हिन्दी की उपभाषाओं का सामान्य परिचय | पश्चिमी हिन्दी | राजस्थानी हिन्दी | पूर्वी हिन्दी | बिहारी हिन्दी | पहाड़ी हिन्दी
हिन्दी की उपभाषाओं का सामान्य परिचय
आज हिन्दी का प्रयोग पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार की भाषाओं के लिए किया जाता है। इस व्यापक क्षेत्र में हिन्दी के अनेक उपरूप तथा बोलियाँ हैं। हिन्दी शब्द उन सभी उपभाषाओं तथा बोलियों का प्रतिनिधित्व करता है। आजकल हिन्दी शब्द का व्यवहार परिनिष्ठित साहित्यिक तथा प्रशासनिक कामकाज में प्रयुक्त हिन्दी भाषा के लिए होता है। हिन्दी की अन्य बोलियों के लिए बोली-विशेष का नाम अवश्य लिया जाता है।
उपभाषाएँ- हिन्दी प्रदेश पर्याप्त विस्तृत है। आधुनिक भाषाओं के विकास के पूर्व इस प्रदेश में मुख्यतः पाँच प्राकृतें प्रचलित थी। उपनागर अपभ्रंश से राजस्थानी, शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी, अर्धमागधी से पूर्वी हिन्दी, मागधी से बिहारी हिन्दी, खस से पहाड़ी हिन्दी का विकास हुआ। इस प्रकार हिन्दी की पाँच उपभाषाएं हुई-
(i) राजस्थानी हिन्दी (ii) पश्चिमी हिन्दी (iii) पूर्वी हिन्दी (iv) बिहारी हिन्दी (v) पहाड़ी हिन्दी
इन भाषाओं की अपनी खास साहित्यिक परम्परा है। इनकी अपनी बोलियाँ और उपबोलियाँ हैं। इनमें से किसी एक की कोई बोली साहित्यिक स्तर को प्राप्त करके सारे मध्य देश की सामान्य भाषा बनती रही है।
राजस्थानी हिन्दी
राजस्थान प्रदेश की भाषा का नाम राजस्थानी है। इसके अतिरिक्त यह सिन्ध और मध्य प्रदेश के भी कुछ भागों में बोली जाती है। ग्रियर्सन ने राजस्थान के भाषा रूपों के लिए इसे एक सामूहिक नाम के रूप में प्रयुक्त किया है। राजस्थानी का प्राचीन रूप डिंगल व्यापक रूप से साहित्यिक व्यवहार की भाषा थी। अनेक रासो ग्रन्थों, ‘ढोला मारू-रा दूहा’, ‘किसन रुक्मिणी री बेलि’ आदि में इसी भाषा का प्रयोग किया गया है। राजस्थानी कवयित्री मीरा, सन्त कवि दादू दयाल, चरणदास और हरिदास आदि की वाणियाँ प्रसिद्ध ही हैं। राजस्थानी में गद्य की भी परम्परा मिलती है। राजस्थानी की अनेक बोलियाँ और उपबोलियाँ हैं। जिनमें चार बोलियाँ प्रमुख हैं-
(i) मारवाड़ी (ii) जयपुरी (iii) मेवाती (iv) मालवी।
पश्चिमी हिन्दी
इस उपभाषा का क्षेत्र पश्चिम में पंजाबी और राजस्थानी की सीमा से आरम्भ होकर पूर्व में अवधी, बघेली की सीमा, उत्तर में पहाड़ी, दक्षिण में मराठी की सीमा तक विस्तृत है। इस उपभाषा के क्षेत्र के अन्तर्गत पाँच प्रमुख बोलियां बोली जाती हैं-
(i) खड़ी बोली, (ii) बांगरू (iii) ब्रजभाषा (iv) कन्नौजी (v) बुन्देली
पूर्वी हिन्दी
