सामाजिक परिवर्तन का शिक्षा पर प्रभाव | सामाजिक परिवर्तन पर शिक्षा का प्रभाव
सामाजिक परिवर्तन का शिक्षा पर प्रभाव
सामाजिक संगठन में शिक्षा को भी शामिल किया जाता है तभी तो शिक्षा को एक सामाजिक प्रक्रिया कहा गया है। संस्कृति समाज की विरासत है और संस्कृति का एक ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, भाषा-साहित्य और संगीत भी है जिनका सम्बन्ध शिक्षा से होता है। अतएव इस दृष्टि से भी शिक्षा समाज से सम्बन्धित होती है और आज तो हम “समाज-शिक्षा’ की बात करने लगे हैं जो व्यापक रूप से पूरे समाज के सङ्गिीण विकास की प्रक्रिया कही गई है। ऐसी दशा में हमें सामाजिक परिवर्तन का शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ता है यह भी जानना चाहिए।
(i) शिक्षा का स्वरूप निर्धारित होना- सामाजिक परिवर्तनों के कारण ही शिक्षा का स्वरूप आज सामाजिक प्रक्रिया के रूप में निश्चित हुआ है। प्राचीन काल में ‘सा विद्या या विमुक्तये’ उसका स्वरूप था। आज शिक्षा समस्त सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हो गई है। शिक्षा का स्वरूप राष्ट्र के आर्थिक साधनों पर निर्भर होता है।
(ii) शिक्षा का उद्देश्य बदलना- सामाजिक परिवर्तनों के कारण आज शिक्षा का उद्देश्य आर्थिक, व्यावसायिक और औद्योगिक विकास हो गया है। दूसरा उद्देश्य समाजोपयोगी नागरिकों का निर्माण है। अतएव अब शिक्षा केवल ज्ञान के लिए नहीं दी जाती है। राष्ट्र एवं शासन जिस ढंग का होता है उसी के अनुकूल शिक्षा का उद्देश्य भी होता है। जैसे साम्यवादी राष्ट्र में जनतन्त्रवादी राष्ट्र की अपेक्षा शिक्षा का उद्देश्य भिन्न है। साम्यवाद का प्रचार ही शिक्षा का उद्देश्य है।
(iii) शिक्षा की नीति में परिवर्तन- आधुनिक काल में जनतन्त्र की स्थापना और राष्ट्रीय नीति शासन के द्वारा निश्चित होती है। उदाहरण के लिये अपने देश में 1971 ई० में शिक्षा की समाजवादी-नीति निश्चित हुई। आज भी समाज शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा के विकास की नीति का पालन हो रहा है। देश में लड़कियों की हाईस्कूल तक की शिक्षा निःशुल्क है, लड़कों के लिये केवल 6 वीं कक्षा तक निःशुल्क शिक्षा की नीति है। इसी प्रकार से प्राथमिक शिक्षा को सभी के लिये अनिवार्य बनाने की नीति है। देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये शिक्षा के व्यावसायीकरण की नीति अपनाई गई है। इससे विज्ञान और तकनीकी शिक्षा का प्रचार किया जावे ऐसी नीति बनी है।
(iv) शिक्षा के पाठ्यक्रम पर प्रभाव- सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव से शिक्षा का पाठ्यक्रम भी बदल जाता है। अपने देश में प्राचीन काल में धार्मिक शिक्षा दी जाती रही तो आज व्यावसायिक शिक्षा दी जाने के लिये पाठ्यक्रम बनाया गया है। शिक्षा का पाठ्यक्रम आजकल बहुमुखी हो गया है जिससे सभी लोग अपनी आवश्यकता एवं योग्यता के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने में समर्थ हो सकें।
(v) शिक्षा की विधि में परिवर्तन- आज समाजवादी भावना के होने से शिक्षा की विधि भी सहकारी हो गयी है। इसके अलावा शिक्षा देने के लिये श्रव्य-दृश्य सामग्रियों का प्रयोग हो रहा है। शिक्षण मशीन, प्रयोगशाला, कर्मशाला आदि विधियों का प्रयोग बढ़ रहा है। सेमिनार, कॉनफ्रेन्स, सिम्पोजियम जैसी नई विधियाँ प्रयोग की जा रही हैं। यह सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव को प्रकट करता है।
