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‘व्यक्तिगत’ एकांकी की समीक्षा | एकांकी कला के तत्वों के आधार पर ‘व्यक्तिगत’ एकांकी की समीक्षा | एकांकी कला की दृष्टि से डॉ. राम कुमार वर्मा कृत उत्सर्ग का मूल्यांकन

‘व्यक्तिगत’ एकांकी की समीक्षा | एकांकी कला के तत्वों के आधार पर ‘व्यक्तिगत’ एकांकी की समीक्षा | एकांकी कला की दृष्टि से डॉ. राम कुमार वर्मा कृत उत्सर्ग का मूल्यांकन

‘व्यक्तिगत’ एकांकी की समीक्षा

कथावस्तु-

‘व्यक्तिगत’ एकांकी श्री लक्ष्मीनारायण द्वारा लिखित एक सामाजिक किन्तु वास्तविक रूप से एक व्यक्तिगत ख्याति विशेष से जुड़ी एकांकी है। जिसमें वर्तमान समाज की एक प्रमुख समस्या पर प्रकाश डाला गया है। ‘व्यक्तिगत’ एकांकी का कोई विशेष कथानक नहीं है। केवल दो तीन पात्रों के विशेषकर दो पात्रों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन का आयोजन किया गया है। कथा आरमी से अन्त तक नीरस है। क्योंकि वह चिन्तन की उलझनों गुंथी हुई है। उसमें न कहीं उतार चढ़ाव है, न विकास है और न चरम सीमा है। वस्तुस्थिति तो यह है कि पाठक एक प्रेक्षक बराबर यही सोचता रहता है कि इसमें आखिर है क्या लेखक कहना क्या चाहता है।

मैं देखे वहीं बात हुई ना, तुम झट व्यक्तिगत बातों पर उतर आती हो। जबकि तुम जानती हो, मुझे एक से बढ़कर लड़की शादी में मिल रही थी। एक से एक मोटे दहेज। एक शादी तो इतनी बढ़िया थी कि मेरे पिता का राजनीतिक जीवन एकाएक चमक जाता। खैर, मैं व्यक्तिगत बातें नहीं करना चाहता।

वह -ये व व्यक्तिगत नहीं हैं, बकते जाओ।

(चलना)

वह – श्रीमती आनन्द कहती थीं-

मैं – यह नाम लेकर मुझे चिढ़ाना चाहती हो?

वह – कितना अच्छा नाम है – श्रीमती आनन्द।

मैं – चलो, मैं आता हूँ।

(छींकना)

वह – मेरा ख्याल है- आपस में बातें करने के बजाय, छींक लेना बेहतर है।

मैं – तुम्हारे साथ मैं खुलकर छींक भी तो नहीं सकता। बस, नाक में खुजली मच के रह जाती है

वह – (जाती हुई) यही तो रोग है

(चली जाती है। मैं छींकने और नाक साफ करने का बहाना करता है।)

मैं – जनाब! कुछ बातें हैं, जरूर हैं- पर सवाल यह है कि उन्हें कैसे कहा जाये। जैसे मुझे पता है, वह काफी दूर अभी नहीं गयी है, और मैं अपनी बातें आप सबको बिलकुल अपना समझ कर कह देना चाहता हूँ पर कहाँ से शुरू करूं। चलिए एक बार छींक ही लेता हूँ-शायद इसी तरह बात निकल आए। देखिए- छींक भी नहीं आई। ऐसे ही होता है, वक्त पर छींक भी नहीं आती। दरअसल में आप लोगों से कुछ सलाह लेना चाहता हूँ। जैसे शादीशुदा लोग आजकल चार बच्चों के मा-बाप होने के बाद परिवार नियोजन केन्द्र में जाकर डॉक्टर से सलाह लेना चाहते हैं, पर हिचकिचाते हैं, क्योंकि कुछ मामलों में उन्हें अधिक जानकारी चाहिए पर संदेह और संकोच। पर मुझे वैसा संदेह और संकोच नहीं हैं। मैं बड़े साफ दिल का आदमी हूँ- पर वह कहती हैं, मैं नहीं हूँ। मैं निःसंकोच कहता हूँ, पुरुष का लक्षण है-उसकी हर इच्छा की पूर्ति, चाहे जैसे। वह कहती है यह गलत है। मेरा ख्याल है हमने जितना कुछ साहित्य पढ़ा है, वह काफी नहीं है। आप जानते हैं सभी बातें पुस्तकों में नहीं लिखी जातीं। खासकर किताबों में हमारी निजी समस्याओं पर कतई विचार नहीं किया जाता।

चरित्र चित्रण-

व्यक्तिगत, एकांकी में दो ही प्रमुख पात्र हैं। ‘मैं’ और ‘वह’। दोनों की स्थिति प्रायः समान है। वे दोनों बाहर से प्रसत्र दिखाई देते हैं किन्तु तन थका हुआ है। खोखले और असन्तुष्ट हैं। उनका मन गिरा हुआ है और तन थका हुआ है, परन्तु अपनी आडम्बर प्रियता के कारण अपनी असलियत को छिपाने में प्रयत्नशील हैं, पर वे दोनों बराबर हँसते रहते हैं। जैसे जवान लड़के-लड़कियां आपस में चुहुलबाजी (नोंक-झोंक) करके हँसते हैं, नीरस और खोखली हंसी का यह चित्र इनके चरित्र एवं जीवन का चित्र उपस्थित करने में सर्वथा समर्थ है। लेखक वर्ग की सामान्यतः यही असलियत है।

संवाद या कथोपकथन-

‘व्यक्तिगत’ एकांकी तथा मनोवैज्ञानिक एकांकी है। मनोवैज्ञानिक एकांकी में संवादों की स्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। इसके संवाद पात्रों की मनः स्थितियों का उद्घाटन करने में सर्वथा समर्थ है। प्रत्येक पात्र संवाद के माध्यम से अपनी स्थिति को स्पष्ट करता चलता है। यथा-

लेखक की शैली में प्रवाह है और प्रसाद, गुण भी विद्यमान है। उसमें अस्पष्टता कहीं नहीं हैं। किन्तु माधुर्यगुण का अभाव अवश्य है।

देशकाल अथवा वातावरण-

प्रस्तुत एकांकी की कथावस्तु विषयवस्तु से सम्बन्धी वातावरण को प्रतिपादित करने में पूर्ण सक्षम है। उसमें यथा स्थान उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी का प्रयोग हुआ है। लेखक ने व्यक्तिगत जीवन के अनुरूप वातावरण की सफल योजना की है जिससे कथानक की घटनाएं स्वाभाविक और यथार्थ हो उठी हैं। इस प्रकार देशकाल की दृष्टि से प्रस्तुत एकांकी सर्वथा सफल है।

उद्देश्य –

प्रस्तुत एकांकी विचार प्रधान है। इसमें लेखक का एक मात्र उद्देश्य है- अपनी विचारधारा को स्पष्ट करना। हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता, रीति-रिवाज और आदर्शों का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ इस प्रभाव का बढ़ना स्वाभाविक है भी। किन्तु देश में प्राचीनता के समर्थकों की भी कमी नहीं है। ऐसे व्यक्तियों का विश्वास है कि जो कुछ प्राचीन भारतीय है वही श्रेष्ठ है। नया पाश्चात्य प्रभाव अच्छा नहीं है। इन दो विरोधी विचारधाराओं का परस्पर संघर्ष ही आज के समाज की मुख्य समस्या है।

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Pankaja Singh

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