भारतीय समाज की प्रकृति | भारतीय समाज की संक्षिप्त रूपरेखा | भारतीय समाज की मुख्य विशेषताएँ
भारतीय समाज की प्रकृति
भारतीय समाज पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि भारतीय समाज- व्यवस्था काफी पुरानी है और उसका विकास ठीक से हुआ है। संसार की श्रेष्तम सामाजिक व्यवस्था भारत से शुरू हुई। विश्व जब अंधकार में या उस समय भारतीय समाज सुदृढ़ रूप से गठित था। ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीन काल में भारतीय समाज धर्माधारित था और वर्णाश्रम धर्म ही समाज मे पाया जाता था। सभी लोगों को पुरुषार्थ, कर्म आदि का जीवन में पालन करना पड़ता था। बाद में जातियाँ व्यवसाय-कर्म के अनुसार दृढ़ हो गई। संयुक्त परिवार की प्रथा समाज में सर्वत्र पाई गई। मध्यकाल में मुसलमानों के आक्रमण हुए तथा उनका शासन की स्थापना हो जाने से यहाँ की प्राचीन संस्कृति अपनी जगह रही और उसके साथ-साथ इस्लामी संस्कृति का भी प्रचार हुआ, इस्लाम धर्म चलाया गया, धर्म-संघर्ष भी हुआ परन्तु भारतीय समाज सहिष्णु बना रहा और यत्र-तत्र परिवर्तन भी हुआ जिससे समायोजन सम्भव हुआ। भारतीय समाज की अपनी पुरानी व्यवस्था और भी दृढ़ हो गई।
आधुनिक काल में ईसाई धर्म और ईसाई संस्कृति फैली और विदेशी (अंग्रेजी) शासन भी हो गया। पुनः भारतीय समाज में परिवर्तन आया, लोगों के दृष्टिकोण बदते और नई शिक्षा प्रणाली का भी आविर्भाव हुआ इससे भारतीय शासन और समाज, शिक्षा एवं संस्कृति का स्वरूप भी बदला, जीवन स्तर में जो अन्तर आया उसने भारतीय समाज- व्यवस्था में उलटफेर कर दिया। आधुनिक काल में अंग्रेजी शासन समाप्त हुआ और स्वशासन भारतीयों द्वारा आरम्भ हुआ। जनतंत्रीय शासन के साथ-साथ जनतंत्रीय समाज की भी सृष्टि हुई। स्वतंत्रता, समानता, अस्पृष्यता और सामाजिक न्याय पर नई संरचना बनाई गई। प्राचीन परिदृढ़ता और कट्टरता खतम कर दी गई। जातीय परम्पराएँ लुप्त- प्राय हो रही हैं। धर्म की ओर निरपेक्षता और उपेक्षा भी समाज के लोगों में पायी जाती है। जनतंत्र की विशेषताएँ समाज में पाई जा रही हैं और इसके फलस्वरूप हरेक व्यक्ति स्वतंत्रता का अनुभव व प्रयोग करता है। स्वतंत्रता अधिकतर स्वच्छन्दता का रूप धारण करती जा रही है जिससे समाज में अरक्षा बढ़ गई है। जनतंत्र ने ‘राजनीति’ का ऐसा प्रचार किया कि समाज में राजनीति घुस गई और जातीयता, दलबन्दी, संकीर्णता और साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता आदि बुरी भावनाओं के शिकार समाज और उसके सदस्य हो गये हैं ऐसा लगता है कि आधुनिक भारतीय समाज विघटित हो रहा है जहाँ शान्ति नहीं, सुरक्षा नहीं, सुसंगठन नहीं, सुव्यवस्था नहीं है। भविष्य में क्या होगा? यह कहना सरल नहीं है।
भारतीय समाज की संक्षिप्त रूपरेखा-
भारतीय समाज भारत राष्ट्र और देश में स्थापित संस्था है। ऐसी संस्था की कुछ अपनी निजी विशेषताएँ हैं जिन्हें जानना जरूरी है-
(1) भौगोलिक दशा- चूँकि भारत देश काफी बड़ा और विस्तृत है-उत्तर में पहाड़ी प्रदेश, मध्य में मैदानी पठारी भाग पूरब, पश्चिम में विभिन्न मैदानी उपजाऊ प्रदेश और दक्षिण में अधिकतर पठारी और कम उपजाऊ प्रदेश है। ऐसी दशा में हरेक स्थान पर भौगोलिक परिस्थिति और संसाधनों के आधार पर विभिन्न प्रकार का सामाजिक संगठन पाया जाता है।
