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अपभ्रंश | अपभ्रंश भाषा | अपभ्रंश के भेद | अपभ्रंश की विशेषताएं

अपभ्रंश | अपभ्रंश भाषा | अपभ्रंश के भेद | अपभ्रंश की विशेषताएं

अपभ्रंश

अपभ्रंश भाषा- अपभ्रंश भाषा आरम्भ से ही शब्द ग्रहण एवं व्याकरण की दृष्टि से उदार थी अपनी इसी उदारता के कारण सह संस्कृत प्राकृत की परिनिष्ठत परम्परा से विचलित होकर लोक परम्पराओं की ओर मुड़ती गई। बारहवीं शताब्दी तक परिनिष्ठत अपभ्रंश ग्राम्यं अपभ्रंश की अपेक्षा  कुछ भिन्न हो गई थी। साहित्य-सृजन की प्रक्रिया में भाषा स्थिर एवं परिनिष्ठित होती जाती है। हेमचन्द्र के समय तक अपश भाषा का रूप बहुत कुछ स्थिर हो गया था। हेमचन्द्र ने व्याकरण लिखकर अपभ्रंश को स्थिर करने में विशेष सहयोग किया। अपभ्रंश का प्रयोग स्वाभाविक रीति से हुआ।

अपभ्रंश के भेद

अपांश का व्यापक प्रचार-प्रसार होने के कारण इसके अनेक क्षेत्रीय भेदों और उपभेदों का होना स्वाभाविक है। रुद्रट ने देश विदेश से अपभ्रंश के मुख्यतः तीन भेद स्वीकार किए गए-

(i) नागर (ii) उपनागर (iii) वाचड

मार्कन्डेय ने कुल भेदों की संख्या 27 बताई है।

अपभ्रंश की विशेषताएं

ध्वनि व्यवस्था-अवहट्ट की ध्वनि-व्यवस्था अपभ्रंश के लगभग समान ही है। स्वरों में मुख्यतः अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ, ए, ओ के ही प्रयोग होते रहे संयुक्त स्वर ऐ, औ क्रमशः ए, ओ अथवा अइ, अउ रूप में ही स्वीकृत है।

व्यंजन परिवर्तन-अपभ्रंश में प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के शब्दारम्भ में आने वाले सभी व्यंजन न, य, श, ष को छोड़कर प्रायः सुरक्षित हैं। इनका परिवर्तन क्रमशः ण, ज, स में हुआ है, जैसे-नागर > णायर, यदि > जइ, शाखा > साहा।

शौरसेनी प्राकृ

इसका प्रयोग संस्कृत नाटकों के प्राकृत भाषा के गद्यांशों में हुआ है। अश्वघोष, भास, कालिदास के नाटकों और बहुत से नाटकों में इस भाषा के उदाहरण प्राप्त होते हैं। इस भाषा की उत्पत्ति शूरसेन या मथुरा प्रदेश में हुई है। वररुचि ने शौरसेनी को संस्कृत से उत्पन्न माना है। इस भाषा के लक्षण एवं उदाहरण वररुचि, हेमचन्द्र, क्रमदीश्वर, लक्ष्मीधर, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणों ने दिये हैं। शौरसेनी भाषा का समय ईसवी प्रथम या द्वितीय शताब्दी माना जाता है।

शौरसेनी की विशेषताएँ

  1. शौरसेनी में अनादि में वर्तमान असंयुक्त त् का ‘द्’ होता है। यथा-एतस्मात्-एदाओ।
  2. शौरसेनी में वर्णान्तर के अधः वर्तमान त का ‘द’ होता है । यथा-महान्तः-महन्दो, निश्चिन्तः-निच्चिन्दो।
  3. शौरसेनी में तावत् के आदि त का दकार होता है । यथा-तावत्दाव-ताव।
  4. शौरसेनी में आमन्त्रण वाले ‘सु’ के पर में रहने पर पूर्ववाले नकारात्मक शब्द के ‘म’ के स्थान पर विकल्प से ‘य’ होता है। यथा-भो रायं (भो राजन), भो विअयवम्म (भो विजयवर्मन्)।
  5. शौरसेनी में ये के स्थान पर विकल्प से य्य आदेश होता है । यथा-सूर्यः-सुय्यो, अज्जो- आर्यः, पज्जाकुलो-पर्याकुलः।
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Pankaja Singh

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