उपचार वक्रता | विचलन | काव्य भाषा एवं सामान्य भाषा में भेद | वैदिक एवं लौकिक संस्कृति का परिचय
उपचार वक्रता (मानवीकरण रचना वृत्ति)
मानवीकरण रचना वृत्ति स्वयं में शब्दों-शब्दों में पिरोयी गयी एक भाषिक अभिव्यक्ति है और अपने समूचेपन में वह शब्दार्थ, वाक्य विन्यास (रचना), अनुच्छेद, अध्याय एवं अपनी समग्रता का सन्दर्भ पा जाती है। उसकी छोटी अर्थात् लघु इकाई शब्द है। इसलिए काव्य अर्थात् कविता की परिभाषा इस रूप में दी जाती है कि ‘शब्द ही काव्य है’ काव्य अर्थात् कविता की भाषिक प्रस्तुति होते शब्द ही पूर्णतया उत्तरदायी है।
भारतीय काव्य भाषा चिन्तन में कथन की वक्रतापूर्ण या भंगिमागर्भित उक्ति एवं पश्चिमी काव्य चिन्तन में अलंकरण (फिगरेशन) को विशेष महत्त्व दिया गया। 18वीं से लेकर बीसवीं शताब्दी तक के काव्य में वहाँ भाषिक संरचना में मानवीकरण (personification) को विशेष महत्त्व दिया गया- विशेषकर रोमांटिक कविता में इसकी स्थिति महत्त्वपूर्ण मानी गई। भारतीय काव्य चिन्तन में यह 9वीं शताब्दी में ही प्रचलन और सिद्धान्त रूप में आ चुका था और आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति सिद्धान्त के विभाजन में मानवीकरण जैसी प्रवृत्ति को ‘उपचार वक्रता’ के नाम से सम्बोधित किया है।। यह उपचारवक्रता वक्रोक्ति सिद्धान्त के पद पूर्वार्धवक्रता का दूसरा भेद है, जिसके अन्तर्गत विशेष प्रकार की लाक्षणिक (उपचार) प्रवृत्ति द्वारा भाषिक काव्य सरचना की जाती है। इसके तीन भेद है-
(क) जहाँ अचेतन वर्ण्यवस्तु पर चेतन वस्तु का आरोप किया जाता है।
(ख) जहाँ चेतन वस्तु विषय पर अचेतन वस्तु विषय का आरोपण होता है।
(ग) जहाँ दृश्यमान वस्तु पर अदृश्य वस्तुओं के गुणों या धर्मों का आरोप हो।
विचलन (सभिप्राय/चयन विचलन)
शब्दों के रूढ़ अर्थ को छोड़कर किसी दूसरे अर्थ में उनका प्रयोगत अर्थ विचलन है। विचलन का अर्थ होता है पथ से भ्रष्ट होना। विचलन को शैली का प्रमुख अभिलक्षण माना जाता है। वक्ता अपने अनुभवों तथा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जब यह अनुभव करता है कि विशिष्ट ध्वनि संरचना से निर्मित शब्द रूप रूढ़ अर्थों की संकेतक शब्दावली वाक्य संरचना में एक निश्चित क्रम में नियोजित संरचना उसके नितान्त वैयक्तिक और अद्वितीय अनुभवों को व्यक्त करने में सक्षम है।
व्याकरणिक रूपों में स्थान पर अप्रचलित रूपों का प्रयोग रूप विचलन कहलाता है।
पदबन्ध विचलन- इसके अन्तर्गत पदबन्धों के क्रम में परिवर्तन किया जाता है।
वाक्य विचलन- इसके अन्तर्गत वाक्य को अपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया जाता है। आवश्यकतानुसार कभी उद्देश्य का, कभी क्रिया का और कभी दोनों का लोप कर दिया जाता है।
काव्य भाषा एवं सामान्य भाषा में भेद (अन्तर)
काव्य भाषा एवं सामान्य भाषा में अन्तर निम्नलिखित हैं-
(i) साहित्य का रूप काव्य भाषा में निर्मित होता है।
(ii) सामान्य भाषा से अलग काव्य भाषा के प्रयोग में रचनाकार पाठक की संवेदना को उत्तेजित कर जाग्रत करता है।
(iii) काव्य भाषा की संरचना सामान्य भाषा से जटिल होती है। उनमें अर्थ की अनेक परतें होती हैं।
(iv) सामान्य भाषा का अर्थ रूढ़ और निश्चित होता है काव्यभाषा में अर्थों की श्रृंखला फूटती है जैसे तराशे गये रत्नों से सतरंगी किरणें निकलती हैं।
(v) काव्यभाषा के संबंध में अज्ञेय कई महत्वपूर्ण संकेत देते हैं सामान्य भाषा से इसको अलग करने के लिए अज्ञेय ने अनुभव की भाषा कहा है।
(vi) सामान्य भाषा सन्देश प्रधान होती है और काव्य भाषा संवेदना प्रधान सामान्य भाषा की अपेक्षा काव्य भाषा अधिक व्यंजक, अलंकृत, लाक्षणिक एवं चमत्कारी होती है।
