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कोजर का संघर्ष सिद्धांत | कोजर के संघर्ष सिद्धांत की व्याख्या

कोजर का संघर्ष सिद्धांत | कोजर के संघर्ष सिद्धांत की व्याख्या | Coser’s conflict theory in Hindi | Explanation of Coser’s conflict theory in Hindi

कोजर का संघर्ष सिद्धांत

(Coser’s Conflict theory)

कोजर ने अपने संघर्ष के सिद्धांत को अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘The function of social conflict’ में प्रस्तुत किया है। कोजर के सिद्धांत को संघर्ष का प्रकार्यवाद कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने सामाजिक संघर्ष के प्रकार्यात्मक पक्ष को बतलाने का प्रयास किया है और यह बताने का प्रयास किया है कि लोगों की यह आम धारणा सही नहीं है कि सामाजिक संघर्ष केवल विघटनकारी परिणाम ही होते हैं। सच तो यह है सामाजिक संघर्ष का संगठनात्मक प्रकार्य कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। कोजर का सिद्धांत सामाजिक संघर्ष के इन्हीं संगठनात्मक प्रकारों पर टिका हुआ है।

कोजर के अनुसार यह सच है कि सामाजिक संघर्ष से दो प्रकार के संभावित परिणाम उत्पन्न होते हैं-एक तो संगठनात्मक परिणाम और दूसरा विघटनात्मक परिणाम।

सामाजिक संघर्ष से संगठनात्मक परिणाम उस अवस्था में नजर आते हैं, जबकि संघर्ष कर रहे विरोधी पक्षों (Partics) की समान अवस्था समाज के कुछ आधारभूत मूल्यों में होती है। उदाहरणार्थ लोकतंत्र के कुछ आधारभूत मूल्यों के आधार पर शासक दल और विरोधी दल संसद या विधानसभा के अंदर व बाहर-एक-दूसरे से टकराते हैं, चुनावी लड़ाई लड़ते हैं। परंतु इस प्रकार के टकराव या संघर्ष से हानि के स्थान पर लाभ ही होता है, क्योंकि टकराव व आलोचना के माध्यम से दोनों ही पक्षों को अपनी-अपनी कमियाँ मालूम हो जाती हैं और वे उन्हें दूर करके ऐसे कार्यों को करने का प्रयास करते हैं जिनसे अधिकाधिक लोकहित संभव हो।

इसके विपरीत, सामाजिक संघर्ष के विघटनात्मक परिणाम उस अवस्था में उत्पन्न होते हैं जबकि संघर्ष कर रहे विरोधी पक्षों की कोई आस्था समाज के आधारभूत मूल्यों में नहीं होती है और वे एक-दूसरे को मिटा देने का हर संभव प्रयास करते हैं। दो सेनाओं के बीच युद्ध या दो संप्रदायों के बीच दंगा-फसाद विघटनात्मक परिणामों को उत्पन्न करने वाले संघर्ष हैं जिनके कारण समाज में जान-माल की अत्यधिक हानि तो होती है, साथ ही समाज में ईर्ष्या, कटुता, अव्यवस्था, अराजकता व अशांति भी फैलती है। कोजर के मतानुसार अगर संघर्ष के इन अकार्यों को निकाल दिया जाए तो संघर्ष समाज या समूह के लिए हितकर ही होता है। आपके शब्दों में संघर्ष रूप में अकार्यात्मक कदापि नहीं हैं, अपितु समूह के निर्माण तथा स्थायित्व के लिए कुछ मात्रा में संघर्ष एक अनिवार्य या मौलिक तत्व है।

कोजर ने दो प्रकार के संघर्षों की व्याख्या की है

  1. यथार्थवादी (Realistic)
  2. अयार्थाबादी (Non-Realistic)

1. यथार्थवादी (Realistic)- ऐसे संघर्ष जो कतिपय लक्ष्यों के आधार पर कुछ परिणामों को प्राप्त करने के अनुमानों से उत्पन्न अथवा विफल हुए लक्ष्यों को पुनः प्राप्त करने की ओर निर्देशित होते हैं उन्हें यथार्थवादी संघर्ष कहते हैं। ऐसे संघर्ष यथार्थवादी इस अर्थ में होते हैं कि इनमें संघर्ष करनेवाले पक्षों के सामने कुछ यथार्थ लक्ष्य होता है और वे कुछ ठोस परिणामों की प्राप्ति के लिए ही आपस में टकराती है। स्पष्ट है कि यथार्थवादी संघर्ष में दो विरोधी पक्ष अपने-अपने लक्ष्यों की प्राप्ति पर अधिक बल देते हैं, न कि दूसरे पक्ष को नष्ट कर देने पर। अर्थात् एक पक्ष का उद्देश्य दूसरे पक्ष को नष्ट करना नहीं अपितु अपने-अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए होता है। उदाहरण के लिए लोकसभा या विधानसभा के चुनाव में जब दो विरोधी प्रत्याशी या उम्मीदवार आपस में चुनाव लड़ते हैं तो उनके दो विरोधी लक्ष्य होते हैं एक पक्ष तो अपने लिए विजयश्री प्राप्त करना चाहता है तो उसका विरोधी पक्ष उसे बैलेट बॉक्स की लड़ाई में पराजित करना चाहता है। दोनों ही पक्ष के लिए यह जय-पराजय का लक्ष्य ही यथार्थ होता है। इस प्रकार के संघर्षों को कोजर ने यथार्थवादी संघर्ष कहा है।

