लक्ष्मीनारायण लाल की एकाकी व्यक्तिगत | डॉ. लक्ष्मीनाराण लाल की एकाकी कला की विशेषता
लक्ष्मीनारायण लाल की एकाकी व्यक्तिगत
डा. लक्ष्मीनारायण लाल उन एकांकीकारी में से है जो जीवन की आलोचना बुद्धि विकास से नहीं, प्रत्युत भावना के माध्यम से करते हैं। ये भावना का तूफान लेकर एकांकी जगत में प्रविष्टि हुए । और अपनी प्रखर अनुभूति से एक अभिनव चमत्कार उत्पन्न कर देते हैं। आपका मन भावना से अनुभूति को बिलता और मानव के आन्तरिक कार्य व्यवहार से उमड़ा पड़ता है।
डॉ. लाल एकांकी को उन तत्वों के आधार पर खड़ा करते हैं, जहाँ तक विवाद या शाब्दिक आलोचना काम नहीं करती। मनुष्य की भावना का उलन ही घटनाओं, व्यापारों के औचित्य- अनौचित्य का निर्णय करता है। इसमें एक अतुलस्पर्शी हूक उफनी पड़ती है। व्यथा और अन्तर्वेदना का समुद्र लहरा रहा है।
लक्ष्मीनारायण जी का आदर्श कलावाद है। आप सौंदर्य, प्रेम और शिवत्व के उपासक हैं। उन्होंने सौन्दर्य, संगीत तथा कष्ट, पीड़ा, वेदना आदि उभय पक्षों का कलामय प्रतिपादन किया है। मनुष्य विशेषतः स्त्री के हृदय का भावुक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, उद्वेश, तीव्रता उभार कर रख दी गयी है।
प्रश्न उठता है कि नाटककार का उद्देश्य क्या है? ‘पर्वत के पीछे’ संग्रह की भूमिका में स्वयं लेखक ने अपना उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखा है, “मैं ऐसे नाटक लिखना चाहता हूँ जिनमें कोई बदसूरती बेनकाब कर दी गयी हो, कोई घिनौना नासूर घाव साफ करके दिखा दिया गया हो, स्वप्न में रोता हुआ इन्सान के आँसुओं को मूर्त कर दिया हो।” इन्होंने अपने सभी एकांकियों में इन्हीं विरूपताओं को अंकित करने का सफल प्रयत्न किया है।
आपके एकांकी नाटकों में कथानक बिन्दुमात्र, किन्तु भावना का सम्मिश्रण तथा कल्पना की रंगीनी अधिक रहती है। उसमें संवेगात्मकता की मात्रा यथेष्ट है। सामाजिक नाटकों के कथानक मौलिक और यथार्थवादी हैं। ऐतिहासिक एकांकियों में कथानक की कमी की पूर्ति भी भावना के द्वारा की गयी हैं, यथा –
‘महाकाल मन्दिर’ मगध के सम्राट पुष्यमित्र के शासन काल में नष्ट होते हुए मौर्य साम्राज्य के पतन का चित्र उपस्थित करता है। इसमें चित्रित किया गया है कि किस प्रकार मन्दिरों में धर्म के नाम पर विलासिता का प्रचार प्रारम्भ हो गया था, मन्दिर में पुजारियों का शासन था, नर्तकियाँ स्वच्छन्द रूप से नृत्य करती थीं, मदिरा पान की जाती थी। अशोक का धर्मानुशासन समाप्त हो चुका था। मौर्य साम्राज्य घटाघोप अन्धकार में भटक रहा था। इस पृष्ठभूमि पर नाट्यकार ने नर्तकी चित्रा तथा वासुमित्र की प्रेम-कथा, धर्म पाखण्डियों का पर्दाफाश और मौर्य साम्राज्य को बचाने के लिए आत्म-बलिदान का एक चित्र खींचा है।
‘उर्वशी’ भावात्मक शैली में कला के लिए आदर्श चित्रित करती है। इसमें प्रेम की उपेक्षा भरी हृदय की कसक, वेदना और पुरुष का हृदय विजित करने के लिए विविध घात-प्रतिघात चित्रित किये गये हैं। ‘उर्वशी’ में चरित्र तो महाभारतकाल के हैं पर उसका गठन बहुत अंशों में आधुनिक हो गया है। उर्वशी की ओर से असावधानी उस अर्जुन के लिए बहुत स्वाभाविक नहीं लगती, जिसका उद्देश्य उस समय दिव्यास्त्रों की प्राप्ति और महाभारत के भावी युद्ध में विजय प्राप्त करना है। उर्वशी अपना प्रणय निवेदन अर्जुन से जिन शब्दों में करती है-जितना खुलकर और जितने भावावेश में करती है- वह थोड़ा चिन्त्य हो उठा है। इसमें भावावेश अधिक है।
