गाँधी जी के आर्थिक विचार | Economic Ideas of Gandhiji in Hindi
गाँधी जी के आर्थिक विचार
(Economic Ideas of Gandhiji)
गांधी जी वैज्ञानिक अर्थ में अर्थशास्त्रीय नहीं थे, उन्होंने समय-समय पर प्रतिपादित आर्थिक सिद्धांतों का विधिवत अध्ययन नहीं किया था। परंतु उनके द्वारा प्रतिपादित आर्थिक विचार बहुत ही अमूल्य है। महात्मा गाँधी के आर्थिक विचारों का आधार विकेंद्रीकरण का सिद्धांत है। जिस प्रकार राजनैतिक सत्ता तभी कारगर हो सकती है। जब सत्ता सच्चे अर्थ में लोगों के हाथों में हो (वोट देने का अधिकार मात्र नहीं) उसी प्रकार आर्थिक समृद्धि के लोग भी यह आवश्यक है कि हम गाँवों से उत्पादन प्रक्रिया शुरू करे अगर गाँव समृद्ध होंगे तो देश स्वयं ही समृद्ध हो जायेगा। देश में उपलब्ध संसाधनों के सही बंटवारे के विषय में गांधी जी ने संरक्षकता के सिद्धांत को स्वीकार किया। यह सिद्धांत पाश्चात्य अर्थशास्त्र में भी आया है, किंतु इसकी व्याख्या गाँधी जी ने उपनिषदों तथा भगवद्गीता के आधार पर की है। इस सिद्धांत के अनुसार जो कुछ भी संसार में उपलब्ध है। प्रकृतिदत्त अथवा मानव प्रयत्न से प्राप्त) वह किसी व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों की निजी संपत्ति नहीं है। उन्होंने माना कि यदि किसी के पास कुछ है तो वह उसका अपना नहीं है बल्कि वह उसका ट्रस्टी मात्र है।
गाँधी जी ने अपनी आर्थिक व्यवस्था के संचालन के लिए चरखा, खादी और स्वदेशी जैसे साधनों की सिफारिश की। गाँधी जी ने आर्थिक व्यवस्था को भारतीय सांस्कृतिक अवस्थाओं के आधार पर स्थापित करने की बात कहीं। उनका मानना था कि हम सुखी जीवन तभी बिता सकते हैं जब हम अपनी सांस्कृतिक आस्थाओं के अनुरूप ही कार्य करें। दूसरे देशों की जीवन पद्धतियाँ या उनकी सांस्कृतिक आस्थाओं के अनुरूप कार्य करे, हमारी मौलिक संस्कृति ग्रामीण संस्कृति है इसलिए हमारे लिए चरखे का जो महत्व है वह बड़ी मशीनों का नहीं हो सकता। अगर भारत का हर व्यक्ति कुछ समय निकाल कर सूत कातने का काम करे तो गाँवों की बहुत अधिक समस्यायें अपने आप ही हल हो जायेगी। चरखा गीता के कर्मयोग का एक प्रतीक है। दूसरी ओर गाँधी जी जानते थे कि भारत में बहुत लोग है जो नंगे भूखे रहते हैं। उनके पास अपना तन ढकने को साधारण वस्त्र भी नहीं है इसलिए उन्होंने खादी की महत्ता को स्वीकार किया। अपने ही देश में निर्मित खादी लोगों को कपड़ा देगी और विदेशी वस्त्र का बहिष्कार करने से देश की संपत्ति देश के अंदर ही रहेगी इसी तर्क के आधार पर गाँधी ने चरखा, खादी और स्वदेशी की भावना को इतना महत्व दिया।
गाँधी जी राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ ही आर्थिक स्वतंत्रता भी चाहते थे। वे सर्वोदय के उपासक थे, उनका स्वराज्य लाखों करोड़ों पद दलितों के लिए था। उनका कहना था कि श्रमिक को हर लाभदायक कार्य के लिए उचित पारिश्रमिक मिलना ही चाहिए। किंतु जब तक यह आदर्श पूरा नहीं किया जा सके तब तक उन्हें इतना पारिश्रमिक अवश्य दिया जाना कि वे अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर सके। शासन का कर्तव्य है कि वह इतना व्यवस्था करे।
