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भक्तिकालीन कविता के काव्य वैशिष्टय | भक्तिकाल को स्वर्ण युग मानने के पक्ष में तर्क

भक्तिकालीन कविता के काव्य वैशिष्टय | भक्तिकाल को स्वर्ण युग मानने के पक्ष में तर्क

भक्तिकालीन कविता के काव्य वैशिष्टय

हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग का तात्पर्य है- वह काल जिसमें रचित साहित्य अपने पूर्ववर्ती या परवर्ती काल में रचित साहित्य से उत्कृष्ट कोटि का रहा हो। इस दृष्टि से विचार करने पर भक्तिकालीन काव्य को ही सर्वोत्तम माना जा सकता है। अतः अधिकांश विद्वान् भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग मानने के पक्ष में हैं। भक्तिकाव्य एक ओर तो मानव के उच्चतम धर्म की व्याख्या करता है, दूसरी ओर अपनी उदात्तता, सरसता एवं काव्य-सौष्ठव के कारण भी काव्य- रसिकों के हृदय को आप्लावित करता रहा है। उसकी आत्मा भक्ति है और शरीर काव्यालंकारों से पूर्णतः सुसज्जित, अतः वह एक साथ ही मन और आत्मा के भूख को तृप्त करता हुआ हृदय को रसासिक्त कर देता है। डॉ. श्यामसुंदर दास ने भक्तिकाल को हिंदी का स्वर्ण युग स्वीकार करते हुए कहा है, “जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्यवाणी उनके अंतःकरण से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्तियुग कहते हैं। निश्चित ही वह हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग था।”

भक्तिकाल को स्वर्ण युग मानने के पक्ष में तर्क

भक्तिकाल को स्वर्ण युग मानने के पक्ष में जो तर्क दिये जा सकते हैं, उनका विश्लेषण अग्र शीर्षकों के अंतर्गत सुगमतापूर्वक किया गया है-

(1) स्वांतःसुखाय काव्य-

भक्तिकालीन कवियों ने स्वांतः सुखाय काव्य की रचना की है। भक्तप्रवर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में अपनी काव्य-रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए घोषणा की ‘स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।’ कबीर एवं सूर की काव्य रचनाएँ भी स्वांतः सुखाय से प्रेरित थीं। काव्य रचना के लिए इन्हें न तो किसी दरबार का आश्रय लेना उचित लगा और न ही आश्रयदाता की झूठी प्रशंसा करने में उन्होंने रूचि दिखायी। तुलसी ने तो यहाँ तक कहा है कि सांसारिक व्यक्तियों की कीर्ति का गान करने से सरस्वती सिर धुन-धुन कर पछताने लगती हैं कि मैंने ऐसे व्यक्ति (कवि) को कविता करने की शक्ति क्यों दी-

कीन्हें प्राकृतजन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगति पछिताना।।

रीतिकाल के कवि जहाँ दरबार में किसी आश्रय की खोज करते थे, वहीं भक्तिकाल के कवि दरबार की एवं राजा की उपेक्षा करते हुए स्पष्ट घोषणा करते हैं-

संतन कौ कहा सीकरी सौं काम।

के अलावा रंचमात्र भी कुछ और नहीं है। उसमें नैसर्गिक छटा है तथा प्रकृत सौंदर्य है। कृत्रिमता, सजावट, बनावट का लेश भी न होने के कारण वह रम्य पर्वतश्रेणियों की भाँति सहज सुदर हैं।

