रीय शैली पर लक्षण- उदाहरण प्रस्तुत किए। केशवदास, मतिराम, देव, पद्माकर और ग्वाल इस श्रेणी के प्रमुख नाम हैं।

(2) रीतिबद्ध कवि या लक्ष्यबद्ध कवि- जिन्होंने लक्ष्यबद्ध रूप में, शास्त्रीय पद्धति पर काव्यांगों का निरूपण तो नहीं किया परंतु इनके प्रत्येक दंद में किसी न किसी काव्यांग का निरूपण हुआ है। इनका ध्यान लक्षण ग्रंथों पर अवश्य रहता था। सेनापति और बिहारी इसी कोटि के कवि हैं।

स्वच्छंद अथवा रीतिमुक्त कवि- वे कवि जिन्होंने साधारण काव्य के रूप में रचना की और श्रृंगार विषयक विविधविषयों की चर्चा का समावेश उनकी रचनाओं में यथास्थान स्वयमेव हो गया। बोधा, ठाकुर, आलम तथा घनानंद इस वर्ग के कवि हैं।

हम प्रथम कोटि के कवियों को, रीति कवियों को शास्त्र कवि या रीति कवि कह सकते हैं तथा स्वच्छंद कवियों को हम काव्य कवि कह सकते हैं।

रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ-

इस वर्ग के कवियों के काव्य की सामान्य विशेषताएं निम्नलिखित प्रकार हैं-

(1) भाव प्रवणता- रीतिकाल कवियों की कविता या तो बिहारी की भाँति अतिशय बौद्धिक है अथवा मतिराम की भाँति अतिशय सहज है। परंतु रीतिमुक्त कवियों की कविता प्रायः भाव कविता है। उसमें भाव-प्रवणता का प्राधान्य है। इनके काव्य में रीति कवियों की अलंकरणता एवं कृत्रिमता नहीं है। घनानंद ने टीका को पटरानी और बुद्धि को दासी कहा है।

(2) प्रेम का बंधनहीन स्वरूप-सूदरदास प्रभृति कृष्ण भक्त कवियों द्वारा निरूपित कृष्ण और गोपियों का स्वच्छंद प्रेम इन कवियों के आकर्षण एवं प्रेरणा का स्रोत बना। इन्होंने प्रेम का सहज स्वाभाविक वर्णन किया। इनका प्रेम-पंथ सीधा, सच्चा और निश्छल है। उसमें रीति कवियों की कृत्रिमता व उच्छृखलता का अभाव है। यह ऐंद्रिय अनुभव की वस्तु नहीं बल्कि सूक्ष्म-साधना का विषय है-

यह सूधी सनेह को मारग है।

जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।

जहाँ साँचे चलें तजि आपनपौ।

झिझकें कपटी जे निसांक नहीं। (घनानंद)

डॉ. बच्चनसिंह ने ठीक ही लिख है कि ‘इन कवियों का प्रेम न तो रीतिबद्ध कवियों की भांति शरीर है और न प्लेटोनिक प्रेम की तरह अशरीरी और नायकी। इनकी स्थिति बहुत कुछ मध्यवर्तिनी है।”

(3) लौकिक पक्ष की कविता- इनकी अनुभूति सामान्य या लौकिक है, उस पर किसी प्रकार का आवरण नहीं है। इन कवियों ने न तो भक्ति-कवियों की अलौकिकता का दावा किया और न प्रेम के विषय में सूफी कवियों की भाँति किसी उपलब्धि का दावा ही किया है। इन्होंने राधा-कृष्ण के नाम पर बहुत कम लिखा है, जो कुछ लिखा है, स्वानुभूति के रूप में कहा है। जनता के संपर्क में रहन के कारण इन कवियों ने होली, गनगौर आदि त्यौहारों के वर्णन में भी अपनी वृत्ति लीन की है। ठाकुर कवि ने बुंदलेखंड में मनाये जाने वाले कई त्यौहारों का चटकीला वर्णन किया है।