गाँधी जी का विश्वास था कि भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले गरीब देश के लिए मशीनों का उपयोगों लाभप्रद नहीं होता। अधिक जनसंख्या को काम पर लगाने की दृष्टि से उत्पादन की ऐसी प्रणालियां काम में लानी होगी जिससे अधिकाधिक श्रमिकों की खपत हो। गांधी जी आदर्शवाद और यथार्थवाद में संधि करते हुए चले। अंतिम रूप में उनका आग्रह था कि कुटीर उद्योगों को बड़े पैमाने के उद्योगों का प्रतिद्वन्द्रि न बनकर सहायक बनना चाहिए। गाँधी जी ने आर्थिक विचारों को नैतिक आधार-शिला प्रदान की। उन्होंने कहा कि सच्चा अर्थशास्त्र कभी भी उच्चतम नैतिक मापदंड के विरूद्ध नहीं जा सकता। अर्थशास्त्र को न्याय भावना से परिपूर्ण होना चाहिए।
गांधीजी का विचार था कि यदि जमींदार और पूँजीपति ट्रस्टी के आदर्शों का पालन न करे तो राज्य कम से कम हिंसा का प्रयोग करते हुए उनकी संपत्ति उनसे छीन ले और मजबूरों और किसानों में मिलकर उनका प्रबंध कराये। ये सरकारी खेती के पक्षधर थे और कहते थे कि कोई भी व्यक्ति आवश्यकता से अधिक भूमि न रखे।
इस प्रकार गाँधी जी के आर्थिक विचारों तथा कार्यकलापों में स्पष्ट झलकता है कि गाँधी जी समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता को मिटाना चाहते थे, व्यक्तिगत संपत्ति का अंत चाहते थे। सत्य और अहिंसा द्वारा हृदय परिवर्तन उनका प्रमुख अस्त्र था। आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए गाँधी जी ने संरक्षकता का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि यदि किसी व्यक्ति को उत्तराधिकार में भारी संपत्ति मिली है अथवा किसी ने व्यापार उद्योग के लाभ में भारी मात्रा में धन एकत्र किया जाय तो यह संपूर्ण संपत्ति वास्तव में व्यक्ति की न होकरसारे समाज की है अतः यह उचित होगा कि जिस व्यक्ति ने संपत्ति का संचय किया है वह स्वयं को संपत्ति का स्वामी न समझकर ट्रस्टी समझे। संपत्ति उसके पास रहे लेकिन वह उसका समाज के हितमें उपयोग करे। गाँधी, गोखले भौतिकवादी के विरोधी थे। उनके सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों की तरह उनमें आर्थिक विचार भी सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित थे। वे धन इकट्ठा करने के लिए धनोपार्जन करने के कट्टर विरोधी थे। मनुष्य धन के लिए नहीं बल्कि धन मनुष्य के लिए हैं धन का उपयोग भी यदि कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित हो जाय तो देश में नैतिकता असंभव हो जायेगी। इसलिए जो भी धन देश में उपलब्ध उसका समान वितरण होना चाहिए। किंतु वे यह भी मानते थे कि एक का धन जबरन छीन कर दूसरे को नहीं दिया जा सकता। ऐसी व्यवस्था में जो जंगल का राज्य स्थापित हो जायेगा। व्यक्तिगत रूप में धनी और निर्धन में कोई अंतर नहीं है। जिनके पास संपत्ति है उनसे यह अपील की जा सकती है कि वे अपनी संपत्ति या धन की स्वेच्छा से उनको भी दे जिसके पास इसका अभाव है। क्या ऐसा करना आधुनिक युग में संभव हैं कार्य कठिन अवश्य प्रतीत होता है पर कुछ ही वर्ष पहले संत विनोबा भावे ने अकेले ही इस कार्य को करके दिखाया था। अगर उनको पूर्ण सफलता नहीं मिली तो उसके पीछे अन्य कारण है। भूमिदान की सैद्धांतिक कमियाँ नहीं अगर उनके कार्य में सरकार तथा अन्य संस्थाओं तथा व्यक्तियों ने सहयोग किया होता तो गाँधी जी का एक स्वप्न अवश्य पूरा हो गया होता। गाँधी जी केवल कुटीर उद्योगों के ही हिमायती थे। यह बात किसी सीमा तक अवश्य सच है। लेकिन इसको गलत ढंग से समझा जाता है। इस प्रकार गाँधी जी की समस्त अवधारणाएं चाहे वे राजनैतिक हो, सामाजिक हो या आर्थिक भारत की वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप थी। वे अर्थशास्त्री के किताबी ज्ञान को भारत पर धोना नहीं चाहते थे।
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