(vi) शिक्षालय, शिक्षक और शिक्षार्थी पर प्रभाव- सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव से आज विद्यालय केवल विद्या के स्थान नहीं रहे वे समाज के केन्द्र हो गये हैं, जहाँ समाज के सभी कार्यक्रम सम्पादित हों ऐसा दृष्टिकोण बन गया है। दूसरी ओर भारत में विद्यालय राजनीति के अखाड़े हैं जहाँ शिक्षक एवं शिक्षार्थी राजनीति के सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। जैसे सरकारें होती हैं और उनमें पार्टी के झगड़े खड़े होते हैं वैसे विद्यालय में भी अभिनय होता है और इसके फलस्वरूप हड़तालें, परीक्षा का बाहिष्कार, अध्यापक- अध्यापक और छात्र-छात्र तया अध्यापक और छात्र में संघर्ष, पुलिस और छात्र में संघर्ष यह तो दैनिक होता रहता है। इसी तरह से मैनेजिंग कमेटी में भी अध्यापक एवं छात्र का संघर्ष चलता रहता है। देश की नैतिकता के पतन से विद्यालय में छात्र एवं अध्यापक तथा अधिकारियों और मैनेजर आदि कर्तव्यच्युत हो गये हैं और विद्यालय शोषण का एक साधन बना है। यह सब सामाजिक परिवर्तन के प्रभावों को स्पष्ट प्रदर्शित करते हैं।
सामाजिक परिवर्तन पर शिक्षा का प्रभाव
जिस प्रकार शिक्षा पर सामाजिक परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है वैसे ही शिक्षा का प्रभाव सामाजिक परिवर्तन पर भी पड़ता है। यहाँ हमें इसी प्रभाव पर विचार करना है।
(i) सामाजिक जीवन पर शिक्षा का प्रभाव- शिक्षा व्यक्ति को सामाजिक जीवन के लिये तैयार करती है। जिस प्रकार से संकुचित या व्यापक शिक्षा दी जावेगी उसी के अनुरूप समाज का जीवन भी होता है। आज जनतंत्रवादी शिक्षा के कारण ही छात्र अपने अधिकारों की माँग करता है और युवा छात्र समाज में उलट-फेर के लिये तैयार रहते हैं और कदम उठाते हैं। भारत को आजादी दिलाने में छात्र एवं अध्यापक ही आगे रहे। इसी प्रकार समाज के भ्रष्टाचार को दूर करने में भी शिक्षा का हाथ होता है। नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा के द्वारा समाज को धर्म-परायण बनाया जाता है। लोगों के दृष्टिकोण बदलने एवं सामाजिक परिवर्तन लाने के लिये इस प्रकार शिक्षा एक शक्तिशाली साधन है।
(ii) सामाजिक चेतना लाने में शिक्षा का हाथ- शिक्षा लेकर समाज के लोग निश्चय ही समाज के प्रति सचेतन हो जाते हैं। जब समाज के नागरिक समाज की जरूरतों को जानते हैं तो वे तदनुकूल सुधार की माँग करते हैं और समाज को सुधारने का प्रयास करते हैं। स्वामी दयानन्द, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी, आदि समाज-सुधारक बने क्योंकि वे शिक्षित थे, समाज की बुराइयों से परिचित थे और समाज को ऊँचा उठाने, समाज में परिवर्तन लाने में वे सफल भी हुये। अतएव शिक्षा सामाजिक चेतना लाने का साधन है।
(iii) समाज में नए विचारों का प्रचार और प्रसार- इतना तो स्पष्ट ही है कि शिक्षा मनुष्य को नये विचार प्रदान करती है। लोगों को आधुनिकतम ज्ञान देने का माध्यम विद्यालय और अध्यापक होते हैं। अतः स्पष्ट है कि समाज के नये विचारों के प्रचार एवं प्रसार के लिये शिक्षा माध्यम होती है। इन्हीं नये विचारों के प्रचार एवं प्रसार से ही तो सामाजिक परिवर्तन होते रहते हैं। इस प्रकार शिक्षा सामाजिक क्रान्ति का अग्रदूत है। (Education is the forerunner of social revolution.)