(2) लोकमंगल का साहित्य-

भक्तिकालीन कवियों की रचनाएँ लोकमंगल का विधान करने वाली हैं। इन कवियों ने लोकहित को ध्यान में रखकर काव्य-रचनाकी। तुलसी ने तो कविता का उद्देश्य ही लोकहित स्वीकार किया है-कीरति मनिति भूति मल सोई। सुरसरि सम सबवहूँ। हित होई अर्थात वही कविता श्रेयस्कर होती है, जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो। कबीर का संपूर्ण काव्य लोक-हितकारी है। समाज की कुरीतियों, पाखंड एवं अंधविश्वास को दूर करने के लिए उन्होंने निरंतर प्रयास किया। आचरण की सभ्यता एवं कर्म की पवित्रता पर बल देनेवाले कबीर ने अपने उपदेशों में लोकमंगल का विधान करने का पूरा प्रयास किया है। सूरदास के काव्य में लोकरंजन की प्रवृत्ति विद्यमान है। कृष्ण के मधुर रूप की झाँकी अंकित करते हुए उन्होंने जनमानस में प्रेम, माधुर्य एवं सौंदर्य की प्रतिष्ठा की। जायसी ने सांस्कृतिक धरातल पर हिंदू-मुस्लिम एकता का विधान करते हुए लोकमंगल की चेष्टा की। भक्तिकाल के इन कवियों का ध्यान जहाँ लोकहित पर केंद्रित रहा, वहाँ रीतिकाल के कवियों ने इस ओर रंचमात्र भी ध्यान नहीं दिया। आदिकाल के कवियों पर भी वह आक्षेप किया जा सकता है कि उन्होंने लोकहित पर अपनी दृष्टि केंद्रित नहीं है।

(3) समन्वयवादी प्रवृत्ति-

भक्तिकालीन कवियों की एक प्रमुख प्रवृत्ति रही है- समन्वयवाद। विशेष रूप से गोस्वामी तुलसीदास अपने काव्य में समन्वयवादी प्रवृत्ति के कारण लोकप्रिय हुए हैं। वे सच्चे अर्थों में लोकनायक थे, कयोंकि लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके। उनका रामचरितमानस आदि से लेकर अंत तक समन्वय की विराट चेष्टा है। इस प्रवृत्ति के द्वारा उन्होंने समाज में व्याप्त द्वंद्व को समाप्त करने में सराहनीय योगदान किया। सगुण और निर्गुण का समन्वय, ज्ञान और भक्ति का समन्वय, शैव और वैष्णव का समन्वय, राजा और प्रजा का समन्वय आदि उनके काव्य प्रमुख रूप से देखे जा सकते हैं। कबीर काव्य में भी समन्वय की चेष्टा धार्मिक धरातल पर की गयी है। हिंदी-मुसलमान जिस ईश्वर को राम और रहीम के नाम से अलग-अलग पुकारते हैं वह मूलतः एक है- ‘T जगदीश कहाँ तै आया, कहु कौने भरमाया’ कहकर समन्वय की ही चेष्टा की गयी है। भक्त कवियों का यह समन्वयवाद वस्तुतः एक ऐसी विचारधारा है जो विग्रह को समाप्त कर आदर्श व्यवस्था को स्थापित कर सकती है। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण भी ये कवि जनता में लोकप्रिय बने हैं। हिंदी साहित्य के अन्य कालों के कवियों ने समन्वय की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। अतः अपनी इस विशेषता के कारण भी भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग माना जा सकता है।

(4) आध्यात्मिकता एवं साहित्यिकता का समन्वय-

भक्तिकालीन काव्य में आध्यात्मिकता एवं साहित्यिकता का अपूर्व समन्वय दिखायी पड़ता है। तुलसी का रामचरितमानस हिंदू-धर्म की व्याख्या करने वाला एक ऐसा ग्रंथ हैं जो प्रत्येक हिंदू के पुजाघर में स्थानप्राप्त करचुका है। यही नहीं अपितु इस ग्रंथ के प्रति जनसाधारण की इतनी श्रद्धा है कि इसे विघ्न विनाशक मानकर इसके अखंड पाठ आयोजित किये जाते हैं। रामचरितमनास में भारतीय धर्म एवं संस्कृति की सुंदर व्याख्या की गयी है तथा आध्यात्मिक विषयों का सरस बनाकर साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। यह ग्रंथ अपनी उच्चकोटि की काव्यकला के लिए भी प्रसिद्ध है। कबीर के काव्य में भी उपदेश एवं अध्यात्म की प्रधानता है। मानव धर्म की व्याख्या करते हुए इस क्रांतिकारी कवि ने एक ऐसा मार्ग प्रतिपादित किया जो सबके लिए हितकारी हो सकता है। वे यद्यपि पढ़े-लिखे नहीं थे तथापि अपनी बात को कहने में बड़े कुशल थे यहाँ तक कि आलोचक उन्हें ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहने के लिए बाध्य हुए। सूरदास के पदों में भी सहजन उद्रेक दिखाया गया है।