(2) जनसंख्या का स्वरूप- भारत की जनसंख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है और लगभग 75-80 करोड़ नर-नारी यहाँ बसते हैं। इसके अलावा विभिन्न जातियों व व्यवसाय के लोग हैं और आपस में भिन्न पाए जाते हैं । भारतीय शासन के सामने इनके कल्याण की बड़ी समस्या है जिससे परिवार नियोजन एवं जनसंख्या वृद्धि को रोकने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।
(3) लिंग भेद-वैवाहिक संबंध- स्त्री व पुरुष की संख्या लगभग बराबर है परन्तु दोनों के जीवन स्तर में काफी अन्तर है फलस्वरूप स्त्री-समाज पुरुष-समाज से पिछड़ा है । फिर भी यथासम्भव स्त्री-समाज को समान सुविधा और अवसर हरेक क्षेत्र में दिया जा रहा है। प्राचीन भारतीय समाज में वैवाहिक संबंध जातीय आधार पर होता रहा है लेकिन अब ऐसा बंधन नहीं है यद्यपि अधिकांश लोग विवाह सम्बन्ध बनाने में जातीय प्रथा का पालन करते हैं।
(4) भाषा की भिन्नता- भारत देश इतना बड़ा है कि यहाँ 826 भाषाएँ बोली जाती हैं | 103 अभारतीय भाषाएँ भी हैं। आज के भारतीय संविधान में केवल 14 भाषाओं को प्रमुख स्थान मिला है। हिन्दी राष्ट्रभाषा और अंग्रेजी ‘लिंक’ भाषा है। भाषा अलग- अलग है परन्तु भारतीय समाज में एकरूपता लाने की कोशिश हो रही है।
(5) धर्म की भिन्नता- भाषा के समान भारत में कई धर्म पाए जाते हैं। प्रमुख धर्म हैं-हिन्दू, ईसाई, इस्लाम, सिख, बौद्ध और जैन । सबसे अधिक हिन्दू धर्म मानने वाले हैं (50 करोड), इससे कम इस्लाम धर्म मानने वाले, ईसाई धर्म मानने वाले और अन्य धर्म मानने वाले हैं। संविधान के अनुसार धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त देश में अपनाया गया है लेकिन व्यक्तिगत जीवन में कुछ को छोड़ कर भी अपने अपने धर्म का पालन दृढ़ता से करते हैं। इसका प्रभाव समाज के संगठन पर काफी पड़ता है । एकता के स्थान पर विभेद मिलता है।
(6) ग्रामीण और नगरीय समाज- भारत में गाँव अधिक हैं और वहाँ की जनसंख्या भी अधिक है। लगभग तीन चौथाई जनसंख्या गांवों में बसती है, परन्तु देश में औद्योगिक विकास के कारण, सेवा में नियुक्तियों के कारण और अन्य कामों व्यवसायों में लगने के कारण गांवों की बहुत बड़ी जनसंख्या नगरों में बसती जा रही है जिससे शहरों में मकानों व स्थान की भारी कमी हो गयी है। दूसरी ओर ग्रामीण समाज का नगरीकरण भी किया जा रहा है जिससे प्रगति अधिक हो सके।
(7) सामाजिक प्रणाली में परिवर्तन और गतिशीलता- अपने पुराने समाज में जाति-व्यवस्था, विवाह-प्रणाली, परिवार प्रणाली, उद्योग-व्यवसाय प्रणाली, स्तरीकरण प्रथा आदि में काफी परिवर्तन एवं गतिशीलता आ गई है। आज जाति-पांति तोड़ने पर लोग तुले हैं। अन्तर्जातीय विवाह को प्रश्रय मिल रहा है। संयुक्त परिवार के स्थान पर एकाकी परिवार बनते जा रहे हैं। पैतृक उद्योग धन्धे लोग छोड़ते जा रहे हैं और नए व्यवसाय- कार्य करते हैं। व्यवसाय उद्योग छोड़ कर नौकरी की ओर शिक्षितों का ध्यान जा रहा है। समाज में नौकरी की मांग है। शिक्षित और अर्द्धशिक्षित तथा अशिक्षित काफी मात्रा में बेकार हैं। इनको राज्य के द्वारा आर्थिक सहायता दी जा रही है कि वे स्वतः रोजगार करने में लगें। जनतंत्र के कारण समाज गतिशील बन गया है और समाज में नेतागीरी का बोलबाला हो गया है। शासन पक्ष के नेता प्रशासनाधिकारियों पर भी रोब जमाए हैं। ऐसी स्थिति में अधिकतर अधिकारी नाजायज काम करते पाए जाते हैं। लेकिन ये सब गतिशीलता और परिवर्तन ही बताते हैं।