‘आकाश की ऊंचाई तथा ‘पर्वत के पीछे’ में स्त्री पुरूष में स्त्री पुरूष दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाले एकांकी सगृहीत हैं। सामाजिक एकांकियों के मध्य में समाज पर व्यंग्य और ध्वंसात्मक आलोचना अधिक रहती है। पात्र प्रधान तथा परिस्थितियाँ गौड़ हैं। आप किसी विचार को लेकर कथानक की सृष्टि करते हैं।
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल के एकांकियों में भावना की नवीनता है। मौलिकता कथानक की न होकर भावनाओं की है। पुराने पात्रों को लेकर लेखक ने अपनी सम्पूर्ण अनुभूति और रस प्रवीणता एकांकियों में उड़ेल दी है, सिद्धान्त के ऊपर कला का आधिपत्य है। विचार से पूर्व आपका कवि-हृदय उद्वेलित हुआ है। अतः इनके साहित्य की महत्ता ऐतिहासिक जीवन को मूर्तिमान कर देने में हैं। डॉ. रामकुमार की भावात्मक पद्धति पर चल कर आपने पीड़ा, कसक, असमर्थता, घात-प्रतिघात के अनेक संघर्षमय क्षत्र चित्रित किये हैं। प्रसाद की भांति इनकी अन्तरात्मा मनुष्य की वेदना और असमर्थता को नहीं सम्हाल पाती। आपने अपने एकांकियों में मुगल काल विशेषत: नूरजहाँ, जहाँगीर, शाहजहाँ, जहाँआरा इत्यादि पात्रों को बड़े भावपूर्ण ढंग से चित्रित किया है।
आपने भावना-प्रधान तीखे किन्तु व्यंग्यमिश्रित एकांकियों का सृजन किया है, किन्तु भावना के साथ-साथ कहीं-कहीं मनोवैज्ञानिक तथ्यों की उपेक्षा हो गई है। यद्यपि व्यंग्यों में संयम और तर्क का समावेश है फिर भी चरम सीमा पर ही उनकी परिसमाप्ति हो जाती है। व्यर्थ में व्याख्यान में आपका विश्वास नहीं है। मुख्य भावना के समीपस्थ तत्सम्बन्धी अनुभूतियों का ही समावेश होता है।
सामाजिक एकांकियों में दैनिक समस्याओं तथा मनोविश्लेषण का अच्छा विवेचन है। करुणा, शृंगार, वात्सल्य, घृणा आदि विकारों का उत्तम चित्रण करते हैं। आप आस्कर चाइल्ड तथा चेखोव से विशेषतः प्रभावित हैं। आपके एकांकियों में वस्तुवाद के विरुद्ध ध्वनि उठायी गयी है, जिसमें रंग-सूचनायें अंग्रेजी पद्धति की हैं अर्थात् विस्तृत कलापूर्ण और प्रभावव्यंजक। आप हृदयस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करने में विशेष कुशल है।
इनके कथोपकथन के दो गुण विशेषतः आकृष्ट करते हैं और वे हैं-तड़प और । भावात्मक स्तर पर रखकर आपने कुछ कथोपकथनों को इतना तीखा बनाया है कि वे प्रभावशाली हो उठे हैं। एकांकियों के कथानक जितने कसे हुए और प्रभावोत्पादक हैं, उतनी परिष्कृति और परिमार्जित भाषा नहीं है, फिर भी उनमें आधुनिक एकांकी शिल्प का सफल प्रयोग है। आपके अधिकांश एकांकी इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, पटना के रेडियो स्टेशनों से प्रसारित और सर्वत्र प्रशासित हो चुके है। आपका पौराणिक एकांकी ‘शरणागत’ रेडियो नाटक प्रतियोगिता में पुरस्कृत हो चुका है। कई एकांकी सफलतापूर्वक रंगमंच पर अभिनीत किये जा चुके हैं। निश्चय ही आपके एकांकियों ने हिन्दी रंगमंच की सम्भावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया है और आधुनिक एकांकी के नये द्वार खोले हैं।
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