(5) भाषा-सौंदर्य-

भक्तिकालीन काव्य में भाषा के विविध रूप दिखायी पड़ते है। कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा में काव्य रचना करते हुए उसे सरस, मधुर, कोमल बनाते हुए व्यापक काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया, परिणामतः वह परवर्ती हिंदी साहित्य में रीतिकाल तक ही नहीं अपितु आधुनिक काल के प्रारंभिक चरण तक कविता पर एकच्छच अधिकार जमाये रही। सूरदास, नंददास, रसखान की भाषा अपनी कलात्मकता, सरसता एवं मधुरता के कारण रीतिकालीन कवियों की भाषा से श्रेष्ठ है। रामभक्त कवियों ने तथा सूफी कवियों ने यद्यपि अवधी का प्रयोग किया, तथापि उसमें भी ब्रजभाषा जैसा माधुर्य एवं पदलालित्य उत्पन्न कर दिया। तुलसी एकमात्र ऐसे समर्थ कवि थे जिन्हें अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं पर समान रूप से अधिकार प्राप्त था। उन्होंने रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में तथा कवितावली, विनियपत्रिका आदि की रचना सरस ब्रजभाषा में की है।

(6) भावपक्ष एवं कलापक्ष का संतुलन-

भक्तिकाल को स्वर्णयुग मानने का सबसे प्रमुख कारण है, इससे उपलब्ध भावपक्ष एवं कलापक्ष का संतुलन। इस काल के साहित्य में भावपक्ष एवं कलापक्ष का मणिकांचन संयोग हुआ है। भक्त कवियों का अनुभूति पक्ष जितना सशक्त है, अभिव्यक्ति पक्ष भी उतना ही सबल है। तुलसी के काव्य में जहाँ एक से एक मार्मिक एवं भावुक प्रसंग हैं, वहीं उनकी काव्यकला भी उच्चकोटि की है। भाषा, अलंकार, छंद योजना, संगीतात्मकता सभी दृष्टिओं से भक्ति साहित्य अपूर्व है। सूरदास, नंददास, कबीर, हितहरिवंश, मीरा, रसखान जैसे भक्त कवियों के काव्य में भावपक्ष की जितनी गहनता है उतनी ही उत्कृष्टता उनके कलापक्ष में भी विद्यमान है। दूसरी ओर रीतिकाल काव्य में यह संतुलन बिगड़ गया है। रीतिकाल में कविता सुंदरी को अलंकृत करने का जी-तोड़ प्रयास किया गया, परिणामतः वह अलंकारों के बोझ से ऐसी दब गई कि उसका प्रकृत सौंदर्य ही नष्ट हो गया। भावपक्ष की दृष्टि से रीतिकालीन कविता भक्तिकालीन कविता के समक्ष नहीं टिक सकती। बिहारी, घनानंद एवं देव जैसे कवि भी तुलसी, सूर और कबीर की तुलना में हेय ठहरते हैं। कबीर आदि निरक्षर कवियों में यद्यपि भावपक्ष की प्रधानता है, फिर भी उनका कलापक्ष काव्य की रमणीयता जैसे उपादानों से शून्य नहीं है।

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Pankaja Singh

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