(iv) समाज के मूल्यों एवं प्रतिमानों का व्यावहारिक प्रयोग एवं समन्वय- शिक्षा लोगों में नये विचार देकर उनमें नये मूल्य एवं नये प्रतिमान भी उत्पन्न करती है। साथ ही साथ इन्हें व्यवहार में लाने के लिये अवसर भी प्रदान करती है। विद्यालय के कार्यक्रमों में अध्यापक एवं छात्रों के द्वारा जो भाग लेना होता है वहीं इन मूल्यों एवं प्रतिमानों का प्रयोग होता है। अतएव शिक्षा ऐसी स्थिति लाकर सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा देती है।
(v) समाज की संस्कृति का संरक्षण एवं हस्तान्तरण- शिक्षा का एक कार्य समाज की विरासत जिसे संस्कृति कहा जाता है, को सुरक्षित करना और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित करना होता है। यह कार्य सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित होता है। फलस्वरूप यहाँ भी शिक्षा का प्रभाव सामाजिक परिवर्तन पर पाया जाता है।
(vi) समाज के आधुनिकीकरण पर शिक्षा का प्रभाव- शिक्षा के द्वारा समाज के लोगों की मनोवृत्ति में परिवर्तन लाया जाता है, नया वातावरण देकर उनमें नवीनता के प्रति रुचि उत्पन्न की जाती है, नई प्रवृत्ति, नई रुचि, नई चेतना होने से मनुष्य समाज को आधुनिक बनाने का पूरा-पूरा प्रयास करता है। आधुनिकीकरण समाज की नवीन आवश्यकताओं से परिचय होने तथा तदनुकूल शैक्षिक सामग्री, सुविधा एवं साधन प्रस्तुत करने और आवश्यक शोध करने में पाया जाता है। आज शिक्षा के द्वारा इस आधुनिकीकरण को लाना सम्भव हो गया है। कहा भी गया है-
सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप में अध्यापक का कार्य-
आज समाज में परिवर्तन लाने का कार्य अध्यापक के हाथ में दे दिया गया है। ऐसी व्यवस्था प्रगतिशील देशों में है यद्यपि अपने देश में अध्यापक की स्थिति गिरी हुई है। लोगों को समाज के दोषों के प्रति सचेत करना अध्यापक का काम है। अध्यापक ही समाज को आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील बनाता है, रास्ता दिखाता है और आगे ले जाने में समर्थ होता है क्योंकि वह अनुभव-ज्ञान से परिपूर्ण पाया जाता है। अध्यापक को स्वयं भी निर्दोष, गुणवान, सक्रिय और आगे बढ़ने वाला होना चाहिए तभी वह आदर्श नायक हो सकता है। अपनी क्षमताओं को वह एक अच्छी दिशा में लगाकर सामाजिक परिवर्तन कर सकता है। एक योग्य अध्यापक, एक योग्य नागरिक एवं कर्ता के रूप में ही वह सामाजिक परिवर्तन ला सकता है। अतएव उसकी क्रिया एवं भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
निष्कर्ष
ऊपर के विचारों से स्पष्ट है कि सामाजिक परिवर्तन एवं शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध, होता है और दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शिक्षा समाज की देन और समाज शिक्षा की देन है यह सत्य है। इस कोठारी कमीशन की रिपोर्ट में मिलता है कि शिक्षा को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन के लिए एक शक्तिशाली साधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इस विचार से कहा भी गया है कि “बिना किसी संघर्षयुक्त क्रान्ति के यदि वह परिवर्तन बड़े पैमाने पर उपलब्ध करना है तो केवल एकमात्र साधन है शिक्षा। “यह एक निश्चित और प्रयोग किया गया साधन है जिसने सभी देशों को अपने विकास के संघर्ष में अच्छी तरह सेवा की है।”
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