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देवनागरी लिपि | देवनागरी लिपि का नामकरण | देवनागरी लिपि का मानवीकरण | देवनागरी लिपि का वर्गीकरण | देवनागरी लिपि की विशेषताएँ

देवनागरी लिपि | देवनागरी लिपि का नामकरण | देवनागरी लिपि का मानवीकरण | देवनागरी लिपि का वर्गीकरण | देवनागरी लिपि की विशेषताएँ

देवनागरी लिपि

बोधगया के महानाम शिलालेख में और लेखमंडल की प्रशस्ति में (588 ई०) नागरी के कतिपय लक्षण स्पष्ट होने लगते हैं। सातवीं शताब्दी में ये लक्षण और भी स्पष्ट हो गए थे और आठवीं शताब्दी तक तो देवनागरी पूर्णतया विकसित हो गई थी। सिद्धमातृका से 8-9वीं सदी के आसपास प्राचीन नागरी का विकास हुआ जिसे उत्तर भारत में नागरी और दक्षिण भारत में नन्दि नागरी कहते थे। इन दो लिपि भेदों के अतिरिक्त पश्चिम में अर्धनागरी तथा पूर्व की पूर्वी नागरी भी उल्लेखनीय हैं। गुजरात के राजा जयभट्ट ने अपना हस्ताक्षर देवनागरी में किया है। उसने लिखा है ‘स्वहस्तोमम जयभट्टस्य’। देवनागरी में लिखे गए शिलालेखों में सबसे प्राचीन राष्ट्रकूट दंतिवर्ग के समय (724 ई0) का समंगद का शिलालेख माना जाता है। इसके पश्चात् 780 ई0 में लिखित गोविन्दराज द्वितीय का धुलिया शिलालेख, प्राप्त होता है।

देवनागरी के वर्तमान लिपि चिन्हों का विकास अनेक रूपान्तरों से गुजरने के पश्चात् सुनिश्चित हुआ। ब्राह्मी से देवनागरी तक अक्षरों की बनावट में पर्याप्त परिवर्तन हुए हैं। मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में अक्षर सीधे तथा कोणाकार हैं। अक्षरों की ऊंचाई को समान रखने की चेष्टा परिलक्षित होती है। अक्षरों के शिरोभाग खुले दिखाई देते हैं। खड़ी, पड़ी रेखाओं, वृत्तों, अर्धवृत्तों, कोण, बिन्दु आदि के आधार पर अक्षरों का निर्माण किया गया है। जैसे-

+ (क), (द) °(ट)० (ठ) (ग)

कृषाप काल तक ब्राह्मी लिपि में थोड़ा और परिवर्तन हुआ है। अक्षर बौने तथा चौड़े दृष्टिगत होते हैं। अक्षरों की बनावट में कुछ अधिक उतार-चढ़ाव है। ह्रस्व स्वरों में थोड़ा-सा परिवर्तन करके दीर्घ रूप बनाया जाने लगा। अनुस्वार और विसर्ग के लिए बिन्दुओं का प्रयोग भी शुरू हो गया। साँची के अभिलेख में ल का पूर्ण रूप प्राप्त होता है। अ की बनावट नागरी के अधिक समीप आ गई थी। आ की मात्रा कुछ नीचे खिसक गई है।

देवनागरी लिपि का नामकरण-

देवनागरी लिपि के नामकरण के सम्बन्ध में जो मत प्रचलित हैं वे इस प्रकार हैं-

(1) विद्वानों का एक वर्ग यह मानता है कि गुजरात के नागर ब्राह्मण इसका प्रयोग करते थे इसलिए इसे ‘नागरी’ और ‘देवनागरी’ कहा गया।

(2) कुछ लोगों का यह भी विचार है कि यह नागवंशीय राजाओं की लिपि थी इसलिए इसे देवनागरी कहा गया।

(3) विद्वानों का एक वर्ग यह कहता है कि ‘नगर’ में प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम ‘नागरी लिपि पड़ गया।

(4) तान्त्रिक चिन्ह देवनागर’ से इसका सम्बन्ध जोड़ने वाले लोग यह मानते हैं कि इसी चिन्ह के कारण इसे ‘देवनागरी’ नाम दिया गया।