पश्चिम में कानपुर से पूर्व में मिर्जापुर, उत्तर में लखीमपुर-नेपाल की सीमा से दक्षिण में दुर्ग- बस्तर की सीमा तक पूर्वी हिन्दी का क्षेत्र हैं। अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी इसकी तीन प्रमुख बोलियाँ हैं। इन बोलियों में पारस्परिक साम्य अन्य उपभाषा की बोलियों से अधिक है। इन बोलियों में साहित्यिक महत्ता सिर्फ अवधी की है। इन बोलियों में ण ध्वनि के स्थान पर न, ल के स्थान पर र तथा श, ष के स्थान पर स बोला जाता है। य, व को क्रमशः ए, उ अथवा ज, ब बोलते हैं। जैसे-युवा > जुवा, यश > जस, वकील > बकील / उकील, यह जेह। शब्दों के मध्य तथा अन्त में ड ध्वनि नहीं आती। ऐ, औ मूलस्वर न होकर संयुक्त स्वर हैं। ऐ का उच्चारण अइ और औ का उच्चारण अउ होता है, जैसे-पैसा = पइसा, औरत = अउरत।
पूर्वी हिन्दी की तरह विहारी में भी संज्ञा के दो-तीन रूप प्रचलित हैं, जैसे-सोनार, सोनरवा, सोनरउ। तृतीय (करण कारक) में परसर्गों के अलावा विभत्त्यात्मकता भी अवशिष्ट हैं, जैसे-रघुएँ (रघु से)। प्रमुख कारकीय परसर्गों का विवरण इस प्रकार है-
कर्ता-
कर्म-सम्प्रदान- के, कें, लाग, वास्ते, लेल, खातिर
करण-अपादान- से, सै, सअ, सेती
सम्बन्ध- क, के, केर, कै, केरा
अधिकरण- मे, मो, में, परि, पर
बिहारी हिन्दी
बिहारी हिन्दी का क्षेत्र वर्तमान बिहार प्रान्त है। बिहारी की एक प्रमुख बोली भोजपुरी का अधिकांश क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश में पड़ता है, ऐसी स्थिति में बिहारी नाम समीचीन नहीं रह जाता। बिहारी के अन्तर्गत दो अन्य प्रमुख बोलियाँ मैथिली और मगहीं हैं। इन बोलियों में इतनी विषमता है कि डॉ0 सुनीत कुमार चटर्जी जैसे श्रेष्ठ भाषा वैज्ञानिक इन्हें एक वर्ग में रखना उचित नहीं समझते। मैथिली में साहित्यिक रचनाओं की परम्परा मिलती है।
बिहारी उपभाषा पूर्वी हिन्दी की तरह अकार बहुला है, अर्थात् शब्दों का अन्त अ से अधिक होता है। पूर्वी हिन्दी में अन्त अ का उच्चारण प्राय: नहीं किया जाता। इसलिए उच्चारण में शब्द व्यंजनान्त होते जा रहे हैं। बिहारी में अ का स्पष्ट उच्चारण होता है, जैसे—रामऽ, कमऽला। शेष ध्वनियों में बिहारी तथा पूर्वी हिन्दी में समरूपता है।
पहाड़ी हिन्दी
पहाड़ी क्षेत्रों की बोली होने के कारण इसे पहाड़ी हिन्दी कहा गया है। नेपाली, कुमायूंनी, तथा गढ़वाली इसकी प्रमुख बोलियां हैं। साहित्यिक प्रयोग की दृष्टि से क्रमश: नेपाली तथा गढ़वाली महत्वपूर्ण हैं। प्राचीन काल में यहाँ अनार्य जातियाँ निवास करती थीं। किन्तु इस क्षेत्र में ऋषियोंमनियों के साधना केन्द्र स्थापित हो जाने से आर्यभाषाओं का प्रभाव बढ़ता रहा।
पहाड़ी की ध्वनि व्यवस्था प्रायः हिन्दी के समान है। आ का उच्चारण कहीं-कहीं अधिक विवृत्त है। ए, ऐ का उच्चारण तत्सम शब्दों के साथ अइ, अउ या आइ, आउ करने का प्रयत्न किया जाता है। व्यंजन ध्वनियों में ल, ड, ढ, न्ह, म्ह, रह, लह भी प्रयुक्त होते हैं। स्वरों में सानुनासिक स्वरों का आधिक्यं है।
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