पश्चिमी हिन्दी की प्रमुख बोलियां | पश्चिमी हिन्दी की प्रमुख बोलियों का वर्गीकृत | पश्चिमी हिन्दी की भाषिक विशेषताएँ
पश्चिमी हिन्दी की प्रमुख बोलियां
ग्रियर्सन महोदय ने पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत पांच बोलियों का उल्लेख किया है-खड़ी बोली, बांगरू, ब्रजभाषा, कनौजी, बुन्देली।
डॉ० भोलानाथ तिवारी ‘निमाड़ी’ को भी इसी के अन्तर्गत मानते हैं। डॉ० हरदेव बाहरी पश्चिमी हिन्दी के दो वर्गों— आकार बहुला तथा ओकार बहुला का उल्लेख करते हैं। उन्होंने दक्खिनी हिन्दी को भी इसी वर्ग में रखा है। मुख्यतः इस वर्ग में छह बोलियाँ हैं।
इन बोलियों में कौरवी तथा ब्रजभाषा प्रतिनिधि बोलियाँ हैं। शेष हरियाणी, दक्खिनी, कौरवी की, बुन्देली और कनौजी ब्रजभाषा की उपबोलियाँ हैं।
खड़ी बोली या कौरवी
खड़ीबोली का अर्थ है स्टैण्डर्ड या परिनिष्ठित भाषा। खड़ीबोली संज्ञा मूलतः कौरवी को साहित्यिक भाषा बनने के पश्चात् प्राप्त हुई। परिनिष्ठित भाषा के रूप में इसमें अन्य बोलियों के आवश्यक तत्त्वों को भी ग्रहण किया गया है। बोली रूप में इसे, कौरवी कहना ही अधिक समीचीन है। हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्यूलर आदि अन्य नामों से भी इसे पुकारा गया है।
इसका क्षेत्र रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी हिस्से, अम्बाला के पूर्वी भाग, कलसिया और पटियाला के पूर्वी भाग तक विस्तृत है। शुद्ध कौरवी का क्षेत्र गंगा और यमुना के उत्तरी दोआव (देहरादून का मैदानी हिस्सा, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और मेरठ के पूरे जिले एवं बुलन्दशहर जिले का अधिकांश उत्तरी भाग) तक सीमित है। अवशिष्ट क्षेत्र की बोली अन्य भाषाओं से प्रभावित है। बोलनेवालों की संख्या एक करोड़ से अधिक है।
मूल कौरवी में लोक-साहित्य उपलब्ध है जिसमें गीत, गीत-नाटक, लोक-कथा, गप्प, पहेली आदि हैं। कौरवी से विकसित खड़ीबोली के साहित्यिक भंडार की विशालता सर्वविदित है। आधुनिक काल में खड़ीबोली ही ज्ञान-विज्ञान, पठन-पाठन तथा लेखन की माध्यम भाषा है।
अ, आ, इ, ई, ठ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, आं सामान्य स्वर हैं। और पूर्वी बोलियों में संयुक्त स्वर है किन्तु इसमें मूल स्वर है। ऑ का प्रयोग केवल अंग्रेजी शब्दों से साथ ही नहीं बल्कि हिन्दी में भी होता है, जैसे-गॉय। ऐ भी मूल स्वर है, जैसे पैसा, अवधी की तरह इसे पइसा नहीं कहते।
खड़ी बोली की विशेषताएं
खड़ीबोली या कौरवी का व्याकरण परिनिष्ठित हिन्दी से बहुत भिन्न नहीं है। आ से अन्त होनेवाले पुल्लिग संज्ञा शब्द तिर्यक एकवचन और मूल बहुवचन में प्राय: एकारान्त होते हैं। बहुवचन का तिर्यक् रूप ओंकारान्त तथा ऊंकारान्त दोनों प्रचलित हैं, जैसे लोन्डा-लोन्डे, लोन्डों, लोन्डूं, बेट्टा, बेटे, बेट्टों, बेटयूँ। परिनिष्ठित हिन्दी में ऊं रूप नहीं चलता। कुछ शब्द एकवचन तथा बहुवचन में एक समान रहते हैं, जैसे—पत्थर, धोबी आदि। स्त्रीलिंग शब्दों का बहुवचन रूप एंकारान्त और आकारान्त दोनों होते हैं, जैसे-बातें और बातां।
परसर्गो- का विवरण इस प्रकार हैं-
कर्ता- ने, (बिना परसर्ग के भी वाक्य बन जाते हैं, जैसे—वह (ओह) दिया।
कर्म- को, कू, (ने का प्रयोग भी होता है) जैसे—मैंने जाणा है (मुझको जाना है) ने के स्थान पर कहीं-कहीं यूँ भी प्रचलित है।
करण-अपादान- से का प्रयोग अधिक व्यापक है। सेत्ती, ते, सों, का भी प्रचलन है।
सम्बन्ध- का, के, की।
अधिकरण- में, पै, प, पे।
सर्वनाम-
उत्तम पुरुष | एकवचन | बहुवचन |
मैं (में) | हम | |
मैंने | हमने | |
तिर्यक् | मझ, मुजको | हमको |
मेरा | हमारा, म्हारा | |
मध्यमपुरुष | तू, | तम |
तिर्यक् | ते, तुझको | तमें |
तेरा | तुम्हारा या थारा | |
अन्य पुरुष | ऊ, ओ, ओह | वो, वोह, वे |
तिर्यक् | उस | उन |
(यह) ई, ए, यू, यो, या अन्य रूप हैं।
उच्चारण और ध्वनि भेद के कारण जो, जौन, कौन, ऐसा, अभी आदि क्रमश: जो, जोण, कोण, असा, में परिवर्तित हो जाते हैं। जब, तब को जिब, तिब कहते हैं, कितने का संक्षिप्त रूप कै, कोई का को, क्या का के रूप प्रचलित हैं।
क्रिया रूप- खड़ीबोली के ग्रामीण रूप अर्थात् कौरवी में वर्तमान कृदन्त परिनिष्ठित हिन्दी की तरह त रूप नहीं होता। सम्भाव्य वर्तमान से ही सामान्य वर्तमान का काम चल जाता है। जैसे में मारू हूँ (मैं मारता हूँ। में जाऊँ हूँ (मैं जाता हूँ।)
भूतकालिक कृदन्त आ न होकर या है जैसे-चल्या, मिल्या, गिया (गया)। भूत निश्चयार्थ वर्तमान की तरह रहता है सिर्फ भूत की सहायक क्रिया लगा दी जाती है, जैसे—मैं मारता था = मैं मारूं था।
भविष्यत् में ग रूप ही है किन्तु उच्चारण द्वित्व हो जाता है। जैसे-खाऊंगा। क्रिया रूपों में संक्षिप्तीकरण की भी प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। जैसे-जांगा (जाऊंगा), खांगे (खाएंगे)।
सहायक क्रिया-वर्तमान
उत्तम पुरुष | एकवचन | बहुवचन |
हूं | हैं | |
मध्यम पुरुष | हे | हो |
अन्य पुरुष | हे | हों |
भूत | था | थे |
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