(5) इन सब मतों से अधिक तर्कसंगत यह मत है कि स्थापत्य की एक शैली नागर शैली कहलाती थी जिसमें चतुर्भुजी आकृतियाँ होती र्थी । नागरी लिपि में भी चतुर्भुज अक्षर ग, प, भ. म, आदि हैं अतः साम्य के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ गया।

देवनागरी लिपि का मानवीकरण

भारतीय संघ तथा कुछ राज्यों की राजभाषा स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप हिन्दी का मानक रूप निर्धारित करना बहुत आवश्यक है।

ध्वनि-गठन

स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ की सत्ता परम्परित शब्दों के प्रयोग के कारण बनी हुई है। पालि में विकसित एँ, ऑ, हिन्दी में अपनाए गए। अंग्रेजी के प्रभाव से आगत आ भी है।

व्यंजन ध्वनियों में फारसी के क, ख, ग, ज, फ, को स्थान मिल रहा है। पढ़े-लिखे लोग जिस प्रकार संस्कृत के शब्दों की शुद्धता पर ध्यान देते हैं उसी तरह अरबी-फारसी के शब्दों पर भी साधारण लोगों की भाषा में इन ध्वनियों को हिन्दीकृत क, ख, ग, ज, फ के रूप में बोला-लिखा जाता है। कभी-कभी शब्दों के अर्थ भेद के लिए क़, ख़, आदि ध्वनियों को लिखना या बोलना आवश्यक हो जाता है, जैसे जरा (वृद्धावस्था), ज़रा (थोड़ा), खोल (खोलना), खोल (आवरण)। ण का.शुद्ध उच्चारण बहुत कम लोग कर पाते हैं। इसे डॅ की तरह बोलते हैं। हिन्दी में ड, ढ़ भी नई ध्वनियाँ हैं जो प्राकृत से विकसित होकर हिन्दी में पूर्ण प्रतिष्ठित हो गई। श, ष, स में से श, स का उच्चारण सुरक्षित है। ष को श की तरह ही बोला जाता है। न्ह, म्ह, ल्ह, ह संयुक्त ध्वनियाँ बोल चाल में तो हैं किन्तु इन्हें वर्णमाला में स्थान नहीं दिया गया है।

देवनागरी लिपि का वर्गीकरण और विशेषताएँ

स्वर-मात्रा के अनुसार-हिन्दी स्वरों को दो भागों में बाँटा जाता है-

  1. हस्व-अ, इ, उ, ए, ओं
  2. दीर्घ-आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ

उच्चारण में जिह्वा की स्थिति के अनुसार- स्वरों के तीन भेद हैं-

अग्र स्वर- इनके उच्चारण में जीभ का अगला भाग उठता है—इ, ई, ए, ऐ।

मध्यस्वर- इनके उच्चारण में जीभ का मध्ये भाग उठता है-अ

पश्च स्वर- इनके उच्चारण में जीभ का पिछला भाग उठता है-आ, ओ, उ, ऊ, ओ, औं।

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ मूल स्वर हैं तथा ऐ, औ संयुक्त स्वर। इन समस्त स्वरों को मौखिक कहा जाता है यदि इनमें , लग जाता है तो अँ, ऊँ, ई आदि अनुनासिक हो जाते हैं।

व्यंजन- उच्चारण स्थान की दृष्टि से व्यंजनों के अधोलिखित भेद हैं-

कोमल तालव्य- क, ख, ग, घ, ङ

मूर्धन्य- ट, ठ, ड, ढ, ण, ष

तालु वर्त्स्य- च, छ, ज, झ, ञ, ण

तालव्य-

वत्स्य- न, न्ह, स, ज, ल, ल्ह, र, र्ह

दन्त्य- त, थ, द, ध

ओष्ठ्य- प, फ, ब, भ, म, व

दन्त्योष्ठ्य- फ, व

जिह्वामूलीय- क, ख, ग

नासिक्य- ङ, ज, ण, न, म

काकल्य-

पार्श्विक- कभी-कभी कुछ ध्वनियों के उच्चारण में हवा जीभ के पक्षों (पार्श्व) से निकल जाती हैं, इन्हें पाश्विक ध्वनि कहते हैं, जैसे-ल।