(4) वियोग-व्यथा की मार्मिकता-रीति कवियों का वियोग वर्णन कल्पना प्रसूत एवं ऊहात्मक है। रीति मुक्त कवियों के वियोग-वर्णन के पीछे व्यक्तिगत अनुभूति है। मादक संयोग की पृष्ठभूमि में आसन्न वियोग की मार्मिक व्यंजना घनानंद की बहुत बड़ी विशेषता है।

इन कवियों ने किसी नायिका के ब्याज से विरह-वर्णन न करके स्वयं अपनी वियोग-भावना का प्रकाशन किया है।

(5) प्रेम के प्रति सैद्धांतिक विषमता- स्वच्छंद कवियों ने प्रेम की साधनाको जीवन का मूलमंत्र बताया। इनका प्रेम अधिकतर विषम है। समप्रेम (तुल्यानुराग) वस्तुतः जीवन का आनंद है तथा विषम प्रेम जीवन की कठोर साधना है। ये कवि प्रायः विषम प्रेम की साधन में ही लीन रहे, यद्यपि इन्होंने कई स्थलों पर अपने प्रिय प्रेम पात्र को अनेक मधुर-तिक्त उपालम्भ भी दिए हैं। घनानंद में प्रेम के प्रति आस्था अविचल है, वह प्रेम की अग्नि में आजीवन जलने को प्रस्तुत हैं-

चाहो अनचाहो प्यासे वै अनंद घन,

प्रीति-रीति विषम सु रोम-रोम बसी है। (घनानंद)

(6) भक्ति-भावना- इनकी भक्ति-भावना वस्तुतः इनके व्यक्तिगत प्रेम का उदात्तीकरण है। इनके अंतर की सहजता न्यूनाधिक भक्तिमयी हो गई है।

घनानंद निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित थे और वह सखी भाव के भक्त थे। उन्होंने परक्रिया के रूप में श्री कृष्ण के प्रति हृदय का निवेदन किया है।

(7) प्रांजल भाषा- रीति मुक्त कवियों का काव्य लौकिक पक्ष प्रधान है। इस कारण इनकी भाषा सहज और जनोचित है। इनकी भाषा प्रायः परिमार्जित, व्यवस्थित एवं प्रांजल है। पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र के शब्दों में, “इन्होंने अलंकृत शैली का व्यवहार बराबर किया है, परंतु पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए कभी नहीं, हृदय की स्थिति का सच्चा आभास देने के लिए। “धनानंद तो भाषा प्रवीन हैं ही। ठाकुर ने लोकोक्तियों का जैसा विनियोग किया है, वैसा हिंदी के काव्य में अन्यंत्र दुर्लभ है।

(8) सजग युगीन चेतना- स्वच्छंद काव्यधारा में हमको रीति युग में एक सजग साहित्य चेतना का परिचय प्राप्त होता है। ठाकुर ने अपने एक छंद में उस काल की काव्य कला पर व्यंग्य किया है। इन कवियों ने ब्रजभाषा को बहुत शक्ति प्रदान की।

रीति मुक्त कवियों में घनानंद का स्थान-

घनानंद की अनुभूति वियोगाग्नि में सर्वाधिक प्रकट हुई है। इस कारण इनकी कविता में सर्वाधिक आवेग है। उनकी वेदना आकाश से पाताल तक व्याप्त दिखाई देती है। उनकी अन्तर की हूक ही वस्तुतः उनकी कविता बन गई है।

घनानंद का प्रेम सर्वथा निश्छल एवं सरल है। घनानंद ने सुजान को जिस ढंग से संबोधित किया है उसमें उनकी व्यक्तिगत अनुभूति मुखर हो उठी है। वैयक्तिकता के संस्पर्श ने घनानंद की कविता को बहुत ही मार्मिक बना दिया है-

आनंद निधान प्रान प्रीतम जी की।

सुधि सब भाँतिन औ बेसुध करत है।

घनानंद का वियोग वर्णन प्रायः बेजोड़ है। उनका वियोग संयोग में भी पीछा नहीं छोड़ता है। संयोग की पृष्ठभूमि में आसत्र वियोग की जैसी मार्मिक व्यंजना घनानंद में मिलती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

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Pankaja Singh

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