2. अयथार्थवादी (Non-Realistic)- इसके विपरीत अयार्थवादी संघर्ष में न तो लक्ष्य स्पष्ट होता है और न ही किंही विशिष्ट परिणामों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया जाता है। ऐसे संघर्ष में लक्ष्य या परिणाम महत्वपूर्ण नहीं होता, इनमें तो आक्रमण स्वयं विरोधी पक्ष पर किया जाता है। हमें कुछ मिले या न मिले, विरोधी को नुकसान पहुँचे- जब इस प्रकार का मनोभाव लेकर संघर्ष किया जाता है तो वह अयार्थवादी संघर्ष ही कहलाता है, क्योंकि यह यथार्थता से दूर होता है। अयथार्थवादी संघर्व अच्छा का उदाहारण भारत के विरोधी दल प्रस्तुत करते हैं। इस देश की विरोधी राजनीतिक पार्टियाँ एकजुट होकर भाजपा को चुनाव में पराजित करने के यथार्थ लक्ष्य को सामने रखकर चुनाव लड़ने के बजाय एक-दूसरे के विरुद्ध प्रत्याशी खड़ा करके आपस में लड़ मरती हैं। चुनाव लड़ने में उनका मनोभाव कुछ इस प्रकार का होता है कि मैं तो जीतूंगा ही नहीं, पर तुम्हें भी जीतने नहीं दूँगा।” स्पष्ट है कि अयार्थवादी संघर्ष में तो केवल मानसिक तनाव को दूर करने हेतु संघर्ष के लिए लक्ष्यविहीन होता है।

स्पष्ट है कि यथार्थवादी संघर्ष में लक्ष्य या परिणाम प्राप्ति पर अधिक बल दिया जाता है और इन लक्ष्यों की प्राप्ति के साधन के रूप में संघर्ष में शत्रु के विनाश की अपेक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति अधिक महत्वपूर्ण होती है। उदाहरणार्थ अपने वेतन वृद्धि की माँग को लेकर चलाए जा रहे संघर्ष में कर्मचारीगण हड़ताल करने के स्थान पर प्रबंधकों से सहयोग व समायोजन करने को राजी हो सकते हैं, यदि ऐसा करने से उनके लक्ष्यों की पूर्ति अर्थात् वेतन वृद्धि की संभावना अधिक हों। इसके विपरीत जब पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपतियों के शोषण के विरुद्ध नकारात्मक मनोभाव से प्रेरित होकर पूँजीपतियों के विनाश के लिए श्रमिक कई प्रकार के आक्रमणशील रूख अपनाते हैं तो वह अयथार्थवादी संघर्ष होता है। क्योंकि ऐसे संघर्ष में लक्ष्यों या परिणामों की प्राप्ति पर नहीं, अपितु विरोधी पक्ष को नष्ट करने पर ही बल दिया जाता है और विरोधी पक्ष का किसी भी प्रकार से विनाश ही प्रमुख लक्ष्य बन जाता है। इस अर्थ में अयाथार्थवादी संघर्ष में लक्ष्यों के रूप में न कि साधनों के रूप में प्रकार्यात्मक विकल्प पाए जाते हैं। कोजर के अनुसार अयथार्थवादी संघर्ष अक्सर कम स्थायी और अधिक विघटनकारी होते हैं। यथार्थवादी संघर्ष यथार्थवादी लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में निर्देशित होता है क्योंकि इस प्रकार के संघर्षों का जन्म परस्पर विरोधी मूल्यों तथा सीमित साधनों के असमान वितरण से होता है, जबकि अयथार्थवादी संघर्ष आशाभंग तथा वंचित होने की भावना के कारण पनपते हैं और इसीलिए इस प्रकार के संघर्ष विविध प्रकार के विरोधात्मक व्यवहार के रूप में प्रकट होते हैं, क्योंकि आक्रमणकारी कार्य से ही संतोष प्राप्त किया जाता है।

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Pankaja Singh

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