लुंठित- इस प्रकार की ध्वनियों में जीभ के नोंक से लुढ़कती हुई निकलती है, जैसे- र।

उत्क्षिप्त- इस प्रकार की ध्वनियों के उच्चारण में जीभ का उत्क्षेप होता है। जीभ मूर्धा से टकराकर थोड़ा आगे खिसक जाती है, जैसे-ड, ढ़,

अल्पविवृत्त—इसमें मुख द्वार थोड़ा खुला रहता है। जैसे-य, व

बाह्य प्रयत्न के अनुसार-

सघोष- ऐसी ध्वनियों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों परस्पर निकट रहती हैं, जिससे कम्पन या तरंग पैदा होती है; जैसे-ग, घ, ङ, ज, झ, ङ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म, य, र, ल व।

अघोष- इनके उच्चारण में स्वरतन्त्रियाँ दूर रहती हैं। अतः कम्पन नहीं होता–क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष।

बाह्य प्रयत्न के अन्तर्गत प्राणत्व- के आधार पर भी ध्वनियों का वर्गीकरण किया जाता है। प्राण का शाब्दिक अर्थ वायु या वायु की शक्ति है। कुछ व्यंजनों के उच्चारण में श्वास-वायु का जोर अधिक लगता है कुछ में कम। जिसके उच्चारण में अधिक बल लगता है उन्हें महाप्राण और जिसमें कम बल लगता है उन्हें अल्पप्राण कहते हैं। महाप्राण में ह ध्वनि का किंचित समावेश रहता। हिन्दी व्यंजनों की स्थिति इस प्रकार है-

अल्यप्राण- क, ग, ङ, च, ज, ब, ट, ड, ण, त, द, न, प, ब, म, इ, र, ल

महाप्राण- ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ढ

अनुनासिकता के आधार पर-

  1. मौखिक-क, ख, ट, ठ
  2. अनुनासिक-कं, खं, गं
  3. नासिक्य-ऊ , ण, न, म

विशेषताएँ- देवनागरी भारत की व्यापक तथा प्रधान लिपि है। इसकी लोकप्रियता अन्य लिपियों से अधिक है। यह विश्व की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि है-

  1. इसमें 11 स्वर और 35 व्यंजन ध्वनियाँ हैं। संयुक्त व्यंजन क्ष, त्र, ज्ञ इनके अतिरिक्त है। नई ध्वनियों के लेखन की आवश्यकता तथा विदेशी ध्वनियों के आगमन को ध्यान में रखकर ड, ढ, क, ग, ज, फ को भी देवनागरी में स्थान दिया जाने लगा है।
  2. देवनागरी अक्षरों का नाम ध्वनि के अनुकूल है। जैसे—ग, अंग्रेजी में जी (G) (प्रयोग ग के लिए) इसी प्रकार आई (I) का प्रयोग इ ध्वनि के लिए होता है।
  3. प्रत्येक ध्वनि का अपना एक निश्चित चिह्न है। जैसे-अंग्रेजी में S स, ज दोनों है और क के लिए C,K,Q तीन लिपि चिह्नों का प्रयोग किया जाता है।
  4. देवनागरी में जितना लिखा जाता है उतना पढ़ा भी जाता है। इसमें कोई ध्वनि साइलेन्ट (मूक) नहीं रखी जाती। इसके विपरीत रोमन में Half, walk, Knife में L और K साइलेन्ट हैं।
  5. स्वरों और व्यंजनों का क्रम बड़ा वैज्ञानिक है-पहले हृदय स्वर फिर दीर्घ क से म तक स्पर्श व्यंजन य से व तक अन्तस्थ स, ष, श, ह ऊष्म व्यंजन हैं। वर्ग का पहला वर्ण सघोष हैं। पाँचवें वर्ण (ङ, ब, न, ण, म) अनुनासिक हैं।
  6. देवनागरी वर्गों में लिखा गया शब्द अपेक्षाकृत कम जगह घेरता है। जैसे-नार्दर्न (उत्तरी) Northern, अम्बरीष Ambrish, धर्म Dharma
  7. देवनागरी के संयुक्त व्यंजन भी स्पष्ट रूप से उच्चरित होते हैं। जैसे-सच्चा, अच्छा, अंग्रेजी के grass, Bate आदि में संयुक्त वर्ण का स्पष्ट उच्चारण नहीं होता।
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Pankaja Singh

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