(vii) सामान्य भाषा की उपकरणों की सीमा स्पष्ट होती है और काव्य भाषा की गरिमा प्रतिष्ठित होती है।
सामान्य भाषा में लिखी कविताएं भावुकता से परिचालित होती है जबकि काव्यभाषा में संवेदना कविता में रूपांतरित होती है।
वैदिक एवं लौकिक संस्कृति का परिचय
वैदिक संस्कृत-
वैदिक संस्कृत 2000 ईसा पूर्व से लेकर 600 ईसा पूर्व तक बोली जाने वाली एक हिन्द आर्य भाषा थी। यह संस्कृत की पूर्वज भाषा थी। और हिन्दुओं के प्राचीन वेद धर्मग्रन्थ वैदिक संस्कृत में लिखे गये हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में श्रौत जैसे सख् नियमित ध्वनियों वाले मंत्रोच्चारण की हजारों वर्षों पुरानी परम्परा के कारण वैदिक संस्कृत के शब्द और उच्चारण इस क्षेत्र में लिखाई आरम्भ होने से पहले से सुरक्षित हैं। ऋग्वेद की वैदिक संस्कृत, जिसे ऋग्वैदिक संस्कृत कहा जाता है, सब से प्राचीन रूप है। पाणिनि के नियमिकरण के बाद की शास्त्री संस्कृत और वैदिक संस्कृत में काफी अंतर है इसलिए वेदों को मूल रूप में पढ़ने के लिए संस्कृत ही सीखना पर्याप्त नहीं बल्कि वैदिक संस्कृत भी सीखनी पड़ती है। वैदिक संस्कृत का ‘यजामहे’ प्राचीन ईरानी भाषा में गजामड़े था। वैदिक संस्कृत छान्दस के नाम से भी जाना जाता था। आगे चलकर संहिता ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् में वैदिक संस्कृत का रूप अनेक परिवर्तनों के साथ क्रमशः विकसित होता है।
प्रो० देवेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है, ‘जिस भाषा में ऋग्वेद की रचना हुई है, वह । बोलचाल की भाषा न होकर उस समय की परिनिष्ठित, साहित्यिक भाषा थी। उसके समानान्तर लोक-भाषा भी रही होगी, किन्तु लिखित साहित्य के अभाव में उसे जानने का आज कोई साधन नहीं है। वैदिक भाषा से ही संस्कत का विकास हआ है। यों, एक मत यह भी है कि संस्कत का विकास वैदिक के बदले तद्युगीन किसी बोली से हुआ है जो अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण बन गयी। संस्कृत शब्द से वैदिक का भी बोध होता है, किन्तु उससे भेद दिखाने के लिए संस्कृत के पहले लौकिक विशेषण लगा दिया जाता है। संस्कृत उस समय की शिष्ट भाषा थी जो बोलचाल के अतिरिक्त साहित्य रचना का भी माध्यम थी। उसमें अभिव्यञ्जना की कुछ ऐसी विशेषताएं आ गयीं कि हजारों वर्षों के बाद आज भी वह अपना महत्त्व बनाये हुए है।’
लौकिक संस्कृति-
लौकिक संस्कृत-साहित्य साहित्य से अनेक प्रकार का भेद पाया जाता है। वैदिक साहित्य शुद्धतः धार्मिक है तथा इसमें सभी लौकिक तत्वों का बीज समाहित है। लौकिक संस्कृत साहित्य प्रधान रूप से धार्मिक-धर्मनिरपेक्ष हैं अथवा धर्म में इसे लोक-परलोक से ही सम्बन्धित कहा जा सकता है।
वैदिक संस्कृत में भाषा के तीन स्तर उपलब्ध होते हैं- उत्तरी, मध्यदेशीय और पूर्वी। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन ऐतिहासिक और भौगोलिक रूपों के समानान्तर बोलचाल के भी उत्तरी, मध्यदेशीय और पूर्वी-इन तीनों रूपों का प्रचलन रहा होगा। लौकिक संस्कृत का आधार, इन तीनों के प्रथम अर्थात् ‘उत्तरी’ रूप बोलचाल का ही माना जाता है। वैसे, आगे चलने पर वह शेष दो रूपों में भी प्रभावित हुई होगी। साहित्य में प्रयुक्त भाषा के रूप में संस्कृत का प्रारम्भ 8वीं शताब्दी ई० पू० से होता है। साहित्यिक या क्लासिकल संस्कृत की आधार भाषा का बोलचाल में प्रयोग लगभग 5वीं शताब्दी ई0 पू0 या कुछ क्षेत्रों में उसके पश्चात्वर्ती काल तक प्रचलित रहा।
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