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देवनागरी लिपि का इतिहास | खड़ी बोली | पालि | भाषा सामाजिक सम्पत्ति है

देवनागरी लिपि का इतिहास | खड़ी बोली | पालि | भाषा सामाजिक सम्पत्ति है

देवनागरी लिपि का इतिहास

देवनागरी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800 ई0) के एक शिलालेख में मिलता है। 8वीं शताब्दी में राष्ट्रकूट नरेशों में भी यही लिपि प्रचलित थी और 9वीं  शती में बड़ौदा के ध्रुवराज ने भी अपने राज्यादेशों में इसी लिपि का प्रयोग किया है। यह लिपि भारत के सर्वाधिक क्षेत्रों में प्रचलित रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, आदि प्रान्तों में उपलब्ध शिलालेखों, ताम्रपत्रों, हस्तलिखित प्राचीन ग्रन्थों में देवनागरी लिपि का ही सर्वाधिक प्रयोग हुआ है।

आजकल देवनागरी की जो वर्णमाला प्रचलित है, वह 11वीं शती में स्थिर हो गई थी और 15वीं शती तक उसमें सौन्दर्यपरक स्वरूप का भी समावेश हो गया था। ईसा की 8वीं शती में जो देवनागरी लिपि प्रचलित थ। उसमें वर्गों की शिरोरेखाएं दो भागों में विभक्त थीं जो 11वीं शती में मिलकर एक हो गयीं।

11वीं शती की यह लिपि वर्तमान में प्रचलित है और हिन्दी, संस्कृत मराठी भाषाओं को लिखने में प्रयुक्त हो रही है। देवनागरी लिपि पर कुछ अन्य लिपियों का प्रभाव भी पड़ा है। उदाहरण के लिए गुजराती लिपि में शिरोरेखा नहीं है, आज बहुत से लोग देवनागरी में शिरोरेखा का प्रयोग लेखन में नहीं करते। इसी प्रकार अंग्रेजी की रोमन लिपि में प्रचलित विराम चिन्ह भी देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी ने ग्रहण कर लिये हैं।

खड़ी बोली

खड़ी बोली का अर्थ है स्टैण्डर्ड या परिनिष्ठित भाषा खड़ी बोली संज्ञा मूलतः

कौरवी को साहित्यिक भाषा बनने के पश्चात प्राप्त हुई। परिनिष्ठित भाषा के रूप में इसमें अन्य बोलियों के आवश्यक तत्वों को भी ग्रहण किया गया है। बोली रूप में इसे कौरवी कहना ही अधिक समीचीन है। हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्यूलर आदि अन्य नामों से भी इसे पुकारा गया है।

इसका क्षेत्र रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी हिस्से, अम्बाला के पूर्वी भाग, कलसिया और पटियाला के पूर्वी भाग तक विस्तृत है। शुद्ध कौरवी का क्षेत्र गंगा और यमुना के उत्तरी दोआब (देहरादून का मैदानी हिस्सा, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और मेरठ के पूरे जिले एवं बुलन्दशहर जिले का अधिकांश उत्तरी भाग) तक सीमित है। अवशिष्ट क्षेत्र की बोली अन्य भाषाओं से प्रभावित है। बोलनेवालों की संख्या एक करोड़ से अधिक है।

मूल कौरवी में लोक-साहित्य उपलब्ध है जिसमें गीत, गीत-नाटक, लोककथा, गप्प, पहेली आदि हैं। कौरवी से विकसित खड़ीबोली के साहित्यिक मंडार की विशालता सर्वविदित हैं। आधुनिक काल में खड़ीबोली ही ज्ञान-विज्ञान, पठन-पाठन तथा लेखन की माध्यम भाषा है।

अ, आ, इ, ई, ठ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, आँ सामान्य स्वर हैं। और पूर्वी बोलियों में संयुक्त स्वर हैं किन्तु इसमें मूल स्वर है। आँ का प्रयोग केवल अंग्रेजी शब्दों से साथ ही नहीं बल्कि हिन्दी में भी होता है, जैसे-गाँय। ऐ भी मूल स्वर है, जैसे पैसा, अवधी की तरह इसे पइसा नहीं कहते।

पालि

आचार्य बुद्धघोष ने ‘अट्ठ कथाओं में ‘पालि’ शब्द का प्रयोग ‘बुद्ध-वचन’ या ‘मूल-त्रिपिटक के पाठ’ अर्थ में किया है। यथा-‘इमावि ताव पालियं अट्ठकथायपन’ (विसुद्धमग्ग)। इसी प्रकार दीपवंस, चूकवंश आदि में ‘पालि’ शब्द का प्रयोग ‘बुद्ध-वचन’, ‘मूल त्रिपिटक’ अर्थ में किया है।

भिक्षु सिद्धार्थ ने ‘पालि’ शब्द का मूल संस्कृत ‘पाठ’ शब्द माना है। उनकी अवधारणा है कि वेदपाठी ब्राह्मण जब बौद्ध हुए तो पूर्व परिचित ‘वेद पाठ’ के लिए प्रयुक्त ‘पाठ’ का प्रयोग बुद्ध- वचनों के लिए भी करने लगे। क्रमशः वही ‘पाठ’ शब्द ‘पाल >पालि >पालि’ हो गया। उक्त अवधारणा के लिए आवश्यक है कि ‘पाल’ शब्द का प्रयोग पालि-साहित्य में हो, किन्तु भिक्षु जी ने इस दिशा में कोई उद्धरण नहीं दिया है।

भाषा सामाजिक सम्पत्ति है

(भाषा अर्जित की जाती है। भाषा चिर परिवर्तनशील है)

भाषा का समाज में गहरा सम्बन्ध है एक विशेष भाषा-भाषी समाज प्रत्येक सदस्य की यह सारी संपत्ति है। एक मानव शिशु जिसे समाज में पाला-पोसा जाता है, उसी से वह भाषा सीखता है। मानव समाज से बाहर रहकर कोई भी भाषा नहीं सीख सकता है उदाहरण के लिए एक बालक जिनको की बचपन में भेड़िए उठाकर ले गए थे, वह मानव भाषा नहीं सीख पाया, वरन भेड़िये की ही भाषा बोलता था।’ इससे यह सिद्ध होता है कि भाषा सामाजिक सम्पत्ति है, समाज के बिना भाषा का कोई अस्तित्व नहीं है।

भाषा परंपरा से प्राप्त होती है, फिर भी प्रत्येक सदस्य को उसे अर्जित करना पड़ता है। प्रत्येक बच्चे में सीखने की नैसर्गिक बुद्धि अलग-अलग होती है। जिस तरह वह चलना, खाना-पीना सीखता है उसी प्रकार बोलना भी। जिस वातावरण में और परिवेश में बच्चा रहता है उसी की भाषा को वह अर्जित (सीखता) है।

भाषा मानव जीवन का आविष्कार है, अपने जीवन व्यवहार के लिए ही ध्वनि संकेतों को सार्थकता प्रदान की है, मानव जीवन को नए आविष्कारों नए क्रियाकलापों नए विचारों के लिए जब- जब आवश्यकता हुई उसने नए ध्वनि संकेत बना लिए। समाज में उन्होंने संकेतों का प्रचलन किया और भाषा समृद्ध होती चली गई। इससे स्पष्ट है कि भाषा मानव जीवन से ही होता है।

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Pankaja Singh

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