(8) शिक्षा प्रणाली- प्राचीन, मध्य और आधुनिक काल की भारतीय समाज व्यवस्था में शिक्षा प्रणाली पाई जाती है जिनमें काफी अन्तर मिलता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली के सम्बन्ध में डॉ० ए० एस० अल्तेकर लिखते हैं कि “ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता की भावना, चरित्र-निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य तथा आदर्श थे। इस के अनुकूल व्यापक पाठ्यक्रम होता था, गुरु-शिष्य की परम्परा से पढ़ाई होती थी, गुरु का घर विद्यालय होता था, दोनों में अटूट, समीपी सम्बन्ध होता था।
मध्यकाल या मुस्लिम काल के शिक्षा भी धार्मिक आधार पर बनी थी। “शिक्षा देना व लेना अधिक श्रेष्ठ समझा जाता था।” इस काल में मकतब और मदरसे मस्जिदों व पुस्तकालयों या बड़े, धनीमानी लोगों के घर पर बनाए गए थे। इसमें पाठ्यवस्तु व्यापक थी, बहुत से विषय थे-भाषा, धर्म, इतिहास, दर्शन, कानून, तर्कशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, युद्ध कौशल, उद्योग-धन्धे की शिक्षा सभी थे।
वर्तमान समय में अंग्रेजी शासन और इसके अन्तर्गत स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय शिक्षा का अत्यन्त व्यवस्थित रूप बनाया गया। 1854 से लेकर 1966 तक बहुत से आयोग, समितियां एवं संस्थाएँ बनीं जिन्होंने शिक्षा का स्वरूप बदला और समाज की माँग एवं परिस्थिति के अनुसार शिक्षा का स्वरूप-उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षा-विधि, विद्यालय सभी बनाए गए। यहीं से एक नया अध्याय शिक्षा के क्षेत्र में खुला जिसे सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के पाने के अधिकारी बन गए। उनके दृष्टिकोण बदल गए। उनका जीवन-स्तर ऊपर उठा और समाज के दोषों को दूर करने में समाज के सभी सदस्यों ने सहयोग दिया। इससे शिक्षा की नयी नीति (1986) में बनाई गई और एक नया ढाँचा भी तैयार किया गया।
शिक्षाशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
- शैक्षिक समाजशास्त्र का महत्व | शैक्षिक समस्याओं के समझने में किस प्रकार सहायक
- एकीकरण तथा विभेदीकरण और शिक्षा | एकीकरण का अर्थ | सामाजिक एकीकरण का अर्थ | सामाजिक एकीकरण के साधन | सामाजिक एकीकरण और शिक्षा
- विभेदीकरण का तात्पर्य | सामाजिक विभेदीकरण का तात्पर्य | सामाजिक विभेदीकरण एवं सामाजिक स्तरीकरण में अन्तर | सामाजिक विभेदीकरण के आधार | सामाजिक विभेदीकरण तथा शिक्षा
- सामाजिक गतिशीलता और शिक्षा | सामाजिक गतिशीलता का अर्थ | सामाजिक गतिशीलता की परिभाषा | सामाजिक गतिशीलता की विशेषताएं | सामाजिक गतिशीलता के प्रकार
- सामाजिक गतिशीलता का शिक्षा पर प्रभाव | सामाजिक गतिशीलता पर शिक्षा का प्रभाव
- सामाजिक परिवर्तन और शिक्षा | सामाजिक परिवर्तन का अर्थ | सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन का स्वरूप | सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ | सामाजिक परिवर्तन के कारक
- सामाजिक परिवर्तन का शिक्षा पर प्रभाव | सामाजिक परिवर्तन पर शिक्षा का प्रभाव
Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- [email protected]